ध्यातव्य है कि 10 दिसम्बर विश्वभर में 'मानवाधिकार दिवस' के रूप में मनाया जाता है। मानवाधिकारों की रक्षा के लिए भारत सरकार ने 26.09.1993 को 'मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम' बनाया था। मानवाधिकार से अभिप्राय मानव के नैसर्गिक अधिकारों से है। ये ऐसे अधिकार हैं, जो प्रत्येक मनुष्य को जन्मत: मिले हैं। ये मनुष्य की प्रकृति में निहित हैं और किसी रीति-रिवाज, शासक, कानून, संसद या किसी अन्य संस्था की देन नहीं हैं। मानवाधिकार किसी भी सभ्य एवं सुसंस्कृत समाज का व्याकरण होता है, जिसके मूल में मानव गरिमा, न्याय, निष्पक्षता एवं शोषणरहित रहित न्याय निहित होता है। मानवाधिकारों के अन्तर्गत वे सभी अधिकार सम्मिलित किए जा सकते हैं, जो व्यक्ति को उसमें निहित मूल प्रवृत्तियों के विकास के लिये आवश्यक हैं। प्रो. हेराल्ड जे. लॉस्की के अनुसार-''अधिकार सामाजिक जीवन की वे दशाएं हैं जिनके बिना साधारणतया कोई भी व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास नहीं कर सकता है।
अधिकारों के बिना मनुष्य समाज के लिए उपयोगी कार्य नहीं कर सकता है। राज्य का उद्देश्य व्यक्ति का कल्याण है। इसके लिए राज्य द्वारा व्यक्ति को कुछ सुविधाएं प्रदान की जाती हैं। राज्य द्वारा व्यक्ति को प्रदान की जाने वाली इन्हीं सुविधाओं का नाम अधिकार है।'' दार्शनिक रूसो के अनुसार ''मनुष्य स्वतन्त्र जन्मा है, परन्तु समाज ने उसे जंजीरों में जकड़ा है।'' मनुष्य को जंजीरों से मुक्त कराने के लिए ही मानवाधिकारों की अवधारणा की गई है। अमेरिका की क्रान्ति (1776) तथा फ्रांस की क्रान्ति (1789) में मानव अधिकारों का जो उद्घोष किया गया, उसके द्वारा मानव के महत्त्वपूर्ण अधिकारों को स्वीकार किया गया। इसके बाद से विश्व के लोकतांत्रिक देशों के संविधानों में मानव अधिकारों का प्रावधान किया जाने लगा।
मानवाधिकारों के सन्दर्भ में अमेरिका के थॉमस जेफरसन ने 13 अमेरिकी उपनिवेशों की स्वतन्त्रता की उद्घोषणा में कहा था- ''हम इस सत्य को स्वयं प्रमाणित मानते हैं कि सब मनुष्य समान रूप से जन्म लेते हैं और जन्मदाता ने इन्हें जन्म से ही कुछ ऐसे अधिकार दिए हैं, जिनका अतिक्रमण नहीं किया जा सकता। इनमें प्रमुख हैं जीवन की सुरक्षा, मानवीय स्वतन्त्रता एवं सुख की प्राप्ति हेतु प्रयास करने की छूट।'' कालान्तर में जॉर्ज वाशिंगटन जो अमेरिका के स्वतन्त्रता के संग्राम के अग्रणी नेता थे, ने भी मानव अधिकार की 26 अगस्त 1789 की उद्घोषण में यही दोहराया था कि ''सभी मानव जन्म से स्वतन्त्र हैं और समानता के व्यवहार के अधिकारी हैं।'' 1941 में अमेरिका के राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी. रूजवेल्ट ने अमेरिकी कांग्रेस को दिये गये सन्देश में चार स्वतन्त्रताओं पर बल दिया- 1. भाषण तथा अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता, 2. धर्म तथा विश्वास की स्वतन्त्रता, 3. अभाव से स्वतन्त्रता और 4. भय से स्वतन्त्रता। उनके अनुसार ये सभी अधिकार विश्व में हर स्थान पर सभी को प्राप्त होने चाहिएं।
