ओ3म् ईशावास्यमिदं सर्वं यत् किञ्च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनम्॥ (यजुर्वेद 40.1)
अन्वय- जगत्यां यत् किंच जगत् (अस्ति), इदं (तत्) सर्वं ईशा आवास्यं (अस्ति)। तेन त्यक्तेन (सता जगता) भुंजीथा। मा गृधः। धनं कस्य स्विद् (भवेत्?)
अर्थ- (जगत्याम्) इस सृष्टिरूपी प्रपंच में (यत् किंच) जो कुछ (जगत्) गतिविधान है (इदम् सर्वम्) वह सब (ईशा) परमात्म शक्ति के द्वारा (आवास्यम्) परिपूरित होना चाहिए। (तेन) उस जगत् या गतिविधान की सहायता से (भुंजीथाः) हे मनुष्य ! तू सुख का उपभोग कर। (त्यक्तेन-त्यक्तेन जगता) ऐसे गतिविधान के द्वारा जिसको तूने छोड़ दिया है अर्थात् जिसमें तू चिपटा नहीं है। (मा गृधः) चिपट मत! (धनम्) धन (कस्य स्वित्) किसका है? अर्थात् किसी एक का नहीं।
व्याख्या- इस मन्त्र में मुख्य शब्द ‘जगत्’ है। ‘जगत्’ का ही प्रकरण है। ‘जगत्’ का मुख्य अर्थ क्या है? जीव से इसका किसी प्रकार का सम्बन्ध होना चाहिए? किन भूलों के होने की सम्भावना है जिनसे बचना आवश्यक है? इन सब बातों का इस मन्त्र में उपदेश दिया गया है। इस मन्त्र में कई शब्द गम्भीर विचार के योग्य हैं, क्योंकि इस विषय में अनेक भ्रान्तियुक्त धारणाएँ हैं। मन्त्र में कोई शब्द कठिन नहीं है। केवल सीधी रीति से विचार करना चाहिए और कल्पनाओं से बचना चाहिए।
(जगत्याम्) जगती में। जगती नाम है समस्त प्रपंच का जिसको सृष्टि या संसार कहते हैं। यह संसार परिवर्तनशील है, एकरस नहीं। परिवर्तन का नाम है गति! संसार नाम ही सम्पूर्ण गतिविधान का है। अतः ‘जगत्’ का अर्थ हुआ ‘गतिविधान।’ गतिविधान तो प्रत्यक्ष ही है। इसको सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं। घटनाएँ नित्यप्रति होती हैं। प्रत्येक क्षण में कोई न कोई गति हो जाती है। यह ‘गति’ न भ्रम है न कल्पित है। इसका आधार अविद्या नहीं है। अर्थात् ऐसी वस्तु नहीं जिसका अस्तित्व हो ही नहीं और समझने वाले ने अविद्या या भ्रान्ति के कारण इसको ‘गति’ समझ रक्खा हो। ये गतियाँ परस्पर असम्बद्ध भी नहीं। एक का दूसरी से सम्बन्ध है। इसीलिए जगत् का अर्थ ‘गतिविधान’ करना चाहिए। ‘जगती’ सामूहिक अर्थ देता है। ‘जगत्’ वैयक्तिक गति का सूचक है। इसीलिए इसके साथ ’यत् किंच’ शब्द का प्रयोग किया गया है।
‘गतिविधान’ के सम्बन्ध में पहली बात यह सोचनी है कि ‘गति’ है क्या? आप चलते हैं एक स्थान से दूसरे स्थान को। एक स्थान से गति आरम्भ होती है, दूसरे स्थान पर समाप्त होती है। स्थान (स्थ) ठहरा हुआ है। गति वहाँ से आरम्भ होती है। ‘गम्’ के धात्वर्थ का ‘स्था’ के धात्वर्थ के साथ परस्पर सम्बन्ध है। यदि स्थान न हो तो गति का आरम्भ कहाँ से हो? और यदि स्थान न हो तो गति की समाप्ति कहाँ पर हो? अर्थात् ठहरना और चलना एक दूसरे की विरोधी क्रियाएँ नहीं अपितु सापेक्षिक हैं। परिवर्तन का अर्थ ही यह है कि जो चीज जिस अवस्था में हो उससे दूसरी अवस्था को प्राप्त हो जाए। परिवर्तित वस्तु नई नहीं है उसमें पुराना अस्तित्व बना हुआ है। यह भावना न हो तो परिवर्तन या गतिशीलता कह ही नहीं सकते। बालों वाले आदमी को मूंड दिया जाए तो कहेंगे कि पहले यह बालवाला था, अब मुँडा हो गया। यदि उस बाल वाले आदमी को हटाकर उसकी जगह किसी मुँडे को ला खड़ा किया जाए तो यह नहीं कहेंगे कि बालवाला परिवर्तित होकर मुँडा हो गया। गधे के सिर पर सींग होते ही नहीं, बैल के सिर पर होते हैं। अतः बैल के सींग काटकर उसको बदला हुआ कह सकते हैं गधे को नहीं। इस बात को पूर्ण रीति से समझ लेना चाहिए। तभी मन्त्र का असली रहस्य खुल सकेगा।
