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स्मरणीयों का स्मरण

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स्मरण करने योग्य को स्मरणीय कहते हैं। किसी का स्मरण=बार-बार याद करना, चर्चा होना, सामने आना किसी विशेषता= अच्छाई से ही होता है, जैसे कि कहीं-कभी सफल होने पर। यह सफलता साधना से ही प्राप्त होती है। यतोहि सिद्धि तो साधना की दासी है। सभी क्षेत्रों, कार्यों की सिद्धि की कहानी मिलती-जुलती है। अपने-अपने क्षेत्र में साधना तो अनेक लोग आरम्भ करते हैं। विघ्न, बाधा, असहयोग के कारण कुछ लोग बीच में ही रुक जाते हैं। परन्तु दृढ निश्‍चयी लोग प्रारम्भ किए हुए कार्य को बीच में कभी नहीं छोड़ते। दीर्घकाल नैरन्तर्य सत्कारासेवितो दृढभूमि (योगदर्शन 1.14) का पालन दृढ संकल्पी लोग ही करते हैं। हमारे चारों ओर यदा-कदा अनेक घटनाएँ घटित होती हैं, पर स्मरणीय सभी नहीं होती। स्मरणीय तो कोई-कोई होती हैं।

कुछ कार्य सामूहिक स्तर पर दीर्घकालिक होते हैं जो कि वर्षानुवर्ष चलते हैं, जैसे कि शिक्षण संस्थान। इसमें शिक्षा का कार्य पीढी-दर-पीढी चलता है। आवासीय गुरुकुल में तो एक साथ अनेक कार्य साथ-साथ अपेक्षित होते हैं। अतः इसमें अनेकों का योगदान आवश्यक हो जाता है। वस्तुतः शिक्षा=आँखे खोलना, मार्गदर्शन प्रकाशवत उपकारक कार्य है। तभी तो कहा है- सर्वेषामेव दानानां ब्रह्मदानं विशिष्यते। (मनुस्मृति 4.233) इसी से ही जीवन में अन्य प्रगतियाँ भी प्रकट होती हैं।

किसी का भी स्मरण प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से होता है। स्मरण का भाव है- सत्कार, आदर देना, आभार व्यक्त करना अर्थात किसी के कार्य को सामने लाना, किसी के उपकार को स्वीकार करना। इसको कृतज्ञता भी कहा जा सकता है। हमारे चारों ओर अनेक स्मारक चल रहे हैं। जिससे जितना अधिक जितनों का उपकार होता है, वह तदुनुरूप स्मरणीय है। जो अभावग्रस्त क्षेत्रों में कार्य करते हैं, वे प्रत्यक्ष रूप में विशेष हैं। ऐसे ही जो मूल=जड़ बनने वाले स्मारक संचालकों, कार्यकताओं को तैयार करते हैं, वे अधिक प्रशंसनीय हैं।

स्मरण के विविध रूप - जन्मदिन- हम प्रायः जीवित तथा दिवंगत व्यक्तियों के जन्मदिन मनाते हैं। जन्मदिन किसी का इस संसार में आने का सु-अवसर होता है। जब कोई किसी स्थान पर जन्म लेता है, तभी वह विशेष कार्य करता है, चमकता है, विशेष अवसर प्राप्त करता है। किसी के जन्म का अभिप्राय है- शरीर- इन्द्रियगण- अन्तःकरण-प्राण और आत्मा का मेल। अजर-अमर-अविकारी आत्मा अजन्मा है। अतः वह नित्य, चेतन आत्मा जन्म नहीं लेता है। अविनाशी आत्मा का देह आदि से सम्बद्ध होना ही जन्मदिन कहलाता है। तभी वह कुछ करने, किसी क्षेत्र में आगे बढने, सफल होने का स्वर्ण अवसर प्राप्त करता है। विविध शक्ति सम्पन्न जीव काया आदि से संयुक्त हो करके ही लौकिक और पारलौकिक कार्य करने में कृत्यकृत्य होता है। शास्त्रों में इसको अभ्युदय और निःश्रेयस संज्ञा से स्मरण किया गया है। आत्मा शरीर आदि से जुड़कर जीव नाम को जहाँ प्राप्त करता हे, वहाँ इससे उसके जीवन में क्रमशः जगमगपना आ जाता है। जैसे कि हम संसार देखते हैं कि बिजली तथा यन्त्रों आदि का तालमेल लाखों उद्योगों में हो रहा है। परन्तु इनमें से कुछ विशेष ही प्रसिद्धि को प्राप्त करते हैं। ऐसे ही संसार में आते तो अरबों ही हैं, पर स्मरणीय कुछ ही बनते हैं।

