विशेष :

सरस्वती देवी

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ओ3म् चोदयित्री सूनृतानां चेतन्ती सुमतीनाम्।
यज्ञं दधे सरस्वती ॥ (ऋग्वेद- 1.3.11)

ऋषि: मधुच्छन्दा:॥ देवता सरस्वती :॥ छन्द: गायत्री॥

विनय- जिन्होंने अपने जीवन को यज्ञ बनाया है, वे जानते हैं कि इस जीवन यज्ञ को जहाँ अन्य (परमेश्‍वर के शक्तिरूप) देवों ने धारण कर रखा है, वहाँ सरस्वती देवी ने भी इसे धारण किया हुआ है। यह देवी दो कार्य कर रही है। यह एक तो ‘सूनृता’ वाणी को प्रेरित करती है और दूसरा, सुमतियों को जगाती रहती है । सूनृता उस वाणी का नाम है कि जो सच्ची और प्यारी होती है। केवल प्रिया वाणी तो किसी काम की है ही नहीं, किन्तु केवल सच्ची वाणी बोलना भी अधूरा है। सत्य के साथ वाणी में अहिंसा भी रहे, तभी वाणी पूरी होती है और तब वाणी में प्रेम भी आ जाता है। सरस्वती देवी हम लोगों में ऐसी सत्यमयी और मधुर वाणी को प्रेरित करती रहती है। इस कारण हमारा जीवन-यज्ञ निर्विघ्न चलता है। इसके अतिरिक्त यह सरस्वती देवी इस यज्ञ के अन्य ऐसे गहरे और सूक्ष्म अंग को भी निबाहती है, जब यह हममें श्रेष्ठ, सुन्दर कल्याणकर बुद्धि (ज्ञान) को निरन्तर जगाती है। जब जीवन-यज्ञ ठीक चल रहा होता है तो अन्दर सरस्वती देवी हममें शुभ, सबकी कल्याणकारी, हितकारी बुद्धियों को ही उत्पन्न करती हुई और हमारी वाणी से सच्चे और प्रेममय वचनों का ही प्रवाह बहाती हुई होती है । अत: जब कभी हमारे मन में कोई दुर्मति उत्पन्न होवे, हमारा मन किसी के लिए अहित व अनिष्ट सोचे तो समझ लो कि सरस्वती देवी ने हमें छोड़ दिया है। जब कभी हम अनृत या कठोर (हिंसक) वचन बोलें तो समझ लो कि सरस्वती देवी हमारे जीवन की यज्ञशाला से उठ गई है। हमें फिर सुमति और सुनृता वाणी का सकल्प करके अपने हृदयासन में सरस्वती देवी को बिठलाना चाहिए और इस यज्ञ-भंग के लिए प्रायश्‍चित करना चाहिए।

हम प्राय: समझते हैं कि सरस्वती देवी का प्रसाद पढना-लिखना आ जाना है, पर यह नहीं है। यदि किसी के हृदय में सुमति की ही धारा निरन्तर बहती हो और उसकी वाणी से सत्यमय और मधुर वचनों का ही अमृत झरता हो तो वह मनुष्य चाहे बिल्कुल निरक्षर हो, तो भी उसमें निश्‍चय से सरस्वती का वास है, जो कि उसके जीवन-यज्ञ को धारे हुए चला रही है।

शब्दार्थ- सूनृतानाम्= सच्ची और प्यारी वाणी को चोदयित्री= प्रेरित करती हुई सुमतीनाम्= और अच्छी बुद्धियों को चेतन्ती= चेताती हुई सरस्वती=सरस्वती यज्ञम्= यज्ञ को दधे= धारण किये हुए है। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार

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