विशेष :

सच्चे सम्राट् वरुण द्वारा आत्म साम्राज्य प्राप्ति

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ओ3म् नि षसाद धृतव्रतो वरुण पस्त्या3स्वा।
साम्राज्याय सुक्रतुः ॥ ऋग्वेद 1.25.10॥

ऋषिः आजीगर्तिः शुनःशेप॥देवता वरुणः॥छन्दः गायत्री॥

विनय- वरुण सम्राट् हम प्रजाओं के अन्दर आकर बैठा हुआ है। यह कितनी विचित्र बात लगती है! पर यह उतनी ही सच्ची है। असली साम्राज्य अन्दर ही है। बाहर भी सच्चा सम्राट् वही हो सकता है जिसने पहले अपनी प्रजाओं के हृदयों में सिंहासन प्राप्त कर लिया है। प्रजाओं के हृदयों में बिना घुसे कोई सच्चा सम्राट् नहीं बन सकता है। ठीक-ठीक सच्चा शासन अन्दर घुसकर ही किया जा सकता है। इसीलिए सब ब्रह्माण्ड के एकमात्र अखण्ड सम्राट् जो वरुण देव हैं, वे हम प्रजाओं के अन्दर आकर बैठे हैं। उस असली सम्राट् के दर्शन के लिए यदि हम निकलें तो हमें बाहरी सम्राटों के पास पहुँचने की तरह, उनके पास पहुंचने के लिए कहीं बाहर नहीं फिरना होगा। वे तो स्वयं हमारे अन्दर आकर बैठे हुए हैं और इसलिए आकर बैठे हैं कि हमें साम्राज्य दे दें- ‘साम्राज्याय’। पर हम ऐसे मूर्ख हैं कि हमें कुछ खबर ही नहीं है। हम छोटी-छोटी बातों पर हुकूमत पाने के लिए, राज्य पाने के लिए बाहर घूमते-फिरते हैं, लड़ते-झगड़ते, सत्यादि नियमों को भङ्ग करते, मार-काट करते फिरते हैं, पर यह नहीं जानते कि सर्वश्रेष्ठ (वरुण) राजा तो स्वयं हमें सारे संसार का बादशाह बनाने के लिए, विश्‍व का साम्राज्य देने के लिए अन्दर आकर बैठा हुआ है और प्रतीक्षा कर रहा है। हम उधर देखते ही नहीं।

पर जो उधर देखते हैं वे देखते हैं कि वे वरुण प्रभु ‘धृतव्रत’ हैं, वे व्रतों को धारे हुए हैं, उनके व्रत अटल हैं, उनके नियम कभी टूट नहीं सकते। वे ‘सुक्रतु’ हैं, शोभन कर्म ही करने वाले हैं। उनसे कभी बुरा कर्म हो ही नहीं सकता। हम भी यदि सत्य नियमों का कभी भङ्ग न करने वाले और सदा शोभन कर्म करने वाले हो जाएंगे तो उसी क्षण हमें वह सच्चा साम्राज्य मिल जाएगा। वे महात्मा उस साम्राज्य को भोग रहे हैं जिनके लिए सत्य व्रतों का उल्लंघन और बुरा काम होगा असम्भव हो गया है। यह वह साम्राज्य है, जिसके प्रथम दर्शन होने पर सब कालों और सब देशों के इस महापद को प्राप्त महापुरुष चिल्ला उठते हैं- “मैंने जो पाना था वह पा लिया (योगदर्शन 1.16, व्यास भाष्य), मैं बादशाह हो गया’’, “मैं तो अमृत हूँ।’’(तैत्तिरीय उपनिषद्, शिक्षाध्याय 10.1)

शब्दार्थ- वरुणः=वरुण धृतव्रतः=अटल व्रतों के धारणकर्त्ता और सुक्रतुः=सदा शोभन कर्म ही करने वाले होकर साम्राज्याय=साम्राज्य के लिए पस्त्यासु आ=प्रजाओं के अन्दर आकर निषसाद=बैठा हुआ है। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार

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