द्वितीय महायुद्ध के बाद 1945 में जब 'संयुक्त राष्ट्र संघ' का घोषणा पत्र जारी करने के लिए सैनफ्रांसिस्को सम्मेलन हुआ तो मानव अधिकारों तथा मूल स्वतन्त्रताओं से सम्बन्धित प्रावधानों की आवश्यकताओं को स्वीकार किया गया। संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर की प्रस्तावना में ''मानव के मौलिक अधिकारों, मानव के व्यक्तित्व की गरिमा तथा महत्व एवं पुरुषों तथा स्त्रियों के समान अधिकार'' में विश्वास प्रकट किया गया। मानवाधिकारों की पहली सुव्यवस्थित घोषणा 10 दिसम्बर 1948 को 'संयुक्त राष्ट्र' की साधारण सभा में की गई, जिसे बाद में 23 मार्च, 1976 को अन्तरराष्ट्रीय विधेयक का रूप दे दिया गया। कालान्तर में 'संयुक्त राष्ट्र संघ महासभा' ने 10 दिसम्बर 1984 को सर्वसम्मति से 'मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा' को स्वीकार किया, जिसमें प्रस्तावना सहित 30 अनुच्छेद हैं। इस घोषणा पत्र में न केवल नागरिकों के राजनीतिक अधिकारों का बल्कि सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक अधिकारों का प्रतिपादन किया गया है। 26 जनवरी 1950 को 'भारतीय संविधान' में भी संयुक्त राष्ट्र संघ घोषणा (10 दिसम्बर, 1948) के एक से बीस तक सभी आर्टिकल सम्मिलित कर लिए गए। देखा जाए तो हमारे संविधान में वर्णित नागरिक मूल अधिकार मानव अधिकारों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
'संयुक्त राष्ट्र संघ' द्वारा 1946 में 'मानवाधिकार आयोग' स्थापित किया गया। 20 दिसम्बर 1993 को मानवाधिकारों की रक्षा के लिए एक 'मानवाधिकार उच्चायुक्त' का गठन किया गया। भारत में राष्ट्रीय स्तर पर 12.10.1993 को 'राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग' की स्थापना हुई। जो व्यक्ति भारत के उच्चतम न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश रहा हो, वही इस आयोग का अध्यक्ष बन सकता है। इस प्रयास को पूरे भारत में विस्तार देने के लिए कई राज्यों में राज्य स्तरीय मानव-अधिकार आयोग का गठन किया गया। राजस्थान राज्य में 18 जनवरी 1999 को आयोग का गठन हुआ। तदनन्तर मार्च 2000 में अध्यक्ष एवं सदस्यों की नियुक्ति हुई। दुनिया में मानवाधिकारों की रक्षा के लिए तमाम कानून है। 'इमनेस्टी इंटरनेशनल' और 'गैर शासकीय सामाजिक संगठन' हर छोटी-बड़ी घटनाओं पर नजर रखते हैं। लेकिन इसके बाद भी हर देश में किसी न किसी रूप में मानवाधिकारों का हनन होता रहता है। दुनिया में कई देश तो ऐसे हैं, जहाँ मानवाधिकारों का हनन दशकों से बर्बरतापूर्ण किया जाता रहा है। अमेरिका में भी नस्लभेद व रंगभेद है। मानवाधिकारों का बेसुरा दम्भ भरनेवाले इस वैश्विक महानायक ने इराक, अफगानिस्तान या अन्य देशों में मानवाधिकारों का कितना हनन किया है, यह सर्वविदित है। इजरायल द्वारा लेबनान व फिलिस्तीन में अधिकारों का घोर उल्लंघन किसी से छिपा नहीं है।
मानवाधिकारों का हनन सर्वाधिक आतंकवाद द्वारा होता है। पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित सीमापार के आतंकवाद से केवल जम्मू-कश्मीर में ही हजारों लोगों को मौत के घाट उतारा जा चुका है। बढ रहा आतंकवादी नक्सलवाद भी मानवाधिकारों के लिए चुनौती है। सीरिया स्थित इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एण्ड सीरिया (आई.एस.आई.एस.) और मुस्लिम देशों में सक्रिय 'अलकायदा' की आतंकी गतिविधियाँ मानवाधिकारों के लिए भयावह खतरा हैं।
