विशेष :

कृषि पर्यावरण

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भोजन सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कृषि आवश्यक होती है। मनुष्य को एक-दूसरे से बान्धने वाली सबसे पहली ग्रन्थि सम्भवतः कृषि है। अपने जीवन निर्वाह के लिए प्रत्येक चेतन प्राणी को भोजन की आवश्यकता होती है। कोई जाति भोजन के लिए शत-प्रतिशत प्रकृति पर निर्भर नहीं रह सकती। ऐसा होना बड़ा उत्तम है, अन्यथा मनुष्य को प्रकृति से ऊपर उठने की प्रेरणा न मिलती। मनुष्य की आन्तरिक शक्तियाँ सबसे पहले भोजन व्यवस्था के लिए ही क्रिया में आती हैं और मनुष्य ने सर्वप्रथम जिस कला का आश्रय लिया था वह निश्‍चय ही कृषि होगी।95 कृषि प्रधान भारत में तो अधिसंख्य लोगों का जीवन कृषि पर ही आश्रित है। ऐसा ही वैदिक काल में भी था।

यजुर्वेद में कृषि करने का उल्लेख इस प्रकार आता है-
सीरा युञ्जन्ति कवयो युगा वि तन्वते पृथक्।
धीरा देवेषु सुम्न्या॥96

अर्थात् जिस प्रकार धीर तथा बुद्धिमान लोग हलों एवं जुआ आदि को जोड़ते हैं और सुख के साथ विद्वानों को अलग-अलग विस्तारयुक्त करते हैं, वैसे सब लोग करें।
युनक्त सीरा वि युगा तनुध्वं कृते योनौ वपतेह बीजम्। गिरा चि श्रुष्टिः सभरा असन्नो नेदीय इत्सृण्यः पक्वमेयात्॥97

हे कृषक लोगो! हलों को जोतो तथा जुओं को नाना प्रकार से फैलाओ। तैयार किए गए खेतों में बीजों का वपन करो। कृषि विद्या के अनुसार फसलों की अनेक प्रजातियाँ श्रेष्ठ विधि से तैयार करो। शीघ्र ही काटने योग्य पके हुए अनाज हमें प्राप्त हों।
शुनं सु फाला वि कृषन्तु भूमिं शुनं कीनाशा अभि यन्तु वाहैः। शुनासीरा हविषा तोशमाना सुपिप्पला ओषधीः कर्तनास्मै॥98

अर्थात् हल के नीचे लगी हुई लोहे की बनी श्रेष्ठ फालियाँ भूमि को अच्छी प्रकार बाहें तथा किसान लोग बैलों के पीछे-पीछे आराम से जाएँ। हे वायु और आदित्य! तुम दोनों कृषि से प्रसन्न होकर पृथ्वी को जल से सींचकर इन औषधियों को श्रेष्ठ फलों से युक्त करो।
लाङ्गलं पवीरवत्सुशेवं सोमपित्सरू। तदुद्वपति गामविं प्रफव्यं च पीवरीं प्रस्थावद्रथवाहणम्॥99

अर्थात् पृथ्वी को खोदने वाले सोमरक्षक, ये फालयुक्त हल श्रेष्ठ कल्याणकारी हैं। (कृषि उत्पादन से समृद्ध होकर) भेड़, बकरी, हृष्ट-पुष्ट गाएँ तथा रथवाहक वेगवान् उत्तम घोड़े आदि प्राप्त होते हैं।
भूमि से अन्न, फल, सब्जी कन्दादि की उत्पत्ति करना कृषि कर्म है। शतपथ ब्राह्मण में अन्न को ही कृषि कहा गया है, क्योंकि अन्न कृषि से ही पैदा होता है-
अथैनं विकृषति, अन्नं वै कृषिः॥100

Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev
वेद कथा -19 | मानवता ही मनुष्य का धर्म | introduction to vedas & Dharma

 

शतपथ ब्राह्मण में कृष्ट (जुती हुई) तथा अकृष्ट (बिना जुती हुई) दोनों प्रकार की भूमि में बीज वपन101 किए जाने का उल्लेख प्राप्त होता है। परन्तु अकृष्ट भूमि में बीज वपन किए जाने की यह कहकर निन्दा की गई है कि यदि बिना योनि (भूमि) तैयार किए बीज बोया जाए तो मानो बीज को योनि से बाहर फेंकना है-
बीजाय वाऽएषा योनिष्क्रियते यत्सीता यथा
ह वाऽयोनौ रेतः सिञ्चदेवं तद्यदकृष्टे वपति॥102

फसल पकने पर काटने का उल्लेख भी शतपथ में है-
यदा वाऽअन्नं पच्यतेऽथ तत्सृण्योपचरन्ति॥103

खेत में फसल के पकने के पश्‍चात् काटने का कार्य हुआ करता है। शतपथ में कृषि का क्रम यह दिया गया है-
कृषन्तो ह स्मैव पूर्वे, वपन्तो, यन्ति, लुनन्तो, अपरे मृणन्तः॥104