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गति क्या है? इस विषय में दार्शनिक जमत् में भिन्न-भिन्न धारणाएँ हैं। कुछ लोग कहते हैं कि ‘गति’ वास्तविक नहीं, भ्रान्ति मात्र है जैसे सूर्य चलता नहीं परन्तु चलता प्रतीत होता है। रेल के यात्री को सड़क के वृक्ष चलते दिखाई देते हैं वस्तुतः वे चलते नहीं। इतना तो ठीक है कि कभी-कभी हम ठहरी चीज को चलती समझ लेते हैं परन्तु साथ ही यह भी है कि चलती चीज को ठहरी हुई समझते हैं। रेल का यात्री न चलते हुए वृक्षों को चलता हुआ देखता है और चलती हुई रेल को ठहरी हुई कहता है। इससे स्पष्ट है कि जो युक्ति ‘गति’ को भ्रान्तियुक्त मानने के लिए दी जाती है, वही युक्ति ‘स्थिति’ को भ्रान्त मानने के लिए दी जा सकती है। इससे ‘गति’ मात्र का खण्डन नहीं होता। भ्रान्ति इसलिए नहीं है कि ‘गति’ की कोई सत्ता नहीं, अपितु इसलिए है कि भ्रान्ति का कारण ग्रन्थ है। जिस व्यक्ति के मन में भ्रान्ति उत्पन्न हुई उसके मन को भी तो गतिशील मानना पड़ेगा। भ्रान्ति का मानने वाला तो स्वयं गतिशील सिद्ध हो गया। इसलिए ’गति’ कल्पित नहीं।
’गति’ के अस्तित्व के विरोधी एक हेत्वाभास देते हैं। वे कहते हैं कि कोई वस्तु उस स्थान पर गति नहीं कर सकती जहाँ वह है और उस स्थान पर भी गति नहीं करती जहाँ वह नहीं है, अतः दोनों अवस्थाओं में गति असम्भव है। अतः ’गति’ भ्रम मात्र है। (A thing does not move where it is, It does move where it is not. Therefore it does not move at all.) यह ठीक है कि जिस देश विशेष को मैं घेरे हुए हूँ उसी देश-विदेश में मेरी गति असम्भव है। गति के लिए उस स्थान को छोड़ना होगा। यह भी ठीक है कि जहाँ मैं हूँ ही नहीं, वहाँ मेरी गति कैसे होगी? परन्तु इसका यह अर्थ तो नहीं कि मैं उस स्थान को जहाँ मैं हूँ छोड़ भी नहीं सकता। (A thing does not move, where it is. It cannot move where it is not. But it can move from where it is, to where it is not.)
यदि गति वास्तविक है तो जगत् अर्थात् गतिविधान भी वास्तविक हुआ और जगत् अविद्या, माया या भ्रान्तिमात्र नहीं रहा। विधान (System) भ्रान्तियों का नहीं हो सकता। जगत् का भाव है अभाव नहीं। सूर्य निकलता और डूबता है। वृक्ष बढ़ता और नियमपूर्वक उसका ह्रास हो जाता है। यह केवल गति नहीं अपितु गतिविधान है। दो गतियों में परस्पर सम्बन्ध है। जैसे किसी यन्त्र के भिन्न-भिन्न पुर्जे अलग-थलग नहीं होते। पुर्जे अलग रहें तो वह यन्त्र नहीं, न वे पुर्जे यन्त्र के हैं। इसी प्रकार यदि असम्बद्ध गतियाँ हों तो वह न गति विधान है न जगत् है।
