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ईश्वर, सुप्रसिद्ध वैज्ञानिकों की दृष्टी में

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ईश्वर एक ऐसा विषय है जिस पर अनेकशः मतभेद हैं। कुछ लोग उसे चौथे आसमान पर, कुछ सातवें आसमान पर, कुछ एकान्त देश में मानते हैं तो कुछ लोग ईश्वर की सत्ता स्वीकार ही नहीं करते। कुछ कण-कण में सर्वव्यापक तो कुछ स्थान विशेष पर मानते। हैं इन समस्त विचार धाराओं में जो वैज्ञानिक विचार धारा है वह सर्वोपरि है क्योंकि विज्ञान के सिद्धान्त अकाट्य हैं, तार्किक हैं और सर्वमान्य हैं। वैज्ञानिक ईश्वर को किस रूप में स्वीकार करते हैं। आइए विश्व के कुछ सुप्रसिद्ध वैज्ञानिकों के ईश्वर सम्बन्धी दृष्टिकोण को देखें।

१. वैज्ञानिक का नाम-फ्रेंक ऐलन, जीवभौतिकविद्। जीव भौतिकी प्रोफेसर मानिटोबा (कनाडा) विश्वविद्यालय (१९०४-१९४४): इस वैज्ञानिक के लेख का कुछ अंश- ''यदि हमारी पृथ्वी का आकार सूरज जितना बड़ा हो जाए, किन्तु उसकी घनता ज्यों की त्यों कायम रहे तो उसकी गुरुता १५० गुनी बढ़ जाएगी, वायुमंडल की उँचाई घटकर केवल चार मील रह जाएगी, पानी का भाप बनकर उड़ना असंभव हो जाएगा और वायु का दबाव प्रति इंच एक टन से अधिक बढ़ जाएगा। एक पौण्ड के प्राणी का वजन तब होगा १५० पौण्ड और मानवों का आकार घटकर इतना छोटा हो जाएगा जैसे गिलहरी। ऐसे में बौद्धिक जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। यदि पृथ्वी का आकार चन्द्रमा जितना कर दिया जाए तो गुरुत्वकर्षण की शक्ति न वायुमंडल को सँभाल सकेगी, न ही पानी और तापमान भी इतना सीमातीत होगा कि जीवन धारण करना कठिन हो जाएगा। यदि पृथ्वी का व्यास दुगना कर दिया जाए तो गुरुत्वाकर्षण शक्ति दुगनी हो जाएगी। वायुमंडल की ऊँचाई खतरनाक रूप से घट जाएगी। सर्दीवाले क्षेत्र खूब बढ़ जाएँगी। प्राणियों के बसने योग्य क्षेत्र में भारी कमी हो जाएगी। यदि सूर्य से पृथ्वी की दुरी दुगुनी कर दी जाए तो अयन में घूमने का उसका वेग केवल आधा रह जाएगा। सर्दी दुगुनी होगी, सब प्राणी ठंड के मारे जम जाएँगे। यदि सूर्य से वर्तमान दुरी आधी कर दी जाए तो गर्मी चौगुनी हो जाएगी, अयन में घूमने का वेग दुगुना हो जाएगा। धरती तप्त हो जाएगी, सब प्राणी जल-भुन जाएँगी।''

वे आगे लिखते हैं- ''जितने भी जीवित कोष हैं उन सबमें प्रोटीन अवश्य होते हैं। वे पाँच तत्वों से बने होते हैं: कार्बन, हइड्रोजन, नाइट्रोजन, आक्सीजन और गंधक। प्रोटीन एमिनो अम्लों की लम्बी श्रृंखला से बनते हैं। जिस ढंग से वे अम्ल एक साथ रखे जाते हैं उसका भी भारी महत्व है। यदि गलत ढँग से उन्हें एक साथ रख दिया जाए तो जीवन धारणा करने में समर्थ होने के बजाय ये जीवननाशक विष बन जाते हैं। रासायनिक द्रव्यों के समान प्रोटीन भी जीवन शून्य हैं। रहस्यपूर्ण जीवनशक्ति जब उनमें प्रवेश करती है तभी वे जीवनधारणा करते हैं। कोई अनन्त चेतन शक्ति ही यह समझ सकती है कि इस प्रकार का अणु जीवन का आधार बन सकता है। उसी शक्ति ने इसका निर्माण किया है और उसी ने इसे जीवन धारण करने योग्य बनाया है। उस शक्ति का नाम परमात्मा है।''

