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सारे विश्‍व में गूंजे हमारी भारती

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भारतेन्दु हरिश्‍चंद्र ने कहा था- निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल, बिन निज भाषा ज्ञान के मिटत न हिय को सूल। अर्थात असली उन्नति या विकास वही है जो अपनी भाषा में हो, चाहे वह फिर राष्ट्र की भाषा हो या क्षेत्रीय भाषा। लेकिन दुर्भाग्य से भारत में उन्नति का पर्याय निज भाषा के बजाय पर भाषा यानी अंग्रेजी को मान लिया गया है। यही कारण है कि इस उन्नति का लाभ भी एक खास वर्ग को ही मिल पाया। आज भी देश में एक बड़ा वर्ग ऐसा है जो अंग्रेजी समझना तो दूर की बात है, पूर्णत: शिक्षित भी नहीं है। प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी भले ही खुद को ‘प्रधान सेवक’ कहें, लेकिन अंग्रेजी जानने-समझने वाला यह वर्ग खुद को ‘सेवक’ के बजाय ‘शासक’ समझता है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि चीन, जापान, फ्रांस, जर्मनी आदि देशों की तरक्की का आधार उनकी अपनी ही भाषा है। हाल ही में जब हिन्दी को अनिवार्य बनाने की बात हुई तो दक्षिण भारत के कुछ दलों ने उसका विरोध शुरू कर दिया था। इनका विरोध नैतिक धरातल पर न होकर सिर्फ राजनीतिक था। स्वतंत्रता के बाद में कई राजनीतिक दलों की ‘रोजी-रोटी’ हिन्दी विरोध पर ही चली। बडा सवाल यह है कि इस तरह की मानसिकता के लोग अंग्रेजी सीख सकते हैं, लेकिन जब हिन्दी की बात आती है तो यह विषवमन करने लगते हैं। यही दक्षिण भारत के लोग जब रोजगार की तलाश में हिन्दी भाषी राज्यों में आते हैं, इन्हें हिन्दी बोलने और लिखने में बिलकुल भी आपत्ति और परेशानी नहीं होती।

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वास्तविकता तो यह है कि भाषा लोगों को जोड़ने का ही काम करती है। भले ही हम अपनी क्षेत्रीय भाषा में पढ़ें-लिखें, लेकिन एक भाषा ऐसी भी होनी चाहिए जो पूरे देश की हो, जिससे लोग एक दूसरे सांस्कृतिक और सामाजिक रूप से जुड़ सकें और यह भाषा और कोई नहीं देश में सबसे ज्यादा बोली और लिखी जाने वाली हिन्दी ही हो सकती है।

शिक्षा का माध्यम अनिवार्य रूप से मातृभाषा ही होना चाहिए। फिर वह तमिल हो, असमी हो या मराठी या फिर कोई और। इस पर किसी को आपत्ति होना भी नहीं चाहिए। अभी देश में त्रिभाषा फार्मूले की बात हो रही है, लेकिन यह फार्मूला त्रिभाषा के बजाय द्विभाषा ही होना चाहिए। कोई भी व्यक्ति अपनी मातृभाषा में शिक्षा ग्रहण करे साथ ही दूसरी भाषा के रूप में वह हिन्दी अथवा अन्य किसी भी क्षेत्रीय भाषा को अपना सकता है। जहां तक अंग्रेजी का सवाल है तो उसे तीसरी और ऐच्छिक भाषा के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। इतना ही नहीं तृतीय भाषा के रूप में चाहे तो व्यक्ति अंग्रेजी के अलावा फ्रेंच, जर्मन या किसी अन्य विदेशी अथवा देशी भाषा को भी चुनने की छूट होनी चाहिए। भाषा के साथ हमें शिक्षा में नैतिक मूल्यों का समावेश भी करना होगा। आज समाज में बढ़ती बलात्कार की घटनाएं, आत्महत्या की प्रवृत्तिा, मानसिक विकार, बेईमानी कहीं न कहीं नैतिक मूल्यों के पतन का ही परिणाम हैं। जब व्यक्ति नास्तिक होता है तो उसे ‘कर्मफल’ की भी चिंता नहीं होती है। ऐसे में उसका झुकाव स्वाभाविक रूप से ‘चार्वाक दर्शन’ की ओर ही होता है।

अर्थात ऋणं कृत्वा घृतम् पिवेत, जैसे भी हो अपनी इच्छाओं की पूर्ति करो, फिर रास्ता कोई भी हो। समाज में नैतिक मूल्य तभी आ सकते हैं, जब शिक्षा में प्राचीन ज्ञान-विज्ञान का समावेश हो। जब प्राचीन ज्ञान-विज्ञान की बात हो तो हमें संस्कृत शिक्षण पर भी ध्यान देना होगा। जब लोग नैतिक शिक्षा से युक्त प्राचीन ज्ञान को जीवन में उतारेंगे तभी सही अर्थों में ज्ञान का प्रकाश समाज में फैल पाएगा और तभी सच्चे अर्थों में हम प्रकाश का पर्व दीपावली मना पाएंगे। इस बार तो दीवाली भी खास होगी, क्योंकि अलगाववाद रूपी रावण के मंसूबों को ध्वस्त कर केन्द्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर को विशेषाधिकार देने वाले अनुच्छेद 370 को लोकतांत्रिक तरीके समाप्त कर उन लोगों के जीवन में उजाला भरने की कोशिश की है, जो वर्षों से अपने अधिकारों से वंचित थे या फिर अपनी जमीन होने के बाद भी शरणार्थी जैसा जीवन व्यतीत कर रहे थे। दलित और आदिवासी भाइयों को भी वहां पूरे देश की तरह आरक्षण का लाभ मिलेगा। निश्‍चित ही इसके लिए श्री नरेन्द्र मोदी सरकार बधाई की पात्र है। दीप पर्व के शुभ अवसर पर दिव्ययुग के सभी पाठकों को शुभकामनाएं एवं बधाई! - वृजेन्द्रसिंह झाला (दिव्ययुग - अक्टूबर 2019)