एक महात्मा प्रतिदिन सत्संग में प्रवचन किया करते थे, और सत्संग के अन्त में कभी श्रोताओं में से कोई स्वयं आत्मप्रेरणा से अपनी किसी न किसी त्रुटि को छोड़ने का व्रत किया करता था, और कभी महात्मा जी भक्तों के नौरोध पर उनके कल्याण का कोई व्रत लिवाया करते थे। महात्मा जी के सत्संग में एक चोर भी आने का अभ्यास हो गया था।
एक दिन सत्संग की समाप्ति परस चोर को आत्मप्रेरणा हुई तो व्रत लेने के लिए खड़ा हो गया और महात्मा जी से कोई व्रत दिलाने के लिए प्रार्थना करने लगा। महात्मा ने उसके अनुरोध को सुन के कहा- 'अभी व्रत लेने की बात मत सोचो, विचार परिपक्व होने दो। शीघ्रता करने से निभाना कठिन होगा।' यह सुनकर चोर ने उत्तर दिया- 'व्रत तो अवश्य लेना है। यदि कठिनाई प्रतीत हुई तो अभी बतला दूँगा और व्रत लूंगा ऐसे जिसे निभा सकूँ।'
महात्मा जी ने भी लोहा गर्म देखकर चोट लगानी उचित समझी और कहा कि भाई, यदि तुम व्रत लेना चाहते हो तो आज से चोर न करने का व्रत ले लो।' चोर ने थोड़ी देर विचार किया और मन की स्थिति देखकर कहा- 'महात्मा जी! इस व्रत को निभाना तो कठिन है, इसके अतिरिक्त और कोई व्रत दिलवाइये।' महात्मा जी बहुत बुद्धिमान थे, तुरन्त सोचकर कहा- 'अच्छा तुम सत्य बोलने का व्रत ले लो। प्रयत्न यह भी करना कि चोरी का दुष्कर्म न हो। यदि कभी भूल हो भी जावे तो फिर पूछने सत्य कह दो।' चोर को यह बात कुछ निभाऊ सी जंची अरु उसने कहा- 'अच्छा मुझे यह स्वीकार है।' महात्मा जी ने प्रसन्नता पूर्वक उसे आशीर्वाद दिया और सत्सगं में घोषणा करते हुए यह आशा भी प्रकट की कि यह इस प्ररीक्षा में अवश्य उत्तीर्ण होगा, भविष्य में पास-पड़ोस में चोरी की घटना हो तो इससे पूछ लिए जाए। यदि इससे भूल होगी तो यह स्पष्ट बात देगा। इस व्रत-ग्रहण से सारी सभा को प्रसन्नता हुई और सभी ने चोर की प्रशंसा की। इस प्रशंसा का उस व्रती पर भी बहुत प्रभाव हुआ और मन ही मन उसने अपनी धारणा को और भी दृढ़ बन लिया। पर्याप्त समय सही-सलामत निकल गया, किन्तु एक दिन पिछले संस्कारों ने प्रभावित किया और चोरी कर लाया। प्रातः हॉट ही जिसके घर पर चोरी हुई थी उसने शोर मचाया। मुहल्ले में चर्चा चली तो लोगों ने कहा- 'भाई ! उस व्यक्ति ने तो सत्य बोलने का व्रत ले लिया है, उससे पूछकर देखो। यदि उसने चोरी की होगी तो वह बता देगा। जिसके घर चोरी हुई थी वह उसके घर पहुँचा और कहा- 'भाई ! रात हमारे घर में चोरी हो गई है।' चोर ने कहा- 'हां, हो तो गई है।' पूछा- 'तुमने ही की है क्या?- 'हां, मैंने ही की है।' माल की जानकारी मांगी तो उसने सब बता दिया। सभी लोग बहुत प्रभावित हुए अरु लोगों ने उसकी बड़ी प्रशंसा की। वह स्वयं भी प्रसन्न हुआ। महात्मा जी को सूचना मिली तो वे भी सन्तुष्ट हए अरु दृढ़ता से व्रत पालन के लिए आशीर्वाद दिया।
कुछ काल पश्चात् उस व्यक्ति को आर्थिक कठिनाई ने आ घेरा और पुराने अभ्यास के कारण उससे छुटकारा पाने के लिए फिर से चोरी कर लाया। किन्तु आज वह चाहता था कि किसी को पता न चले और उससे पूछने न आए। पर यह संभव नहीं था। चोरी का मुहल्ले में शोर हुआ और लोग तुरन्त उसके पास आ धमके।
उसने कहा- 'आज मुहल्ले में फिर चोरी हो गई।' वह दुःखी होकर सोचा- सोचकर बोला- हां. हो तो गई है।' पूछा- तुम्हारा ही का है क्या? उसने उत्तर दिया हां भाई, रात भर जगते हैं, परिश्रम करते हैं और सच के बोलने की मुसीबत उस साधु ने गले में डाल दी है। सारा परिश्रम बेकार हो जाता है। सत्य के साथ यह चोरी का काम चल नहीं सकता, छोड़ना ही पड़ेगा।' इसके बाद उस बुराई को उसने कभी नहीं अपनाया। स्पष्ट है जब मनुष्य भले मार्ग पर चलेगा तो उससे विपरीत प्रत्येक काम उसे खटकेगा। अतः वेद में कहा है- व्रतेन दीक्षामान्पोति दीक्षयाममान्पोति दक्षिणां |
जब मनुष्य कोई अच्छा संकल्प लेकर दृढ़ता पूर्वक आगे बड़ता है तो उसे अवश्य ही सफलता मिलती है। मनुष्य जब ऊंचा उठने का संकल्प कर ले तो शनैः शनैः एक के बाद दूसरा दोष छूटता जाता है और उसके स्थान पर अच्छे गुणों का विकास होता चला जाता है।