श्रीलंका में तमिलों पर 80 के दशक से अत्याचारों की शुरुआत हुई। इराक स्थित कुर्दिस्तान 1919 से ही आजादी के लिए लड़ रहा है। तिब्बत की आजादी का संघर्ष लगभग 55 साल पुराना है। फिलस्तीन अपने अस्तित्व के लिए 66 सालों से इजरायल के साथ संघर्ष कर रहा है। उत्तर कोरिया में कम्युनिस्ट तानाशाही ने बर्बरता की हदें पार कर दी हैं। सऊदी अरब में मौत की सजा, महिलाओं पर बन्दिशें और कम्पनी में बन्धुआ मजदूरी के मामलों की अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर आलोचना होती है। अन्तरराष्ट्रीय संस्था 'वॉच हाउस' के मुताबिक म्यामांर, इक्वाटोरियल गुयाना, एरिट्रिया, लीबिया, उत्तरी कोरिया, चीन और सूडान मानवाधिकार हनन के मामले में अव्वल हैं। सीरिया, सोमालिया, तुर्कमेनिस्तान, लीबिया, क्यूबा और सऊदी अरब में भी मानवाधिकारों की सबसे अधिक अनदेखी हो रही है। इन देशों में लोगों के हालात बहुत खराब हैं। जेनेवा में आयोजित कार्यक्रम 'आठवें विश्व अन्तरराष्ट्रीय मानवाधिकार सम्मेलन 2011' के दौरान यह तथ्य सामने आए हैं कि तमाम कवायदों के बावजूद मानवाधिकारों के मामले में आज भी विश्व के अनेक देश बहुत पिछड़े हुए हैं। करीब 18 देशों में व्यक्तिगत रूप से लोग परेशान किए जाते हैं, 54 देशों में लोगों के साथ अन्याय होता है। लगभग 77 देशों में लोगों को अपनी बात रखने का अधिकार ही नहीं है।
'राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग' के कार्यक्षेत्र में नागरिक और राजनीतिक अधिकारों के साथ-साथ आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकार भी आते हैं। इनमें बाल मजदूरी, एचआईवी/एड्स, स्वास्थ्य, भोजन, बाल-विवाह, महिला अधिकार, हिरासत और मुठभेड़ में होनेवाली मौतें, अल्पसंख्यकों और अनुसूचित जाति और जनजाति के अधिकार भी शामिल हैं। जब तक लोगों को सामाजिक-आर्थिक अधिकार नहीं मिल जाते, तक तक मानवाधिकारों को वास्तविकता में लागू करना सम्भव नहीं है।
भारत में भी मानवाधिकारों का हनन कोई अपवाद नहीं है। आज भी इस बड़े भू-भाग में गरीबी, बेरोजगारी, भुखमरी, महिला उत्पीड़न, अमानुषिकता, पुलिस अत्याचार एवं निरंकुशता, निर्ममता, अधिकारों का दुरुपयोग व असमानता का बोलबाला है। बालिकाओं व महिलाओं पर अत्याचार, बलात्कार, कन्या भ्रूण हत्या की घटनाओं में बढोतरी हो रही है। बाल विवाह की प्रथा कायम है, दहेज हत्या बढ रही है। देवदासी प्रथा जैसी परम्पराओं के जरिए आज भी महिलाओं को वेश्या व्यवसाय में ढकेला जाता है। आज भी दलितों को ट्यूबवैल, पम्प या कुँओं से पानी लेने पर पाबन्दी लगाई जाती है। गांव से लेकर शहरों तक, होटलों व रेस्टोरेण्टों में, खतरनाक उद्योग धन्धों व कारखानों में, छोटे-छोटे बच्चे काम करते देखे जा सकते हैं। खानों व कारखानों में बन्धुआ मजदूर मजबूर हैं। ऋण के बोझ से परेशान किसान आत्महत्या करते हैं। नौकरशाही व पुलिस का सामन्ती रवैया, उपनिवेशीय स्वरूप व शैली बनी हुई है। पुलिस व सशस्त्र सेनाओं के विरुद्ध हिरासत में मौत, बलात्कार, मारपीट के आरोप, फर्जी मुठभेड़ के आरोपों पर प्रभावी कार्यवाही नहीं होती है। जेलों में बन्दियों के साथ दुर्व्यवहार व शोषण के आरोप भी लग रहे हैं।