२. वैज्ञानिक का नाम- जेराल्ड टी. डेन हारतोग। गवेषण कृषिविज्ञानविद्। अमेरिका में कृषि विभाग में कपास तथा अन्य रेशों के संबंध में गवेषणा संचालक। विषय- पौधों की दुनिया में ईश्वर की छाप। इस वैज्ञानिक के लेख कुछ अंश- ''परमात्मा वनस्पति जगत् के आश्चर्यों और रहस्यों में कभी विफल न होने वाले नियमों के माध्यम से अपने आप को लगातार प्रकट करता रहता हैं। परमात्मा अपने आपको इन तरीकों में प्रकट करता है:

क्रमबद्धता- पौधों के बढ़ने और उनके प्रजनन की प्रक्रियाएँ जो कोषों के बड़े होने, विभक्त होने और खास कार्यों द्वारा होती हैं, एक योजनाबद्ध, नियमित और आश्चर्यजनक रूप से अस्खलित ढँग से होती हैं।

जटिलता- एक सीधे-सादे पौधे के भी प्रजनन और विकास में जो जटिलता क्रियाएँ होती हैं उसकी तुलना कोई मानव निर्मित मशीन नहीं कर सकती।

सुन्दरता- पौधें के तनों, शाखाओं, पत्तों और फूलों में जो अदभुत और दिव्य कलात्मक सुन्दरता होती है वह बड़े से बड़े कलाकार की प्रतिभा को भी मात दे देती है।

पैतृक परम्परा- बिना किसी भूलचूक के पौधे अपनी ही किस्म का प्रजनन करते हैं और वंश चलाते हैं। उनकी यह पितृ-परम्परा किसी अनियमित, अस्तव्यस्त और अनियंत्रित ढँग से नहीं चलती। पीढ़ी दर पीढ़ी सभी तरह के परिवेश और परिस्थितियों में गेहूँ से गेहूँ, जौ से जौ और जैतून से जैतून ही पैदा होता है। ऐसा कभी नहीं होता कि गेहूँ से जौ पैदा होने लगे जौ से जैतून पैदा होने लगे। मेरे लिए यह सब सिरजनहार परमात्मा की जिसका ज्ञान अनन्त है और शक्ति भी अनन्त है, सत्ता के द्योतक हैं।''

३. वैज्ञानिक का नाम- डेल स्वार्तजेन दुबर। मृदा भौतिकीविद्। कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में पहले मिट्टी विज्ञान के सहायक प्राध्यापक, फिर परड्यू विश्वविद्यालय में मिट्टियों के सह प्राध्यापक। मिट्टी के कमाल- इस वैज्ञानिक के लेख का कुछ अंश- ''अनेक लोग तड़ित या बिजली को केवल विनाश का साधन ही समझते हैं, किन्तु यह ज्ञात है कि तड़ित के आवेशों से नाइट्रोजन के आक्साइड बनते हैं और वे वर्षा या तुषारपात के द्वारा मिट्टी तक पहुँच जाते हैं। तड़ित गर्जन का एक खास पहलू यह भी है कि आर्द्र-समशीतोष्ण प्रदेशों में गिरने वाले नाइट्रोजन की अपेक्षा उष्ण प्रदेशों में अधिक नाइट्रोजन गिरती है जो अर्धशुल्क प्रदेशों के लिए निर्धारित नाइट्रोजन से भी कहीं ज्यादा होती है। इस प्रकार वह महान व्यवस्थापक भौगोलिक प्रदेशों की उनकी आवश्यकताओं के अनुसार विविध रूप से सहायता करता है। महान् व्यवस्थापक की सत्ता से इन्कार करना ठीक उतना ही तर्कविरुद्ध है जैसे किसी पीली पकी लहराती फसल से शोभायमान हरे-भरे खेत की तो तारीफ करना, किन्तु साथ ही सड़क के किनारे अपनी छोटी सी झोंपड़ी में रहने वाले गरीब किसान की मौजूदगी से इन्कार करना।''