हम अपनी-अपनी श्रद्धा, सत्कार भावना को दर्शाने के लिए यदा-कदा, यत्र-तत्र अपने-अपने महापुरुषों, स्मरणीयों की विशेष स्थिति में पुण्यतिथि भी आयोजित करते हैं। इसके द्वारा हम उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हैं और इस प्रकार उनका आभार स्वीकार करते हैं, जिससे प्रेरणा, प्रोत्साहन प्राप्त किया जा सके। भले ही आज हमारे स्मरणीय पुरुष भौतिक रूप में विद्यमान न भी हों, तो भी वे अपने अमर, स्मरणीय कार्यों से अपनी यशः काया के रूप में हमारे हृदय-मस्तिष्क में समुपस्थित अवश्य ही हैं। तभी तो रह-रहकर हमें उनकी याद आती है। इसीलिए ही कहा है-
कालरूपी रेत पर चिन्ह जो तज जाएँगे।
आगन्तुक उनको मानकर जीवन ज्योति पाएँगे॥
इसी दृष्टिकोण से वेद का यह विधान अनुभव में आता है-
ओ3म् यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्।
तेह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः॥ (ऋग्वेद 10.90.16, यजुर्वेद 31.16)

सामान्य शब्दार्थ- देवाः = देवों = विद्वानों ने यज्ञेन = यज्ञरूपी साधन से यज्ञम् = पूजनीय, साध्य रूपी यज्ञ को अयजन्त = रचाया, किया। तानि= वे धर्माणि = कर्त्तव्य कर्म उनके प्रथमानि = सबसे बढकर प्रमुख कार्य आसन् = थे। ह= निश्‍चित रूप से ते = वे ऐसा करने वाले महिमानः = उन कर्मों से महिमा वाले होकर नाकम् = परमपद मोक्ष को सचन्त = सेवन, प्राप्त करते हैं। यत्र = जहाँ पूर्वे = उनसे पूववर्ती साध्याः = साधना से सिद्ध, सफल हुए देवाः = दिव्य पुरुष सन्ति = विराजते हैं।

व्याख्या- हमारे शास्त्रों में अधिकतर उपासना, यज्ञ, प्रभुभक्ति, ज्ञान से प्रभु दर्शन, मोक्ष पद प्राप्ति की चर्चा आती है। पर प्रत्यक्ष के अनुभव से प्रतीत होता है कि लम्बे समय तक सारा दिन ऐसा करना कठिन है। इसकी अपेक्षा अधिकतम व्यक्ति प्रत्यक्ष रूप में चलने वाले समाज सेवा के विविध कार्यों में अधिक लगे हुए दृष्टिगोचर होते हैं। क्योंकि हम देखते हैं कि संसार में जब कोई किसी के बच्चों को किसी प्रकार का सहयोग देता है, तो उनके माता-पिता अपने बच्चों को अपना आपा समझकर सहयोग दाता से बहुत अधिक सन्तुष्ट होते हैं। अतः इस प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर परमपिता परमेश्‍वर भी अपनी प्रजा की परिचर्या को ही अपनी पूजा मान सकता है। अतएव अधिकतम व्यक्ति समाजसेवा में सेवारत होते हैं। मूलतः यज्ञ एक धार्मिक कर्म है, जो कि यज्ञ देवपूजा, संगतिकरण, दान अर्थ वाली धातु से बनता है। यज्ञ शब्द साहित्य में अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। जगत रचना, जीवन, धार्मिक कृत्य की दृष्टि से यज्ञ शब्द का विशेष प्रयोग हुआ है। सामाजिक हित के प्रत्येक कार्य को भी यज्ञ कहा जाता है। विशेषतः पूजा से सम्बन्धित कर्म यज्ञ माना जाता है। अनुसन्धान की दृष्टि से यज्ञ शब्द को एक ही रूप में समेटना सर्वथा कठिन है। इस मन्त्र में यज्ञ शब्द यज्ञेन = साधन रूप में, यज्ञम् में कर्त्तव्य कर्म के रूप में तथा इसका परिणाम-फल-नाक भी दर्शाया गया है।

