एक राजा के चार लड़के थे। एक दिन राजा ने उन्हें बुलाकर कहा- “जाओ किसी धर्मात्मा को खोजकर लाओ। जो सबसे बड़े धर्मात्मा को लाएगा, उसी को गद्दी पर बैठाया जाएगा।’’ चारों लड़के चले गए। कुछ दिन बाद बड़ा लड़का लौटा। वह अपने साथ एक सेठ को लाया। उसने राजा से कहा- “ये सेठ जी खूब दान-पुण्य करते हैं। इन्होंने मन्दिर बनवाए हैं। प्याऊ लगवाई हैं। साधु-सन्तों को भोजन कराते हैं।’’ राजा ने उनका सत्कार किया और वे चले गए। इसके बाद दूसरा लड़का एक दुबले-पतले ब्राह्मण को लेकर आया और बोला- “इन्होंने चारों धामों और सातों पुरियों की पैदल यात्रा की है।’‘ राजा ने उन्हें दक्षिणा देकर विदा किया।
फिर तीसरा लड़का एक साधु को लेकर आया और उसने कहा- “ये बहुत बड़े तपस्वी हैं। रात-दिन में एक ही बार भोजन करते हैं।’’ राजा ने उनका भी स्वागत किया और दक्षिणा देकर बिदा कर दिया। अब बारी थी चौथे लड़के की। वह अपने साथ मैले-कुचैले कपड़े पहने एक देहाती को लाया और उसके बारे में बताया- “ये एक कुत्ते के घाव धो रहे थे। मैं इन्हें जानता नहीं। आप ही कुछ पूछ लीजिए कि ये धर्मात्मा हैं या नहीं।’’ राजा ने पूछा- ‘’क्या तुम धरम-करम करते हो?’’ वह बोला- “मैं अनपढ़ हूँ। धरम-करम मैं नहीं जानता। हाँ, कोई बीमार होता है तो सेवा कर देता हूँ।’‘ राजा ने कहा- “यही वास्तव में सबसे बड़ा धर्मात्मा है। सबसे बड़ा धर्म बिना किसी इच्छा के असहायों की सेवा करना है।‘’
गुरु गोविन्द कृपा करें, सहजै ही तिरि जाई
महात्मा नाभादास की आयु जब पाँच-छह वर्ष की थी, तब भीषण दुर्भिक्ष पड़ा था। उनकी माता स्वयं का पेट भरने में असमर्थ थी, फिर भला बच्चे का कैसे पालन करे! आखिर उसने बच्चे को एक दिन जंगल में छोड़ ही दिया। संयोग से वहाँ से सन्त अग्रदास गुजरे और उन्होंने बालक नाभादास को सोता हुआ पाया। वे उसे अपने साथ गलता ले गए। उन्होंने उसका पालन कर बड़ा किया और दीक्षा दी।
एक बार अग्रदास मानसपूजा में मग्न थे। अचानक उन्हें प्रतीत हुआ कि उनके एक प्रिय शिष्य का जहाज समुद्र में डूब रहा है। वे चिन्तित हो गए। समीप ही नाभादास भी बैठे थे। उन्हें अन्तर्ज्ञान से यह बात मालूम हो गई। उन्होंने जब देखा कि पूजा में व्यवधान हो रहा है, तब उन्होंने परम पिता परमात्मा से जहाज को डूबने से बचाने की प्रार्थना की। अर्न्तदृष्टि से उन्होंने पाया कि जहाज डूबने से बच गया। वे गुरु से बोले, प्रभु राम (रमन्ते सर्वत्र स रामः) की कृपा से जहाज बच गया है। आप पूजा को निर्विघ्न समाप्त करें।
यह देख अग्रदास बड़े प्रसन्न हुए। पूजा समाप्त होने पर उन्होंने सोचा कि जब यह व्यक्ति एक जहाज को डूबने से बचा सकता है, तब निश्चय ही यह असंख्य व्यक्तियों को भवसागर पार कराने में समर्थ होगा। उन्होंने नाभादास को सन्त-चरित्र लिखने की आज्ञा दी। तब नाभादास ने भवसागर तारने हेतु भक्तमाल रूपी नौका की रचना की, जिसमें निम्न उक्ति उपलब्ध है-
अग्रदेव आज्ञा दी, भक्त के जस गाउ।
भवसागर के तारण क, नाहिन और उपाउ॥
The Great Saint | Dharmatma | Hard Work | Parishram | Dharam | Karam | Parmatma | Brahmin | Karm | War | India | Divyayug |