विशेष :

सरस्वती विद्या के समुद्र को प्रकाशित करती है

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ओ3म् महो अर्णः सरस्वती प्र चेतयति केतुना।
धियो विश्‍वा वि राजति ॥ ऋग्वेद 1.3.12

ऋषिः-मधुच्छन्दाः॥ देवता-सरस्वती॥ छन्दः- गायत्री॥

विनय- ज्ञान की सच्ची जिज्ञासा होते ही यह अनुभव होने लगता है कि अरे ! संसार में तो बड़ा ज्ञातव्य है, एक से एक अद्भुत विद्या है। जिस विषय में देखो उसी विषय में ज्ञान पाने का इतना क्षेत्र है कि मनुष्य कई जन्मों में भी उसका पार नहीं पा सकता। तब दीखता है कि मनुष्य के सामने न जाने हुए ज्ञान का एक अनन्त समुद्र भरा पड़ा है। यह देखने वाले मनुष्य नम्र हो जाते हैं, उन्हें ज्ञान का अभिमान नहीं रहता। ऐसे ही मनुष्य सरस्वती देवी की शरण में जाते हैं । सरस्वती देवी के झण्डे के नीचे आने वालों को सबसे पहले तो यही पता लगा करता है कि ज्ञेय अनन्त है, हमारे ज्ञातव्य संसार का पार नहीं है और हम तुच्छ लोग तो अपनी क्षुद्र इन्द्रियों और बुद्धि को लिये हुए इसके एक किनारे खड़े हैं। विद्या देवी पहले तो इस बड़े भारी समुद्र को ही हमारे लिए प्रकाशित करती है, इसके पार तो पीछे पहुंचाती है। पहले हमें यह अनुभव होना चाहिए कि ज्ञेय अनन्त है। ज्ञान की अनन्तता तो हमें पीछे दीखेगी। सरस्वती देवी जिधर-जिधर अपने ‘केतु’ को अपने झण्डे को ले जाती है, अर्थात् जिधर-जिधर अपनी प्रज्ञापक शक्ति को फिराती है, वहाँ-वहाँ पता लगता जाता है कि अरे ! यह भी एक बड़ा उत्तम ज्ञेय-क्षेत्र है, यह भी एक बड़ा भारी ज्ञेय-क्षेत्र है। इस प्रकार हरेक क्षेत्र को हमारे लिए जगाती जाती है और फिर सब बुद्धियों को विशेषरूप से दीप्त भी करती जाती है। अर्थात् जिस-जिस वस्तु की गहराई में जाकर हम जानना चाहते हैं, उस-उस वस्तु के तत्त्व को, उसके सच्चे स्वरूप को भी हमारे लिए चमका देती है। तब हम जिस विषयक बुद्धि पाना चाहें उसी विषय के ज्ञान को यह देवी हमारे लिए प्रदीप्त कर देती है। तभी अनुभव होता है कि सभी बुद्धियों में वही देवी प्रदीप्त हो रही है, वही चमक रही है, सर्वत्र उसी का राज्य है। सरस्वती देवी के सच्चे स्वरूप का या ज्ञान के आनन्त्य का (जिसके कि सामने ज्ञेय कुछ भी नहीं होता) अनुभव उसी अवस्था में पहुँचने पर होता है।

शब्दार्थ- सरस्वती=ज्ञानदेवी केतुना=ज्ञान द्वारा, प्रज्ञापक शक्ति द्वारा महः अर्णः=बड़े भारी ज्ञान-समुद्र को प्रचेतयति=प्रकाशित करती है और विश्‍वा धियः=सब प्रकाशित बुद्धियों को विराजति=विशेषतया दीप्त करती है। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार

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