सभी धर्म सेवा को मानव का प्रथम कर्तव्य घोषित करते है। एकमात्र सामाजिक प्राणी और शेष सभी जीवों से श्रेष्ठ होने के कारण परस्पर एक-दूसरे के सुख-दुःख में भागीदार बनता है। इस परस्पर सहयोग की परम्परा से इतर अनजान, अपरिचित लोगों की निःस्वार्थ भाव से सेवा की परम्परा भी विद्धमान है। आमजन के लिए धार्मिक स्थानों पर अथवा सड़क के किनारे कुएं, धर्मशालाएं बनाने से विद्यालय के लिए भूमि अथवा धन देने की परम्परा आज भी देश के अनेक क्षेत्रों में हैं। महामना मदन मोहन मालवीय जी ने साम्राज्यवादी शक्तियों के समानान्तर भारतीय शिक्षा के केन्द्र रूप में बनारस हिन्दू विश्विद्यालय की स्थापना कर जो उदाहरण प्रस्तुत किया था नानाजी देशमुख, बाबा आमटे जैसे व्यक्तित्वों तथा पिंगलवाड़ा, सेवाभारती, वनवासी कल्याणी परिषद् जैसे अनेकोनेक संगठन सेवा क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य करते रहे हैं। भारतीय संस्कृति 'नरसेवा-नारायण सेवा' का उद्घोष करती है। यहां सहृदयता, दयालुता और परोपकार को धार्मिक कर्मकांड से बढ़कर सम्मान और स्थान दिया जाता है। इसलिए स्थान-स्थान पर अन्नदान और भंडारे देखे जा सकते हैं। किसी भी संकट की स्थिति में गरीब से गरीब और साधनहीन व्यक्ति भी सेवा में अपना योगदान करना चाहता है। क्योंकि ऐसा करने से एक और आत्मसंतुष्टि प्राप्त होती हैं क्योंकि वह इसे समाज द्वारा उसे विभिन्न रूपों में प्राप्त उपकारों का ऋण चुकाना मानता है। तो दूसरी ओर भारतीय संस्कृति सेवा को पूजा से बढ़कर मनाता है। लेकिन इधर चुनावी मौसम में हर तरफ समाज सेवक और सामाजिक कार्यकर्ता की बाढ़ दिख रही है।
जहां देखों वही रंग-बिरंगे पोस्टर, बैनर, होर्डिंग टंगे हैं। अधिकांश वे चेहरे हैं जिनका समाज सेवा से दूर-दूर तक कभी कोई संबंध देखा अथवा सुना नहीं गया। कुछ चेहरे ऐसे भी हैं जो समाज सेवा से इतर कार्यों के लिए 'पहचाने' जाने योग्य है। खास बात यह भी है कि 'गरीबों के मसीहा' आम जनता के रहनुमा तो अपने नाम के साथ 'निस्वार्थ समाजसेवी' टांगे ये 'महापुरष' वास्तव में अपने-अपने दल में टिकट के 'एकमात्र' योग्य दावेदार भी हैं। पिछले कुछ महीनों से हर त्यौहार पर बधाई, शुभकामनाएं देते पोस्टरों पर लाखों खर्च करने वाले इन भावी विधायकों, पार्षदों ने जरूरतमंदों की सेवा पर वास्तव में 'हजारों' भी खर्च किये हैं या चुनावी रात में ही करेंगे इसके बारे में कोई अधिकृत आंकड़ा उपलब्ध नहीं हैं। चुनाव की पूर्व पीठिका पर कुछ लोग अपने वाहन पर बड़े बड़े शब्दों में 'फ्री-सेवा' का बोर्ड टांगे सफाई आदि कार्यों में लगे हैं तो कुछ समाजसेवा के नाम पर जागरण आदि में ज्योत-प्रचण्ड करते नजर आ रहे हैं तो कुछ नाच-गाने के कार्यक्रम आयोजित कर भीड़ जुटाने के प्रयासों में लगे हैं।
जनसेवा, समाजसेवा, राष्ट्रसेवा जैसे शब्दों का प्रचलन आजकल बढ़ा हैं। वैसे समाजसेवा और राजनीति दो ऐसे शब्द हैं जो अक्सर जुड़े दिखाई देते है। समाजसेवा के लिए राजनीति अथवा पहले किसी पार्टी की टिकट और फिर किसी भी तरह से जीतना क्यों जरुरी हैं, का सुस्पष्ट उत्तर देने से बचा जाता है। कुछ उत्साही 'समाज सेवी' उलटा यह प्रश्न हैं कि 'मेरे जैसे एकमात्र योग्य और ईमानदारी' व्यक्ति को आप राजनीति में हतोत्साहित क्यों कर रहे हैं? ऐसा करके क्या आप राजनीति में कचरा' स्थापित करने के दोषी नहीं हैं? ऐसे सभी 'एकमात्र' योग्य समाज सेवियों को नमन!
