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अबोध बच्चे और ये भारी-भारी बस्ते

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प्रतिवर्ष जब नया शैक्षणिक सत्र प्रारंभ हो जाता है तो अभिभावकगण अपने नन्हें-मुन्नें बच्चों की बड़ी उमंग से सजा-धजाकर पाठशाला भेजने की तैयारियां शुरू कर देते हैं।

बच्चों के लिये पाठशालायें एक नई और अनजानी जगह होती हैं। कुछ ऐसे भी होते है, जो या तो छिप जाते हैं अथवा कहीं भागने का प्रयास करते हैं। शिक्षा उनके लिए एक अनबुझी पहले होती है और शिक्षक उनके लिये एक डरावना प्राणी। कई बच्चे स्कूल जाने के नाम से भयभीत होकर रोने-चिल्लाने भी लगते हैं। सच तो यह है कि अभी हमारे देश की पाठशालायें बच्चों को आकर्षित करने और पूर्णरूपेण सहज, शान्त और संतुष्ट करने की केंद्र स्थली नहीं बन पाई हैं। आखिर बच्चे घर-परिवार का दामन छोड़ना क्यों नहीं चाहते? एक और नानी, दादी के वात्सल्यमयी, नरम और मीठी गोद है, असंख्य राजा-महाराजाओं और परियों की मनोरंजक कहानियों को अनन्त कोष है। लाड-दुलार भरी शिक्षा, दीक्षा और घरेलू संस्कार हैं और दूसरी ओर है कसैले स्वादों से भरे व्यावहारिक जीवन-दर्शन से परिचित कराने वाले शिक्षालय का अनन्त क्रम, एक अपरिचित और अकल्पित ठिकाना. जहां सभी पराये हैं, सभी नये और अनजान हैं। दूरस्थ और भयावह हैं। बच्चे का छोटा-सा मन उतनी बड़ी बात को संभाल नहीं पाता। उसे ऐसा लगता है, जैसे उन्होंने दही की जगह कपास निगल लिया हो।

बच्चे पाठशाला जाते हैं और नित्य जाते रहते हैं, मगर पाठशालायें उन्हें पारिवारिक रिश्तेदार जैसी नहीं लगतीं। वे दादी, नानी जैसी तो कभी बन ही नहीं सकतीं। जो दुरी छात्र और पाठशाला के बीच बनी रहती है, वह यूं ही नहीं मिट पाती है। इसके लिये बहुत समय लगता है। बचपन अपनी आयु पर्यन्त संशकित रह जाता है। दुरी मिटती तब है, जब वह किशोरावस्था से युवावस्था में प्रवेश करता है। युवावस्था में विद्यार्जन का भरपूर दोहन तो अवश्य कर लेता है, मगर उसके अंतर्मन में दादी, नानी की जुबान से कहानियां और किस्से सुनने की साध किसी कोने में मचलती, फड़कती रह जाती है। धीरे-धीरे प्रमाण-पत्र और डिप्लोमा, डिग्रियां लेकर वह कर्म-क्षेत्र में उतर जाता है। जीवन ढल जाता है, मगर उसके मन से वह चाह कभी नहीं मिटती। आजन्म वह प्यास का प्यासा रह जाता है।

क्या पाठशालाओं में बच्चों के लिए पाठ्यक्रम कहानियों और किस्सों से भरे होने चाहिये? क्या सभी शिक्षक-शिक्षिकाएं दादी, नानी की तरह मीठी जुबान वाली वात्सल्यमयी होनी चाहिये? क्या सारी पाठशालाओं को एक प्रेममयी परिवार की भांति निर्मित होना चाहिये? क्या ऐसा इस देश में संभव है, कभी?

आज की पाठशालायें तो मूलतः मेहनत-मशक्कत की केंद्र समझी जाती हैं। विद्यार्थी की आधुनिक परिभाषा भी यही है जो विद्या का अर्थी हो, जिसे विद्या की सतत साधना करना अभीष्ट हो। स्वतंत्र और गतिशील भारत में जहां आज शिक्षा का स्वरूप अति वैज्ञानिक और क्लिष्ट हो गया है, पाठ्यक्रम और पाठ्यग्रन्थों में आशातीत बिस्तर देखा जा रहा है।

शाब्दिक चयन इस तरह किये हैं कि प्रत्येक पंक्ति में अर्थ-बोध बाल-मस्तिष्क के लिये दुर्गम और भारवाही बन जाता है पता नहीं ऐसे गरिष्ठ पाठ्यक्रम परोसने में प्रशासन की हार्दिक मंशा क्या है? पुस्तकें देखने के लिये, पन्ने पलटने के लिये और यूं ही बस्ते में सजाकर रोज-रोज ढोने के लिये नहीं होतीं। पुस्तकें ज्ञान का अक्षय भण्डार हैं। एक-एक पुस्तक हीरे से भी कहीं ज्यादा अनमोल, मगर हीरा पाकर भी आज का नैनिहाल इतना दरिद्र क्यों है? द्वारिकाधीश कृष्ण के सम्मान सम्पन्न मित्र पाकर भी वह अभागा सुदामा जैसा सर्वहारा और हताश जीवन इकाई क्यों है? इस सुलभ हीरे से झरने वालीं अनन्त प्रकाश राशि की किरणें न तो इन नन्हें-मुन्नें छात्रों के अगम-पथ को प्रशस्त करने में सक्षम हो पा रही हैं और न ही आज का गुरुवर्ग ही उन किरणों के प्रकाश के महत्व को उनकी क्षुद्र रन्ध्र में प्रवेश करवाने में सार्थक सिद्ध हो रहे हैं।