प्रसंग प्राप्त शब्दार्थ- देवाः = मार्गदर्शक, ज्ञानदाता, चमकना चाहने वाले, सफलता की इच्छा वाले, महापुरुष यज्ञेन = समाज हित की भावना, चेतना, जागरूकता से यज्ञम् = सामाजिक समुन्नति, सन्तुष्टि के सामाजिक यज्ञ = समाज सेवा को अयजन्त = रचाते हैं, करते हैं। समाज में जन्म लेने के कारण, इस समाज, संसार में आने तथा इस जीवन का लाभ उठाने के लिए तानि = उन धर्माणि = सामाजिक हितकारक कर्तव्यों को प्रथमानि = प्रमुख, सर्वप्रथम आसन् = मानते हैं,समझते हैं, करते हैं अर्थात समाजसेवा भी उनका प्रमुख कार्य होता है। ह = निश्‍चित रूप से ते = इस प्रकार की सामाजिक सेवा से वे महिमानः = महिमा वाले होकर नाकम् = सामाजिक समुन्नति, सामाजिक प्रतिष्ठा के सुख को सचन्त = अनुभव करते हैं। इस प्रकार की सिद्ध स्थिति से मोक्ष = सामाजिक दुःखों, कष्टों का छुटकारा अनुभव करते हैं। यत्र= जहाँ, जिस सामाजिक सन्तुष्टि की स्थिति में पूर्वे = उनसे पूववर्ती साध्याः = सामाजिक सेवा, साधना से सिद्ध, सफल हुए देवाः = दिव्यपुरुष सन्ति = वास करते हैं, पहुँचे हुए हैं। अर्थात उसी प्रकार की सामाजिक प्रतिष्ठा उनकी भी होती है। अतः देवाः = युगपुरुष यज्ञेन = समाजसेवा रूपी पूज्य कर्म से यज्ञम् = समाज रूपी पूज्य की अयजन्त = सेवा रूपी पूजा कर्म को करते हैं ।

भावार्थ- अपने सफल जीवन से चमकने वाले महापुरुष सेवा (पूजा) के साधनों से समाज रूपी पूजनीय प्रभु की पूजा, सेवा करते हैं। अर्थात सामाजिक हित साधक यज्ञ से समाज की सेवा करते हैं। यह साधना उनका सबसे मुख्य धर्म, कर्तव्य कर्म होता है। इस महनीय कार्य से वे सामाजिक समुन्नति को साधते हैं। क्योंकि उनसे पूर्ववर्ती भी ऐसा करके ही सिद्ध बने हैं। अर्थात मुक्तिपद को प्राप्त हुए हैं। युगपुरुष समाज को दुःखों व क्लेशों से छुड़ाने में ही अपना मोक्ष मानते हैं। (वेद मंथन)

वेद मंथन, लेखक - प्रा. भद्रसेन वेदाचार्य एवं संपादक - आचार्य डॉ. संजय देव (Ved Manthan, Writer- Professor Bhadrasen Vedacharya & Editor - Acharya Dr. Sanjay Dev) Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev | वेद कथा -12 | गर्भ संस्कार द्वारा दिव्य संतान का जन्म | डॉ संजय देव | वैदिक संस्कार | Vedas in Hindi