भारतीय मान्यता है कि 'सेवा' और 'दान' एक हाथ से करो तो दूसरे हाथ तक को उसकी खबर नहीं होनी चाहिए। लेकिन आज सेवा आत्म प्रचार और विज्ञापन का रूप ले रही है। बदले दौर में राजनीति का आकर्षण बहुत तेजी से बढ़ा हैं इसलिए समाजसेवा का दिखावा और फैशन बनना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। समाजसेवा का एक रूप एनजीओं भी हैं जो विदेशों से राशि बटोरने से सरकारी अनुदान प्राप्त करने के लिए काफी सक्रिय दिखाई देते हैं। लेने और देने वाले की बीच दलाली, कमीशन तो कहीं तो कमीशन तो कहीं ''काले'' को 'सफेद' करने की प्रक्रिया के रूप में कहीं थोड़ी तो कहीं पूरी की पूरी रकम डकारने के मामले भी हैं। ऐसे एनजीओं की संख्या लाखों में बताई जाती हैं जो मोटा माल बटोरने के बाद अपने शानदार आफिस में कागजी कार्यवाही पूरी कर 'समाजसेवा' को अन्जाम दे रहे हैं। मिल-बांट 'निज' सेवा करने वाले इन 'समाजसेवियों' में कुछ पहले आन्दोलन तो राजनीति के माध्यम से सत्ता की सीढ़ियां चढ़ने में सफल हो रहे हैं।
लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं कि सच्चे समाजसेवी नहीं रहे। आज भी राजनीति से दूर-दूर तक कोई संबंध न रखने वाले ऐसे अनेकों लोग हैं जो स्वयं कष्ट सहकर भी समाजसेवा को अपना ज़नून बनाये हुए हैं कुछ सामाजिक धार्मिक संस्थायें सेवा भी उल्लेखनीय कार्य कर रही हैं। राजधानी दिल्ली में अनेक धार्मिक संस्थाओं द्वारा धर्मार्थ स्वास्थ्य जांच केन्द्र संचालित किये जा रहे हैं जहां नाममात्र के शुल्क पर उपचार और आपरेशन तक किये जाते हैं। गुजरात, राजस्थान, पंजाब जैसे कुछ राज्यों में बूढ़ी और विकलांग गायों के लिए कार्य करने वाली अनेक संस्थायें हैं। तो अनेक स्थानों पर सुचारु रूप से संचालित वृद्धाश्रम हैं तो कुछ स्थानों पर अनाथश्रम भी हैं। विदेशों से प्राप्त अनुदान के दम कुछ संस्थायें सेवा नाम पर धर्मान्तरण के लिए सक्रिय हैं लेकिन सच्चे समाजसेवी बिना किसी भेदभाव के सेवा को ईश्वरीय कार्य मनाकर पूरे प्राण-प्रण से जुटे हैं। इस संबंध में पूर्वोत्तर में सक्रिय मिशनरीज के समानान्तर कार्यरत कठिन परिस्थतियों में कार्यरत 'रामकृष्ण मिशन' का नाम उल्लेखनीय हैं। वास्तव में आज अपने समाज के उत्थान, वैदिक साहित्य-संस्कृति पर शोध, समाज में पिछड़े लोगों का शैक्षणिक आर्थिक आधार मजबूत करने के लिए तथा युवाओं को प्रोत्साहित करने के लिए निःस्वार्थ सेवा कार्यों की बहुत अधिक आवश्यकता है।
सच्ची समाजसेवा के इसलिए भी आवश्यक हैं क्योंकि यदि हमारे समाज में कोई रोग, कष्ट, अभाव, असमानता रहेगी तो उसके दुष्प्रभाव से हम चाह कर भी स्वयं को बचा नहीं सकते। उससे सम्पूर्ण वातावरण का दूषित होना तय है जो हमारे अपने समाज की खुशाली में अवरोध उत्पन्न करता है। वैसे भी यह जाने-अनजाने, प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से हम समाज से अनेक प्रकार की सुख सेवाएं प्राप्त करते हैं जो सामाजिक ऋण के रूप में हमारे देयता हैं। हमने अनेक बार उन वृक्षों की छाया का सुख लिया होगा जिन्हें हमने या हमारे किसी परिजन ने नहीं लगाया। अनेक बार ऐसे प्याऊं का पानी पिया होगा जहां हमने या हमारे किसी परिजन ने कभी पानी नहीं भरा। यात्रा से जीवन यात्रा तक के लम्बे दौर में अनायास आने वाली कठिनाई में अनेक बार हमें सहारा देने वाले कुछ ऐसे चेहरे भी होते हैं जिनसे हमारा कोई संबंध अथवा परिचय नहीं होता। ऐसे असंख्य अनुभव और उदाहरण हमारे आपके जीवन में हैं जो प्रमाणित करते हैं कि भारतीय मनीषा ने सेवा को इतना महत्व दिया है। गुरु गोविंद सिहं ने अपने शिष्यों तक को पानी पिलाने और उनके जख्मों पर मरहम लगाने की हिदायत दी। आज भी सिक्ख समाज 'सेवा' को सर्वोपरि मानता है। दधिची ने अपनी अस्थियां तक समाज के हित में सौंप दी। आवश्यकता है कि सम्पूर्ण समाज भी सेवा की परम्परा का विस्तार करें। पश्चिमी देशों में बड़े उद्योगपतियों द्वारा अपनी कुल सम्पत्ति के एक भाग को सेवा कार्यों के लिए देने के समाचार अक्सर आते ही रहते हैं तो अय्याशी और झूठे प्रचार पर बर्बाद करने वाले हमारे साधन संपन्न भाई ऐसा करे वाले हमारे साधन संपन्न भाई ऐसा क्यों नहीं कर सकते ? आज हर विवेकशील व्यक्ति अपनी आय का दसांश निःस्वार्थ समाजसेवा के देने की आपेक्षा की जाती हैं।