विशेष :

सोमदेव का हृदय-मन्दिर में रमण

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ओ3म् सोम रारन्धि नो हृदि गावो न यवसेष्वा ।
मर्य इव स्व ओक्ये ॥ ऋग्वेद 1।91।13

ऋषि: राहूगणो गोतम:॥देवता सोम:॥ छन्द: गायत्री॥

विनय- हे देव ! तुम मेरे हृदय में आ विराजो, इसी में रमण करो । कहने को तो पहले बहुत बार ऐसी प्रार्थना मैंने की है तथा औरों को करते सुना है, पर शायद तब मैं न तो अपने हृदय को जानता था और न तुम्हें जानता था । तुम तो मुझमें तभी विराज सकते हो, जबकि मेरा हृदय स्वार्थ से बिल्कुल शून्य हो, सर्वथा निर्मल हो । इसीलिए अब मैंने अपने जीवन के लिए भगीरथ-यत्न से हृदय को पवित्र किया है । मैंने झूठ, हिंसा, कुटिलता, असंयम आदि विकारों के मैल को ही नहीं निकाला है, अपितु बड़े यत्न से क्षण-क्षण आत्मनिरीक्षण करते हुए राग और द्वेष के सूक्ष्मातिसूक्ष्म मल को भी खुरच-खुरचकर निकाला है । अतएव अब इसमें भक्ति-स्रोत भी खुल गया है । इसीलिए मैं अब तुम्हें बुलाने की हिम्मत करता हूँ । हे मेरे जीवनसार ! मैं कहता हूँ कि तुम मेरे हृदय में ऐसे आ जाओ, जैसे कि गौवें जौ के हरे खेत में प्रसन्नता से आकर खाने का आनन्द लेती हैं। क्योंकि मैंने भी न केवल अपने हृदय को तुम्हारे योग्य स्वच्छ बनाया है, किन्तु इसमें यह भक्ति का रस भी जुटा रखा है। मेरे इस हार्दिक प्रेम का रसास्वादन करने के लिए तुम यहाँ आओ । मेरा प्रेम देखता है कि अब तुम ही मेरे प्राणों के प्राण हो, तुम्हारा स्पर्श मेरा जीना है और तुम्हारा हट जाना मेरी मौत है । इसलिए मेरा हृदय पुकारता है कि तुम मुझमें आकर सदा रमण करो। क्या मेरा सच्चा ज्ञानमय प्रेम तुम्हें यहाँ नहीं खींच लाएगा ? नहीं, मैं भूल करता हूँ। तुम मेरे हृदय में न केवल आओ, किन्तु आकर इस तरह बस जाओ, जैसे मनुष्य अपने घर में रहता है व रमण करता है । मेरी भक्ति आर्त्त, जिज्ञासु व अर्थार्थी की भक्ति नहीं है, क्योंकि मैंने अपने हृदय से अब ‘अहंकार’ को भी सर्वथा निकाल दिया है । अब यह शरीर तेरा है, यह हृदय अब तेरा अपना घर है। ‘मैं’-मम सब यहाँ से लोप हो गया है। हे आत्मा की आत्मा सोम! सर्वथा विशुद्ध इस हृदय में आप यथेच्छ रमण करो, अब यह तुम्हारा घर हो गया है ।

शब्दार्थ- गाव: न यवसेषु= जैसे जौओं के बीच में गाएं आकर रमण करती हैं, आनन्दित होती हैं और मर्य: स्व ओक्ये इव= जैसे मनुष्य अपने निजी घर में बसता है, वैसे ही त्वम्= आप न: हृदि= हमारे हृदय में आ=आकर रारन्धि=सदा रमण करो व बस जाओ ।• - पं.अभयदेव विद्यालंकार

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