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राष्ट्रधर्म से बड़ा सत्ताधर्म

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हाल ही में भारतीय सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले ने साबित कर दिया कि हमारे नेता किस हद तक जा सकते हैं। शीर्ष न्यायालय ने न केवल 2 जी स्पेक्ट्रम मामले में दूरसंचार कम्पनियों के 122 लायसेंस निरस्त कर दिए, बल्कि स्पेक्ट्रम आबंटन की समूची प्रक्रिया पर ही प्रश्‍न चिह्न लगा दिया। इस पूरे घटनाक्रम से क्या सरकार ने कोई सबक लिया होगा? कदापि नहीं। और यदि हम ऐसा सोचते भी हैं तो यह भ्रम से ज्यादा कुछ भी नहीं है। सरकार से जुड़े एक वर्ग ने तो शर्मिन्दा होने की अपेक्षा इस बात पर सन्तोष प्रकट किया है कि न्यायालय ने प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह और गृहमन्त्री पी. चिदम्बरम् को दोषी नहीं माना या उनके विरुद्ध कोई टिप्पणियाँ नहीं की। सम्भवतः उन्हें लगता है पूर्व दूरसंचार मन्त्री ए. राजा आकाश या पाताल से आई कोई ‘आसुरी शक्ति’ है, जिसका इस सरकार और उसके मुखिया से कोई सम्बन्ध हो ही नहीं सकता। संप्रग सरकार की प्रमुख सोनिया गान्धी से तो बिल्कुल भी नहीं। अब यह बात तो किसी मूर्ख के भी गले नहीं उतरेगी कि राजा पौने दो लाख करोड़ का घोटाला करते रहे और सरकार के ‘कर्णधारों’ को पता ही न चला। सबसे शर्मनाक बात तो यह है कि अदालत के इस निर्णय पर लीपापोती शुरू हो गई है। विपक्ष भी आरोप-प्रत्यारोप में ही उलझा है। कोई भी यह सवाल पूछने का साहस नहीं दिखा रहा है कि जनता के खून-पसीने की कमाई यह पौने दो लाख करोड़ आखिर वसूले कैसे जाएँगे।

मार्च माह में देश अमर बलिदानी सरदार भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव और पं. गणेश शंकर विद्यार्थी का बलिदान दिवस तथा महान क्रान्तिकारी श्यामजी कृष्म वर्मा की पुण्यतिथि मना रहा है। ....लेकिन दुर्भाग्य से बहुत से लोगों को तो यह भी नहीं मालूम कि मार्च माह से क्रान्तिकारियों का क्या सम्बन्ध है? मार्च माह की 23 दिनांक से नववर्ष (विक्रमी संवत्सर 2069) भी आरम्भ हो रहा है। ‘हैप्पी न्यू ईयर’ और ’हैप्पी वैलेण्टाईन डे’ कहने वाले और इन ‘दिवसों’ को याद रखने वालों से उम्मीद भी क्या की जा सकती है! जिस उम्र में आज का युवा नवयौवना फिल्म अभिनेत्रियों के चित्र अपने तकिए के नीचे रखकर सोता है और उन्हीं के सपने देखता है, उस आयु में वीर क्रान्तिकारियों ने माँ भारती को गुलामी की जंजीरों से मुक्त करने का सपना देखा था। सरदार भगतसिंह उस स्वप्न को वास्तविकता के धरातल पर लाने के लिए विदेशी हुकूमत को हिलाकर रख दिया था।

भ्रष्टाचार, आतंकवाद, सम्प्रदायवाद, जातिवाद जैसे बुराईयों को दूर करने के लिए मौजूदा समाज व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता है। इसके लिए एक बार फिर भगतसिंह की तरह ही क्रान्ति का शंखनाद करना होगा। इनके विचारों से भी प्रेरणा लेनी होगी। भगतसिंह ने कहा था- “क्रान्ति से हमारा अभिप्राय अन्याय पर आधारित मौजूदा समाज व्यवस्था में आमूल परिवर्तन है। समाज का मुख्य अंग होते हुए भी आज मजदूरों को उनके प्राथमिक अधिकार से वंचित रखा जाता है और उनकी गाढ़ी कमाई का सारा धन पूंजीपति हड़प जाते हैं। अन्नदाता किसान दाने-दाने का मोहताज है। दुनिया भर के बाजारों को कपड़ा मुहैया करने वाला बुनकर अपने और अपने बच्चों का तन ‘ढंकने के लिए कपड़े ही नहीं जुटा पाता। इसके विपरीत समाज के शोषक पूंजीपति जरा-जरा सी बात के लिए लाखों (अब करोड़ों) का वारा न्यारा कर देते हैं। यह भयानक असमानता और जबरदस्ती लादा गया भेदभाव दुनिया को एक बहुत उथलपुथल की ओर लिए जा रहा है।‘’ (भगतसिंह के एक लेख के अंश)

मार्च महीने में ही हम रंगों का पर्व होली भी मना रहे हैं। ऋतु परिवर्तन और नई फसल के आगमन की खुशी में मनाया जाने वाला यह पर्व मात्र प्रतीक बनकर रह गया है। जीवन में उत्साह और उमंग लुप्त हो चुके हैं। राष्ट्रप्रेम, ईमानदारी, सद्भाव, सौहार्द जैसे ‘रंग’ समाज से उतर चुके हैं। वर्तमान में केवल एक ही रंग दिखाई देता है और वह है ‘सत्ता का रंग’। ......और चारों ओर ‘रंगे सियार’ ही नजर आते हैं। आज देश और समाज को उस बासन्ती रंग की आवश्यकता है, जिसने भगत को हँसते-हँसते फांसी का फन्दा चूमने के लिए प्रेरित किया था। - बृजेन्द्रसिंह झाला

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