आज के दौर में पाठशाला जाना गुरुवर्ग का कर्म और नन्हे छात्र वर्ग का धर्म मात्र रह गया है। ठीक उस गधे की तरह जो घर से घाट तक पीठ पर गठरी लाद कर रोज आता-जाता रहता है। हमारे ये नन्हे-नन्हे विद्यार्थी अपनी पीठ पर पुस्तकों और अभ्यास पुस्तिकाओं से भरा, भारी बोझिल बस्ता लादे हुए पाठशालायें जाते और घर लौटते हैं। एक विज्ञापन में एक युवा माता, अपने बच्चे की पीठ पर बस्ता लादे पाठशाला को देखकर अफसोस से भरकर कह उठती है- उफ, इतने मासूम बच्चे और उनकी पीठ पर लदे ये चार-चार किलो के बस्ते। शायद ही ये शब्द इसी अफसोस भरे लहजे में प्रत्येक अभिभावक अपने नन्हे-मुन्ने बच्चों को पाठशाला जाते समय जरूर दोहराता होगा।

उसे परम दुःख और खीझ भी होती होगी, मगर करें क्या? स्वयं बच्चे लाचार हैं। प्रत्येक शिक्षक रोज ही अपने विषय की पुस्तकें और कापियां देखना चाहता है। भयभीत बच्चे गलती करना नहीं चाहते। उन्हें दण्ड का डर रहता है। मन से दुखी और तन से लाचार बोझिल, इसके बाद भी पाठशालाओं से ये नन्हें-मुन्नें खुशी-खुशी घर लौटते हैं और ऐसा प्रकट करते हैं, जैसे विद्याध्ययन नहीं, जेल की सजा काटकर लौटे हों।

छात्रों का बोझ कम करने के लिये सन् १९९२ में यशपाल समिति ने महत्वपूर्ण फैसले किये थे। उसकी रिपोर्ट १९९३ में केन्द्रीय सरकार को प्राप्त हुई। उसने उसे स्वीकार कर लिया परन्तु अभी तक वह उसे देश में लागू नहीं कर पाई है। लगता है, केन्द्र सरकार किंकर्त्तव्य विमूढ़ है। वह आम सहमति की राह देखकर रही है। पता नहीं, देश के भाग्य को क्या मंजूर है। तब तक ये बच्चे चार-चार किलो क्या रोजाना ढोते रहेंगे? क्या इन बेचारे बच्चों को त्राण दिलाने के लिये सचमुच आम सहमति की जरूरत है। क्या वर्षों चलने वाली गोष्ठियों, सम्मेलनों और वाद-विवादों से कोई अनुकूल हल निकलने वाला है? क्या यशपाल समिति की रिपोर्ट जो इतनी शोधपरक और यथार्थवादी है, किसी संशोधन की मोहताज है?

शिक्षा विभाग के उच्च सिंहासनों पर बैठे भाग्य-विधाताओं को क्या मालूम नहीं है कि महंगी और मोटी-मोटी भारी-भरकम पुस्तकों में निहित ज्ञान भंडार महज उठाकर लाने-ले-जाने से ही अपना करिश्मा नहीं दिखा सकता। शिक्षक वर्गों के उसे टटोलने, उस उसे ऊपर-ऊपर पढ़ा-पढ़ा देने और परीक्षाएं लेकर खानापूर्ति कर देने से ही कर्त्तव्यों की इतिश्री नहीं हो जाती। एक तरह से पाठशालाओं में प्रतिपादित पाठ्य सामग्रियों का बोधगम्य ज्ञानार्जन संभव ही नहीं है।

शालेय वातावरण में नन्हे छात्रों के ह्रदय में सम्भ्रम की जो स्थिति प्रवेश के दिनों में बनी रहती है, वह आखिरी तक नहीं हट पाती। फलतः प्राथमिक कक्षाओं में शैक्षणिक उपादेयता, जितनी मात्रा में आवश्यक और अनिवार्य मानी गई है, आत्मसात होती ही नहीं। आज पाठशालायें केवल साक्षर बनाने का कारखाना रह गई है। शिक्षित और सुसंस्कारित बना सकने की क्षमता उनमें नहीं है। सर्वांगीण विकास करने का घोषित लक्ष्य तो केवल अलंकरण मात्र है।

बुद्धि के सतत् और नियमित विकास की आशा करना दिखावा है। आज न तो शिक्षा पाकर कोई सच्चरित्र बन पाता है और न ही देशभक्त। वह तो उसे बस इतना ही दे पाती है, जिससे बालक बड़ा होकर अपने जीवन में भौतिक सुख-सुविधाओं का अधिकाधिक संचय करने में समर्थ कोई शासकीय पदाधिकारी अथवा शक्तिशाली व्यावसायिक पुरुष बन सके। दुर्भाग्य से इसके लिये वह अनैतिक राहों को भी लक्ष्य प्राप्ति के लिये अपना साधन मान लेता है और उसकी सहायतार्थ आज की भ्रष्ट राजनीति भी अपनी सहमति प्रदान करती है।

चरित्रस्खलन आज के युग की विवशता है। गांधी के देश में शिक्षा के अभ्युदयकाल में नन्ही पीढ़ियां अपने मन की पीड़ाओं को और अपने अविकसित मस्तिष्क के बोझों को किसके सामने व्यक्त करें? यहां है ही कौन, जो उनके दिलों के अंधेरों को दूर करने के लिये नये सबेरे का आह्वान कर सके। क्या इस सत्य को हमारे देश के भाग्य विधाता कभी महसूस कर सकेंगे?