ओ3म् यद्वर्चो हिरण्यस्य यद्वा वर्चो गवामुत ।
सत्यस्य ब्रह्मणो वर्चस्तेन मा सं सृजामसि ॥ (साम्वेद 624)
शब्दार्थ- (हिरण्यस्य) सुवर्ण, वीर्य, सूर्य का (यत्) जो (वर्चः) तेज है, कान्ति है (उत वा) और (गवाम्) गौवों में, इन्द्रियों में, विद्या में (यत् वर्चः) जो तेज है, जो बल और शक्ति है (सत्यस्य) सत्यस्वरूप (ब्राह्मणः) परमेश्वर का, वेद का जो (वर्चः) तेज है (तेन) उस तेज से तू (मा) अपने आत्मा को (संसृजामसि) युक्त कर।
भावार्थ- मन्त्र का एक-एक पद सुन्दर सन्देश दे रहा है-
1. हिरण्य के प्रसिद्ध अर्थ हैं सुवर्ण, वीर्य और सूर्य । अतः मन्त्र का भाव हुआ- मैं धनों का स्वामी बनूँ, मैं वीर्यवान् और शक्तिशाली बनूँ, मैं सूर्य की भाँति तेजयुक्त बनूँ। जैसे सूर्य अन्धकार का विनाश करता है उसी प्रकार मैं भी अविद्या-अन्धकार का नाशक बनूँ।
2. मुझे गौओं का तेज प्राप्त हो। मेरी इन्द्रियाँ तेजस्वी हों। मेरी इन्द्रियाँ विषय-भोगों में फँसकर क्षीण न हों। मुझे विद्या का तेज प्राप्त हो। मैं नाना विद्याओं को प्राप्त कर विद्वान बनूँ।
3. परमेश्वर का तेज मुझे प्राप्त हो। ईश्वर के गुणों को जीवन में धारण करता हुआ मैं भी ब्रह्मविद् बनने का प्रयत्न करूं। र्ईश्वर न्यायकारी है, मैं भी किसी के साथ अन्याय न करूँ। ईश्वर दयालु है, मैं भी प्राणिमात्र के साथ दया का व्यवहार करूँ। मैं सद्गुणों को अपने जीवन में धारण करता हुआ ब्रह्मविद् बनूँ।
4. वेद का अध्ययन करते हुए, वेद के रहस्यों का अनुशीलन और परिशीलन करते हुए मैं वेद का ज्ञाता बनने का प्रयत्न करूँ। - स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती
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