यन्त्र के पुर्जे नहीं जानते कि वे यन्त्र के पुर्जें हैं। यन्त्र भी नहीं जानता कि कौन पुर्जा मेरा है और उसका क्या काम है। इसका ज्ञान तो यन्त्र के संचालक को ही है जो हर पुर्जे के वैयक्तिक धर्मों का ज्ञान रखता है और उन पुर्जों को यन्त्र के संचालन में क्या करना है इसको भी समझता है। इसी प्रकार जगत् के गतिविधान का भी एक संचालक है। वह जानता है कि सूर्य को क्या करना है और चन्द्रमा को क्या करना है। चन्द्रमा नहीं जानता कि सूर्य क्या है। सूर्य नहीं जानता कि चन्द्रमा क्या है। परन्तु जगत् के गतिविधान का नियन्ता सूर्य और चन्द्र दोनों की गतियों का ज्ञाता तथा स्वामी है। उसी नियन्ता के लिए ‘ईश’ (ईट्) कहा है। ‘ईश ऐश्वर्य’ से क्विप् प्रत्यय करके ‘ईट्’ (ईष्टे इति) बना। उसका तृतीयान्त हुआ ‘ईशा’। ‘ईशा’ का अर्थ हुआ ‘नियन्ता के द्वारा’।‘वास्यम्’ या ‘आवास्यम्’ का अर्थ है ‘आच्छादनीयम्’। वस धातु से ‘ण्यत्’ (ऋहलोर्ण्यत्, पा. सू. 3.1. 124) प्रत्यय लगाकर ‘वास्य’ और ’आङ्’ उपसर्ग लगाने से ‘आवास्यम्’ बना। ‘आवास्यम्’ का अर्थ हुआ कि प्रत्येक गतिविधान के लिए आवश्यक है कि उसमें संचालक का सान्निध्य हो। इसी प्रकार इस महान् गतिविधान के लिए भी आवश्यक हुआ कि उसका कोई ऐसा संचालक हो जिसके वश में समस्त गतिमान पदार्थ हों। ‘परमात्मतत्व’ की सिद्धि में परमोत्कृष्ट हेतु यही है कि यह प्रपंच एक गतिविधान है। गति के संचालक के बिना कोई गतिविधान बन ही नहीं सकता। कुछ लोग यह तो मानते हैं कि यह प्रपंच गतिविधान है परन्तु वे इसको स्वयं संचालित या ऑटोमैटिक (स्वयं संचालित) कहते हैं। वे इस बात को भूल जाते हैं कि ऑटोमैटिक (स्वयं संचालित) यन्त्र भी वस्तुतः स्वयं संचालित नहीं होता। उसका भी कोई ‘वशी’ (वश में रखने वाला) होता है। अन्यत्र कहा है- विश्वस्य मिषतः वशी। (ऋग्वेद 10.190.2) यही ‘वशी’ इस मन्त्र में ‘ईट्’ शब्द द्वारा उल्लेखित है। तात्पर्य यह है कि इस प्रपंच की ओर देखने और इसकी रूपरेखा पर विचार करने से यह आवश्यक हो जाता है कि हम ‘परमात्मतत्व’ की ओर जाएँ। संसार के बाह्य चलन और मनुष्य के मस्तिष्क (मनोवैज्ञानिक) नियमों से यही निर्धारित होता है।
कुछ लोग समझते हैं कि यदि प्रपंच गतिशील है तो यह नश्वर हुआ। नित्यता या सत्ता तो जाती रही, क्योंकि प्रत्येक गति नाशवान् है, अतः गतिविधान भी अनित्य ठहरा। परन्तु व्याकरण का एक सिद्धान्त है- एकदेशविकृतमनन्यत्वम्। अर्थात् एक देश के विकार से कोई वस्तु अन्य नहीं हो जाती। गधे का कान काट दिया जाए तो गधा ही रहेगा। यह भावना विश्वव्यापी है। इसी प्रकार सृष्टि के एक देश में विकार होने से समस्त सृष्टि नष्ट नहीं हो जाती। प्रपंच का प्रवाह है। यह प्रवाह ही ईश्वर के अस्तित्व का सूचक है। यों कहना चाहिए कि जगत् का गतिविधान हमें मजबूर करता है कि हम ईश्वर की सत्ता को मानें, और कोई चारा ही नहीं है।
अब आप इस गतिविधान से अपने सम्बन्ध का हिसाब लगाइए। आप ऐसे चक्र से सम्बद्ध हैं जो कभी एक अवस्था में नहीं रहता, निरन्तर गतिवान् है, इसलिए यदि आप किसी एक देश से चिपक जाएँगे तो नष्ट हो जाएंगे। वह यन्त्र आपके लिए रुकेगा नहीं। इसलिए आवश्यक है कि हम इस गतिविधान के साथ ऐसी भावना रखें जैसी एक यात्री की मार्ग के साथ होती है। यात्री मार्ग पर चलता है, उससे चिपटता नहीं अर्थात् मार्ग के प्रत्येक प्रदेश से उसका सम्बन्ध क्षणिक होता है। वह उसको छोड़कर आगे बढ़ जाता है। यदि यात्री का पैर एक स्थान पर चिपक जाए तो यात्रा भंग हो जाए। वह मार्ग पर चलेगा, चिपटेगा नहीं। इसी का