कहने को तो हम भले ही भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता को विश्व की सबसे प्राचीन बताने का दावा करते हों, लेकिन मानवाधिकारों के मामले में हम आज भी पिछड़े और दकियानूसी विचारों वाले ही हैं। कन्या भ्रूण हत्या, लड़कों की तुलना में लड़कियों से भेदभाव बरतना, विवाह के बाद महिलाओं के उत्पीड़न की घटनाएं बढना हमारे विकास व विकसित होने के खोखले दावों को चूर-चूर करती हैं। देश की आजादी के 67 वर्षों के बावजूद भी हमारे देश के बचपन को पेट की आग बुझाने के लिए श्रम करने को विवश होना पड़ रहा है। जिस देश में माता-पिता को भगवान के रूप में पूज्य माना जाता हो, वहाँ आज उन्हें वृद्धावस्था में अपनी ही सन्तानों के उपेक्षाभाव से गुजरना पड़ता है।
मानवाधिकारों की रक्षा के लिए मात्र 'आयोग' का गठन होना हल नहीं है। आयोगों में राजनीतिक आधार पर नियुक्ति होने से आयोग शासन की एक व्यवस्था बनकर रह गए हैं। अधिकांश 'आयोग' कमजोर व इनइफैक्टिव हैं। इसके दांत नहीं हैं। कार्यवाई स्टेट के विरुद्ध की जानी है, इसलिए अधिक मजबूत दांतों की आवश्यकता है। मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम में सजा देने का कोई प्रावधान नहीं। अधिकार को एनफोर्स करने के लिए आयोगों के पास जाँच एजेन्सी, मशीनरी, मैथोडोलोजी व स्ट्रटैजी भी नहीं है। आयोगों के पास पर्याप्त संसाधन नहीं हैं। अनेक गम्भीर मामलों में आयोग ने जांच कराई, परंतु जांच रिपोर्ट पर कार्यवाई सरकार की मर्जी पर निर्भर है। मानवाधिकारों को संवैधानिक व कानूनी मान्यता प्रदान की गई, परन्तु सामाजिक मान्यता प्राप्त नहीं हुई। सामन्ती व औपनिवेशिक प्रभाव के कारण बनी परम्पराएं, परिपाटियाँ व रीतियाँ चल रही हैं। प्रशासन मेें जातिवादी पूर्वाग्रह कायम है। मानवाधिकार कानून संविधान तक सीमित रह गए हैं। मानवाधिकारों की रक्षा के लिए मानवाधिकार आयोगों को सरकारी संस्था के स्थान पर स्वतन्त्र शक्ति सम्पन्न संस्था बनाना आवश्यक हो गया है अन्यथा अत्याचार, अनाचार, भेदभाव, पक्षपात, भ्रष्टाचार बढते रहेंगे। इसमें दो मत नहीं कि मानव अधिकारों के संरक्षण के मार्ग में अनेक अवरोध और कठिनाइयां हैं।
'मानवाधिकार' संरक्षण तभी संभव है जब हर व्यक्ति अपने अधिकारों के साथ-साथ कर्त्तव्य निर्वहन के लिऐ भी जागरूक हो। केवल कानून बनने या उपदेश देने से मानवाधिकारों का संरक्षण नहीं होगा। इसके लिए बने हुए कानून को अमल में लाना व स्वयं को कर्त्तव्यों के प्रति जागरूक करना होगा व पारस्परिक हित की बात सोचनी होगी। मानवाधिकारों की रक्षा के लिए, समाज, शासन-प्रशासन की मानसिकता में आमूल चूल परिवर्तन व उनके दृष्टिकोण में कारगर बदलाव करना आवश्यक है। आज जरूरत है मानवाधिकार सम्बन्धी आन्दोलन को तेज करने की। मानव अधिकारों का हनन रोकने के लिए बन्धनकारी आदेश जारी करने का संयुक्त राष्ट्र के पास आज भी कोई अधिकार नहीं है। परन्तु मानव अधिकारों के प्रति आदर और इनको साकार करने के लिए सदस्य राष्ट्रों को स्वयं स्वविवेक से पहल करने की अपेक्षा है।