४. वैज्ञानिक का नाम- जान विलियम क्लोट्ज। १९४५ में कंकौर्डिया टीचर्स कालेज में जीव विज्ञान, शरीर-रचना शास्त्र और प्रकृति-विद्या के प्राध्यापक। प्रकृति की जटिलता और ईश्वर- इस वैज्ञानिक के लेख का कुछ अंश- ''काश पुष्प (प्रिजन फ्लावर) बहुत असामान्य होते हैं। इस पौधे के प्रकार के पुष्प गुच्छ होते हैं-स्त्रीगुच्छ और पूँगुच्छ। ये दोनों प्रकार के गुच्छ वेदी के जो अधबीज से नीचे की ओर संकुचित होती है, अन्दर ही पैदा होते हैं। इसका पारगीकरण आमतौर पर एक छोटी मक्खी द्वारा होता है जो अन्दर आती है, किसी तरह संकुचित भाग को पार कर जाती है, किन्तु ऐसा करने के बाद वह अपने आपको जाल में फँसा हुआ पाती है। उसके मार्ग में वेदी का संकुचित भाग ही नहीं किन्तु दोनों ओर चिपचिपे पार्श्व भी होते हैं जो उसे कहीं भी टिकने नहीं देते। तब वह जोर से बेतहाशा भिनभिनाती है, ऐसा करने में पराग उसके चारो ओर चिपट जाता है। उसके कुछ देर बाद ही दोनों पार्श्व फिर खुरदरे हो जाते हैं और वह पराग से भरी हुई बाहर निकलने में समर्थ हो जाती है। यदि किसी दूसरे पुंगुच्छ में जावे तो फिर यही प्रक्रिया होगी। किन्तु यदि वह किसी स्त्रीगुच्छ में जाए तो सम्भव है कि वह बचकर न आ सके, क्योंकि उसके जोर से भिनभिनाने से पुष्प में पराग छिड़का जा चुका होता है और इस बार मक्खी के बचकर निकल जाने में पौधे की कोई रूचि नहीं है। पौधे का लाभ इसी में है कि वह उसे पुंवेदी से ही बचकर निकलने दे, ताकि वह अपने साथ पराग ले जा सके। स्त्रीपुष्प से मक्खी के बचकर निकलने की पौधे को कोई परवाह नहीं है। ये सब दृष्टांत परमात्मा की सत्ता की गवाही देते हैं। यह विश्वास करना कठिन है कि यह सब अन्ध अकस्मात के कारण हुआ हो। इन घटनाओं की वद्यमानता किसी निर्देशक हाथ की ओर और उसकी सृजनशक्ति की ओर संकेत करती है। ''

५. वैज्ञानिक का नाम- जार्ज अर्ल डेविस। भौतिकविद्। १९४८ से बुकलिन के नौसैनिक जहाज घाट की मैटीरियल लेबोरटरी में न्यूक्लिओनिक्स विभाग के अध्यक्ष। वैज्ञानिक खोजों का संकेत ईश्वर की ओर-इस वैज्ञानिक के लेख का कुछ अंश- ''कोई सृजन जितने ऊँचे परिणामवादी (इवोल्यूशनरी) विकास की ओर ले जाता है उस सृजन के पीछे सर्वोच्च बुद्धि की उतनी ही प्रबल साक्षी होती है। ''निराकार और शून्यावस्थापन्न'' प्रारंभिक कणों के विश्व से ये करोड़ों तारे और अरबों नक्षत्र बने हैं जिनका आकार निश्चित है, निश्चित रूप से जिनका वर्णन किया जा सकता है,जो अचल नियमों में बँधे हुए अपनी अनिवार्य जीवनयात्रा पूरी करते हैं और जो मानव के लिए अपरिमेय हैं। उन अत्यन्त सूक्ष्म मूल कणों में भी वे सब नियम निहित थे जो केवल ग्रह-नक्षत्रों को ही नहीं, किन्तु हजारों अन्य जीवित वस्तुओं को भी, यहाँ तक कि ऐसे प्राणियों को भी जो सोच सकते हैं, इच्छा कर सकते हैं, दुर्बोध तथा सुंदर चीजें पैदा कर सकते हैं। विश्व के विकास के पीछे किसी परात्पर बुद्धि की ये जो अभिव्यक्तियाँ हैं, वे परमात्मा की सत्ता सिद्ध करने के लिए मेरी दृष्टि से काफी हैं।'' इस लेख में कुछ ही उदाहरण दिए गए हैं।