अर्थात् (कृषन्तः) हल चलाते हैं, (वपन्तः) बीज बोते हैं, (लुनन्तः) धान्य कूटते हैं, (मृणन्तः) धान्य कूटकर साफ करते हैं। इस प्रकार हल चलाने के पश्‍चात् धान्य को घर में लाने तक की प्रक्रियाएँ हैं। धान्य काटने के पश्‍चात उसको गठरी बाँधकर उठाते हैं, उसको ‘पर्ष’ कहते हैं।105

कृषि कार्य के लिए हलों का उल्लेख भी यजुर्वेद वाङ्मय में प्राप्त होता है। जोते जाने वाले बैलों की संख्या से हलों के आकार का अनुमान लगाया जा सकता है। निम्न स्थलों पर छः बैलों से युक्त हलों से कृषि करने का उल्लेख है-
षड्गवेन कृषति।106
सीरं युनक्ति। षड्गवं भव॥107

छः, बारह अथवा चौबीस बैलों के जुतने के उल्लेख भी प्राप्त होते हैं-
द्वादशगवं सीरं॥108
द्वादशगवेन कृषति॥109
सीरं वा द्वादशायोगं॥110
षड्गवं भवति द्वादशगवं वा चतुर्विशतिगवं वा॥111

बड़ा हल भूमि में गहराई तक जाता है, इसलिए उसको खींचने के लिए अधिक बैल आवश्यक होेते हैं। इस हल से अनाज की उत्पत्ति भी अधिक होती है।112

क्योंकि इससे जमीन की काफी उलट-पलट हो जाती है तथा यह नरम हो जाती है, जिससे फसल की जड़ों को बाधा नहीं होती।

कृषि के लिए हलादि हेतु बैलों की आवश्यकता होेने से गोपालन आवश्यक है। गाय-बैल आदि पशुओं के गोबर से जो प्राकृतिक खाद बनता है उससे भूमि की उपजाऊ शक्ति बढ़ती है। आज स्थिति यह है कि हलादि चलाने हेतु बैल का उपयोग निरन्तर घटता जा रहा है। इसके विकल्प के रूप में ट्रेक्टर तथा लारियों का उपयोग खेती एवं भारवाहन के लिए बढ़ता जा रहा है। प्राकृतिक गोबर की खाद के स्थान पर रासायनिक खादों का प्रयोग किया जा रहा है। इसका परिणाम यह हो रहा है कि हजारों वर्षों से उपजाऊ रहती आई भूमि अब अपनी उर्वराशक्ति को खोती जा रही है तथा पैदा होने वाली फसलों में रासायनिक खादों के अत्यधिक प्रयोग से विषाक्तता बढ़ रही है। ट्रैक्टर से जुताई करने से जमीन सख्त होती जा रही है तथा पानी सोखने की क्षमता कम होती जा रही है।

ट्रैक्टरों तथा रासायनिक खादों के निरन्तर प्रयोग का एक परिणाम यह भी हो रहा है कि उससे भूमि की जैव-विविधता समाप्त हो रही है। भूमि में नाना प्रकार के जीवन इसकी उपजाऊ शक्ति को बनाए रखते हैं। उपजाऊ शक्ति तभी बनी रह सकती है जबकि प्राचीन ऋषि प्रणीत संस्कृति के अनुसार गाय आदि पशु आधारित कृषि होती रहे। (क्रमशः)

सन्दर्भ-सूची
95. वैदिक संस्कृति पृ. 87, गंगाप्रसाद उपाध्याय
96. यजुर्वेद संहिता 12.67
97. यजुर्वेद संहिता 12.66
98. यजुर्वेद संहिता 12.69
99. यजुर्वेद संहिता 12.71
100. शतपथ ब्राह्मण 7.2.2.7
101. शतपथ ब्राह्मण 7.2.4.17
102. शतपथ ब्राह्मण 7.2.2.5
103. शतपथ ब्राह्मण 7.2.2.5
104. शतपथ ब्राह्मण 1.6.1.3
105. वेदों में कृषि विद्या, श्रीपाद दामोदर सातवलेकर
106. तैत्तिरीय संहिता 5.2.5.2
107. शतपथ ब्राह्मण 13.8.2.3
108. तैत्तिरीय संहिता 1.8.7.1
109. तैत्तिरीय संहिता 5.2.5.2
110. काठक संहिता 15.2
111. शतपथ ब्राह्मण 7.2.2.6
112. वेदों में कृषि विद्या, श्रीपाद दामोदर सातवलेकर
113. यजुर्वेद संहिता 35.3  - आचार्य डॉ. संजयदेव (दिव्ययुग- अप्रैल 2013देवी अहिल्या विश्‍वविद्यालय इन्दौर द्वारा डॉक्टरेट उपाधि हेतु स्वीकृत शोध-प्रबन्ध