‘संस्कृति’ शब्द ‘सम्’ उपसर्ग से ‘कृ’ धातु में ‘क्तिन’ प्रत्यय जोड़कर बना है तथा इसका अर्थ है भूषण युक्त सम्यक कृति। संस्कृति शब्द अत्यन्त व्यापक अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है। संस्कृति मानवीय कृति होने के कारण मानव की ही भाँति प्रगतिशील भी है। संस्कृति ही मानव का समग्र परिष्कार करती है। संस्कृति ही वास्तव में संस्कारों की जननी है। संस्कारों से मानव हृदय में दया, करुणा, अहिंसा, सत्यता, सात्विकता, त्याग, उदारता, प्रेम तथा बन्धुत्व के गुणों का विकास होता है। इन्हीं गुणों के आधार पर मनुष्य सच्चे अर्थों में मानव बनता है। संस्कार जीवन को संवारकर उसी प्रकार श्रेष्ठ बनाते हैं, जिस प्रकार माली उद्यान की सफाई करके उसे सुन्दर बनाता है। मानव हृदय संस्कारों से ही विशाल और उदार बनता है। संस्कारों की पूर्णता आध्यात्मिक जीवन के साथ ही वैज्ञानिक अवधारणा के रूप में विकसित भारतीय जीवन-पद्धति सभी के द्वारा मान्य एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। संस्कार व्यक्ति को सँवारते हैं, तो संस्कृति समाज को तथा राष्ट्र को सँवारती है। संस्कारों से ही श्रेष्ठ संस्कृति का स्वरूप निर्मित होता है, जो ऊर्ध्वगामी मार्ग को प्रशस्त कर मनुष्य को उन्नत बनाती है। भारतीय संस्कृति अपने इन्हीं विशिष्ट गुणों के कारण विश्व में सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है।
संस्कृति के सृजन तथा संरक्षण का कार्य भाषा करती है। भाषा ही के माध्यम से संस्कृति उदात्त संस्कारों को जन-जन तक पहुँचा कर उनके जीवन को परिष्कृत करते हुए उत्कृष्ट बनाती है। वास्तव में संस्कृति की रक्षक तथा संस्कारों की वाहिनी भाषा ही है। भाषा ही संस्कृति के ज्ञान, दर्शन, आध्यात्मिकता और चिन्तन को संरक्षण प्रदान करके उसे क्रियाशील बनाती है। संस्कृति के गुण भाषा में ही सुरक्षित रहते हैं। आरम्भ में संस्कृत भाषा भारतीय गुणों की अवधारणा को पुष्ट बनाने का कार्य करती थी,जिसे अब समग्र रूप में हिन्दी भाषा आगे बढ़ाने का कार्य कर रही है। हिन्दी भाषा भारतीय संस्कृति की संवाहिका के रूप में कार्य करके उसे सुरक्षित बनाए हुए है, वहीं वह विश्व पटल पर उसका परचम भी फहरा रही है। मनुष्य को देश का नागरिक बनने के लिए संयम, सत्यनिष्ठा, उदारता, अनुशासन तथा राष्ट्रभक्ति आदि जिन गुणों की आवश्यकता होती है, वो किसी विदेशी भाषा के अध्ययन से प्राप्त नहीं हो सकते। अपितु अपनी ही भाषा से प्राप्त होते हैं। विश्व के प्रत्येक देश की अपनी भिन्न संस्कृति होती है, जो उस देश के साहित्य, कला और क्रिया-कलापों के माध्यम से उसकी भाषा में सन्निहित होती है। यद्यपि भारत के विभिन्न प्रदेशों में विभिन्न भाषाएँ प्रयोग में आती हैं, किन्तु उस सभी में अन्तर्वाहिनी के रूप में एक ही संस्कृति कार्य करती है, जो अनेकता में एकता का सन्देश देती है। विश्व के अन्य देशों से भिन्न भारत की संस्कृति धर्म, दर्शन तथा आध्यात्मिकता से परिपूर्ण है, जो देश की विभिन्न भाषाओं का जीवन्त प्राणतत्व है और वह उन्हें एकता के सूत्र में पिरोए हुए है। विश्व की अन्य किसी भी भाषा में यह गुण विद्यमान नहीं है जो संस्कारित भाषा के रूप में कार्य करके वहाँ के नागरिकों को सदैव चरित्रवान तथा राष्ट्रभक्त बना सके। शान्ति तथा सुख मानव जीवन के लिए दो मूलभूत आधार स्तम्भ हैं, जो केवल हिन्दी भाषा के अध्ययन से ही प्राप्त किए जा सकते हैं। अंग्रेजी भाषा का अध्ययन करके कोई व्यक्ति अच्छा अधिकारी या कर्मचारी तो बन सकता है किन्तु सहजता, शालीनता, सादगी और मितव्ययता के गुणों से भरपूर अच्छा नागरिक नहीं बन सकता। इसी तथ्य को दृष्टि में रखकर युगपुरुष भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने कहा है-
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को शूल॥
विश्व के अन्य सभी स्वाधीन राष्ट्रों में उनका शासकीय कार्य उनकी अपनी भाषा में होता है।
केवल भारत ही ऐसा अभागा देश है, जो स्वाधीनता के 63 वर्षों के उपरान्त भी अंग्रेजों का उपनिवेश बना हुआ है। उसके केन्द्रीय शासन का, सचिवालयों का तथा न्यायालयों का समस्त कार्य अंग्रेजी भाषा में होता है। शासन में अपने संस्कार जीवित न होने के कारण ही यह देश घपले, घोटालों और भ्रष्टाचार का प्रमुख देश बना हुआ है। अपहरण, हत्या और बलात्कार की जितनी घटनाएँ इस देश में हो रही हैं, उतनी विश्व के अन्य किसी भी देश में नहीं होती। अनुशासन तथा न्याय के पालन की भावना तो यहाँ के नागरिकों में लेशमात्र भी नहीं है। इस देश में अपराधों की संख्या इतनी अधिक है कि न्यायालय से उनका फैलसा होने में बीसों वर्ष लग जाते हैं। देश में लाखों ऐसे मामले हैं, जो न्यायालयों में लम्बित पड़े हुए हैं और उनका निर्णय कब होगा किसी को कुछ पता नहीं।
वास्तविकता यह है कि भारत हजारों वर्षों तक विदेशियों का गुलाम रहा है। स्वाधीन राष्ट्र के नागरिकों में जो स्वाभिमान, अनुशासन और राष्ट्रभक्ति के गुण होने चाहिएं, वे यहाँ तनिक भी नहीं हैं। मानसिक गुलामी की भावना भी मनों में बसी हुई है, जो उन्हें सजग और जागरूक नागरिक होने से रोकती है। इस देश का दुर्भाग्य यह भी रहा है कि यहाँ ऊँचे पदों पर जितने भी व्यक्ति रहे हैं, वे सब हिन्दी भाषा और भारतीय संस्कृति से अनभिज्ञ अंग्रेजी शिक्षित थे। उन्होंने आरम्भ से ही हिन्दी के महत्व को समझे बिना उसे आगे नहीं बढ़ने दिया। किन्तु अब विलम्ब बहुत हो गया है। हमें सावधान होकर तत्काल ही अपनी भाषा को राष्ट्र की धुरी बनाकर उससे कार्य करना आरम्भ कर देना चाहिए, तभी भारत के स्वाभिमान और गरिमा की रक्षा हो सकेगी । - डॉ. मित्रेश कुमार गुप्त
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