नाम ‘क्रान्ति’ है। क्रान्ति का अर्थ है आगे बढ़ना। आगे बढ़ने का अर्थ यह है कि पिछले स्थान को छोड़ना। इसीलिए ‘तेन त्यक्तेन’ शब्द का प्रयोग हुआ है। ‘तेन’ का अर्थ है ‘जगता’ (तृतीयान्त)। मार्ग यात्रा का साधक है, परन्तु तभी तक जब तक कि वह मार्ग ‘त्यक्त’ होता जाए अर्थात् छूटता जाए, मार्ग चिपटे तो बुरा और यात्री चिपटे तो बुरा। मार्ग अर्थात् जगत् तो किसी से चिपटता नहीं। उसका स्वभाव ही चिपटने का नहीं। हाँ, मनुष्य चिपटना चाहता है और उसकी यह चिपटने की इच्छा उसकी यात्रा में बाधक होती है। आप चलते नहीं, ढकेले जाते हैं।
आपकी आन्तरिक इच्छा चिपटने की होती है। परन्तु दैवीशक्ति आपको बाधित करती है कि आपको आगे को ढकेल दिया जाए। आप अपने भोगों के लिए जगत् का प्रयोग अवश्य करें, क्योंकि जगत् आपके भोगों का साधक है, उसी के द्वारा आप भोगेंगे। परन्तु इस साधक का विशेषण है ‘त्यक्त’, त्यागा जाता हुआ या त्यागा जानेवाला। अर्थात् जगत् को जो मार्ग के समान यात्रा का साधन बनाना चाहता है उसे त्यागभाव धारण करना होगा, चिपटने की भावना छोड़ देनी होगी। हम जगत् के एक मनोरम, सुन्दर और सुखद उद्यान में से गुजरते हैं। समस्त उद्यान हमारे सुख के लिए है। मनुष्य जीवन से बढ़कर और कौन सा सुखप्रद जीवन होगा। परन्तु जगन्नियन्ता का आदेश है कि इस बाग का उपभोग करो, मार्ग के रूप में। यह मार्ग है, सराय नहीं। सड़क को घेरकर खड़े हो जाइए, पुलिस गिरफ्तार कर लेगी। मार्ग चलने के लिए है, डेरा डालने के लिए नहीं। इसलिए त्यागभाव धर्म का मुख्य अंग है। न भोगने का नाम त्याग नहीं, भोग से न चिपटने का नाम त्याग है और त्यागमय उपभोग सदा सुखकारी होता है। दुःख भोग में नहीं, चिपटने में है। इसीलिए दो आदेश साथ-साथ दिये हैं- ‘भुञ्जीथाः’ और ‘मा गृधः’। भोगो और चिपटो मत! जगत् को भोगने से आप कहाँ रुक सकते हैं! आपकी शारीरिक आवश्यकताएँ आपको भोगने के लिए बाधित करती हैं। यह कैसे सम्भव है कि आप खाना न खाएँ! सौन्दर्य का निरीक्षण करके आनन्द न लें! भोग तो जीवन के साथ है परन्तु भोग को मर्यादा में रखने के लिए ‘मा गृधः’ (चिपटो मत) यह आदेश भी आवश्यक है। मुमुक्षु भोगने के साथ त्यागने के लिए भी उद्यत रहता है।
अब प्रश्न यह है कि न चिपटने का आदेश क्यों दिया? मार्ग और सराय में भेद है। मार्ग भी स्थान है और सराय भी। परन्तु सराय केवल आपके लिए है, मार्ग सबके लिए है। जगत् के गतिविधान में सबका भाग है, केवल एक का नहीं। जगरूपी धन ‘कस्यचित्’ अर्थात् किसी एक का नहीं है, सबका है। ऐसा तो नहीं है कि वह धन किसी का नहीं है। किसी का न होता तो उसे कोई न भोगता। यदि कोई न भोगता तो उस धन का लाभ ही क्या था? धन व्यर्थ नहीं है, भोगने की वस्तु है। परन्तु एक जीव के भोगने की नहीं, सबके भोगने की। अतः जब कोई एक व्यक्ति धन पर प्रभुत्व जमाना चाहता है तो धन उसको सुखद होने के स्थान में दुःखद हो जाता है। जिस प्रकार स्वादिष्ट वस्तु अधिक देर तक मुँह में रखने से स्वादहीन हो जाती है, उसी प्रकार धन से चिपटने से धन अलाभकर हो जाता है।
इस प्रकार इस मन्त्र में चार बातें मुख्य हैं- 1. जगत् के गतिविधान की वास्तविकता, 2. ईश्वर का उस पर प्रभुत्व, 3. जगत् भोग के लिए है, 4. जगत् से चिपटना नहीं चाहिए।