विशेष :

सर्वत्र रक्षक परमेश्‍वर

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ओ3म् बृबदुक्थं हवामहे सृप्रकरस्रमूतये।
साधु कृण्वन्तमवसे ॥ ऋग्वेद 8।32।10॥

ऋषि: काण्वो मेधातिथि:॥ देवता: इन्द्र:॥ छन्द: गायत्री॥

विनय- हे परमेश्‍वर ! हम तुम्हें रक्षा के लिए पुकारते हैं । इस संसार में बहुत से क्लेश, दु:ख और आपत्तियाँ हम पर आती हैं, बहुत-से भय उपस्थित होते रहते हैं । उस समय में हे परमेश्‍वर ! हम तुम्हें ही याद करते हैं । तुम्हारे सिवा क्लेश में हम और किसे पुकारें ? क्योंकि हम जानते हैं कि तुम ही एकमात्र रक्षक हो । जब तुम रक्षा करना चाहते हो, तो सैकड़ों विपत्तियों के बादलों को क्षणभर में उड़ा देते हो, सैकड़ों बन्धन एकदम में काट देते हो । जहाँ रक्षा का कोई भी उपाय नजर नहीं आता, अन्तिम नाश ही दीख रहा होता है, बच जाने की जहाँ हम कोई कल्पना तक नहीं कर सकते, वहाँ पर भी तुम्हारे अदृश्य हाथ पहुँचे हुए हमारी रक्षा कर देते हैं । तुम्हारे रक्षा करने वाले हाथ हर जगह और हर वक्त पहुँचे हुए हैं । इसलिए हे सृप्रकरस्र ! हम कभी भी आशा नहीं छोड़ते कि तुम हमें बचा न लोगे, अत: हम तुम्हें पुकारते जाते हैं । आखिर तुम यदि रक्षा नहीं भी करते, तो भी हम अशान्त नहीं होते । क्योंकि हम जानते हैं कि तुम्हारी अरक्षा में भी रक्षा छिपी होती है।

हे देव ! हमें अटल विश्‍वास है कि तुम कल्याण ही करने वाले हो। तुमसे अकल्याण कभी हो ही नहीं सकता। हम नहीं समझ पाते हैं कि स्पष्ट दीखनेवाली अमुक आपत्ति किस तरह कल्याण के रूप में बदल जाएगी। हमारा विनाश कैसे भलाई को लाने वाला होगा ? पर अनुभवों द्वारा अन्तस्तल पर यह विश्‍वास निहित है कि तुम अपनी हर एक घटना द्वारा हम लोगों का भला ही कर रहे हो और आखिर तुम हमारी पालना करोगे, हमें बचा लोगे । हमारा अत्यन्त विनाश तुम कभी नहीं होने दे सकते । अत: हम तुम्हें ही रक्षा के लिए पुकारते हैं । सदा ऐसे विलक्षण ढंग से सबका कल्याण करते हुए तुम हमारी निश्‍चित रक्षा करने वाले हो । हमारे कल्याण के लिए अपने रक्षक बाहुओं को प्रत्येक क्षण में और प्रत्येक स्थान में फैलाए बैठे हो । तुम्हारे सिवाय मनुष्य के लिए और कौन स्तुत्य है ? मनुष्य और किसके गीत गावे ? तुम्हारी ही स्तुति कर वह अपनी वाणी को कृतकृत्य कर सकता है ।

शब्दार्थ- बृबदुक्थम्= स्तुति करने योग्य इन्द्र को ऊ तये= रक्षा के लिए हवामहे=हम पुकारते हैं। जो इन्द्र सृप्रकरस्रम्=सब जगह फैली हुई भुजाओं वाला है अवसे= जो पालन-पोषण के लिए साधु कृण्वन्तम्= कल्याण ही करने वाला है।• - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार

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