ओ3म् केतुं कृण्वन्नकेतवे पेशो मर्या अपेशसे।
समुषद्भिरजायथाः॥ (ऋग्वेद 1.6.3. सामवेद उ. 6.3.14,अथर्ववेद 20.69.19)
ऋषिः मधुच्छन्दाः॥ देवता इन्द्र॥छन्दः गायत्री॥
विनय- यह शरीर तो मर्य है, मुर्दा है। इस समय भी मुर्दा है। जब इस शरीर को अर्थी पर उठाकर जलाने के लिए ले जाया जाता है, उस समय यह शरीर जैसा मुर्दा होता है वैसा ही यह अब भी है । पर इस समय यह मुर्दा इसलिए नहीं दीखता, चूँकि इन्द्र (आत्मा) ने अपनी चेतनता, अपनी सुन्दरता इसमें बसा रखी है।
हे इन्द्र आत्मन् ! जब यह शरीर सुषुप्तावस्था में होता है, तब तुम ही इसमें से अपनी जागरण-शक्तियों को समेट लेते हो, अपने में खींच लेते हो, अतः तुरन्त हमारा चलना-फिरना-बोलना आदि सब व्यापार बन्द हो जाता है। सदा चलने वाले मन के भी सब समल्प-विकल्प बन्द हो जाते हैं। यह शरीर जड़वत् हो जाता है और जब तुम फिर अपनी जागरण-रश्मियों को शरीर में फैला देते हो तो फिर मनुष्य उठ बैठता है, सोचना-विचारना शुरु हो जाता है, मनुष्य फिर चलने-बोलने लगता है। इस ‘अकेतु’ शरीर में फिर चेतना दीखने लगती है, उसका खोया हुआ जाग्रत्-रूप फिर उसमें आ जाता है। हे इन्द्र! सुषुप्ति में तो तुम अपनी जागरण-शक्तियों को केवल समेट लेते हो, पर जब तुम इस शरीर को छोड़ ही देते हो तब क्या होता है ? तब यह शरीर अपने असली रूप में, मिट्टी के ढेर के रूप में दीख पड़ता है। न इसमें ज्ञान होता है और न रूप। हे इन्द्र! इस मिट्टी के बर्तन में अमृत होकर तुम ही भरे हुए हो। इस मिट्टी में जो रूप, सुडौलता आ गई है, सुन्दर अवयव-सन्निवेश हो गया है, यह तुम्हारे व्यापने से हुआ है और इस मिट्टी की मूर्ति में शव की अपेक्षा जो इतनी चेतनता दिखाई देती है वह तुम्हारे समाने से हुई है। यह शरीर जो मुर्दा होने पर इतना अपवित्र समझा जाता है कि इसे छू लेने से स्नानादि करना पड़ता है वही असल में मुर्दा शरीर, हे परम पावन इन्द्र ! इस समय तुम्हारे समाये रहने के कारण, तुम्हारे पवित्र संस्पर्श से इतना पवित्र हुआ-हुआ है। तुम्हारा इतना अद्भुत माहात्म्य है। मनुष्य तुम्हारे इस माहात्म्य को क्यों नहीं देखता?
आज हम स्पष्ट देख रहें हैं कि इन सब मुर्दा, जड़ शरीरों में चेतनता लाते हुए और इन अरूपों में रूप-सौन्दर्य प्रदान करते हुए तुम ही अपनी जाग्रत-शक्तियों के साथ उदय हुए-हुए हो, तुम ही आए हुए हो ।
शब्दार्थ- हे इन्द्र आत्मन् ! तू मर्याः=इस मरणशील अकेतवे=और ज्ञानरहित अवस्था वाले शरीर में केतुं कृण्वन्=ज्ञान और जीवन लाता हुआ तथा अपेशसे=इस अरूप, असुन्दर शरीर में पेशं कृण्वन्=रूप सौन्दर्य लाता हुआ उषद्भिः=अपनी जागरण-शक्तियों के साथ सम् अजायथाः=उदय होता है, पुनर्जागरण और पुनर्जन्म में उदय होता है। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार
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