हम सभी के जीवन में कभी ना कभी ऐसा क्षण अवश्य ही आया होगा जब हम स्वयं से या अपने मित्रों से कहते है कि आज मेरा मन बड़ा प्रसन्न है या उदास है। जब हम स्वयं छोटे थे तो घर के बड़े-बुजुर्ग कहते थे कि बेटा मन लगाकर पढ़ो। आखिर यह मन है क्या और इसका किससे सम्बन्ध है तथा यह कहां रहता है ? क्या मन भी दिल की तरह है ? जिसे हम छू नहीं सकते हैं या देख नहीं सकते हैं ? क्या मन भी बीमार पड़ जाता है? क्या मन भी शरीर का एक अंग है वगैरा वगैरा! दरअसल मन इससे इतर हैं। मन अमूर्त हैं, इसलिए उसे छूने या पकड़ने का सवाल ही नहीं उठता और जब वह कोई अंग नहीं तो वह बीमार कैसे हो सकता है। दरअसल मन एक तरह की मनस्थिति है या मानसिक अवस्था है और जिसे हम भावनाएँ, इच्छाएँ और उम्मीदें कह सकते हैं, इन सबका संबंध मन से हैं। मन का सम्बंध शरीर से भी है और आत्मा से भी। जब हम बीमार होते हैं या हमें कोई शारीरिक कष्ट होता है तो हमारा मन व्यथित होता है, उदास हो जाता है, बेचैन हो जाता है। यानी शरीर की निष्क्रियता का असर हमरे मन पर जरूर पड़ता है।
मन को चंचल कहा गया है, क्योंकि वह क्षण-परिक्षण हर दिशा में भागता फिरता है। केवल सूर्य की किरणों की गति को छोड़ दें तो मन से तेज गति किसी की नहीं। दार्शनिक दृष्टि से मन को रथ में जूते हुए ऐसे घोड़े की संज्ञा दी जा सकती है जो रथ को तेज गति से चारों दिशाओं में दौड़ाता हैं। इतनी तेज गति से दौड़ने वाले मन को नियंत्रण में किया जा सकता है और संभव है योग के द्वारा। योग का मतलब आँखों को बंद करना नहीं है। हमारे कर्म ऐसे हो, जो योग बन जाए। सीधे सादे शब्दों में कहे तो आत्मसंयम। जो लोग सांसारिक विषयों से अपना ध्यान हटाना चाहते हैं या भोग-विलास के जीवन से छुटकारा पाना चाहते हैं तो ऐसे लोगों का मन पर नियंत्रण होना जरुरी है । यहां इस बात का उल्लेख करना इसलिए जरुरी है कि मन अच्छी चीजों पर कम, बुरी चीजों पर अधिक जाता है और यह मन का स्वाभाविक गुण है।
इस बात को समझने के लिए गाँधीजी के ३ बन्दरों का उदहारण देना काफी होगा, जिसमे एक बंदर ने दोनों हाथों से आँखों को ढक रखा तो दूसरों ने कानों को और तीसरे ने मुँह पर रखा है। यानी बुरा मत देखों, बुरा मत सुनो और बुरा मत कहो। इसका आशय यही है की जब हम बुरा देखेंगे, बुरा सुनोगे और बुरा बोलेंगे तो इसका असर हमारे मन पर पड़ता है। अतः मन को स्वच्छ रखने के लिए गाँधीजी का यह मंत्र बड़ा महत्वपूर्ण हैं। कई मर्तबा हम किसी ऐसे व्यक्ति को देखकर भी प्रसन्न होते हैं जिसका हमारा कोई सीधा सम्बंध या सरोकार नहीं हैं। जैसे ८८ वर्ष की उम्र में स्वरसामज्ञी लता मंगेश्कर स्वस्थ है या किसी भारतीय ने विदेश में जाकर देश का गौरव बढ़ाया तो इसे देखकर हमारा मन प्रसन्नता से भर जाता है। अगर हमारा मन प्रसन्न है या वह उत्साह से भरा है, तो उसके बाद ही जोश, जज्बे अरु जूनून की बात की जा सकती है। कभी-कभी हम मन से कमजोर भी हो जाते हैं तो कभी मजबूत। इसलिए कहा भी जाता है कि मन के हारे हार और मन के जीते जीत। याने जिसका उत्साह ठंडा पड़ गया या जिसमे आगे बढ़ने का जूनून नहीं है, उसकी हार तय है तथा जिसमे उत्साह है, जोश हैं और जूनून हिलोरे मार रहा हो उसकी जीत तय है। याने व्यक्ति की जीत और हार में मन की बड़ी भूमिका है। अतः मन को अपने वश में रखों न कि स्वयं मन के वश में हो जाएं।