विशेष :

प्रगति का पथ

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प्रत्येक व्यक्ति प्रत्येक परिस्थिति में प्रगति चाहता है। इसकी प्रक्रिया प्रदर्शित करने वाले पृथिवी सूक्त का प्रथम मन्त्र विशेष ध्यातव्य है। पृथिवी शब्द जहाँ धरती और उसके वासियों का वाचक है वहाँ प्रगति, पूर्णता, विकास का भी बोधक है।
ओ3म् सत्यं बृहत् ऋतम् उग्रम् दीक्षा तपो ब्रह्म यज्ञः पृथिवीं धारयन्ति।
सा नो भूतस्य भव्यस्य पत्नी उरुं लोकं पृथिवी नः कृणोतु॥ अथर्ववेद 12.1.1॥

शब्दार्थ- सत्यम् = सचाई; बृहत् = बड़ा ऋतम् = प्राकृतिक व्यवस्था; उग्रम् = कठोरता, दण्ड व्यवस्था, न्याय प्रक्रिया; दीक्षा = योग्यता, क्षमता; तपः = साधना; ब्रह्म = ईश्‍वर, ज्ञान यज्ञः = सर्वहितकारी कार्य, ये सब पृथिवीम् = धरती, संगठन, प्रगति, विकास को धारयन्ति = धारण करते हैं, सम्भालते हैं। सा= वह इन गुणों से युक्त संगठन, पृथिवी ही नः = हमारे भूतस्य = पूर्व बीते और भव्यस्य = भविष्य, वर्तमान की पत्नी = पालिका, पूर्ण बनाने वाली है। ऐसी पृथिवी = पूर्णता ही नः = हमारे लोकम्= कार्यक्षेत्र को, जीवन को उरुम् =विस्तृत, विशाल, कृणोतु = करे, करती है।

व्याख्या- सत्यम्- सत्य शब्द इतना प्रसिद्ध, प्रचलित और प्रिय है कि प्रत्येक व्यक्ति यही चाहता है कि मेरे साथ हर एक सदा सत्य बोले तथा सत्य का व्यवहार करे। अतः इसको स्पष्ट करने की विशेष अपेक्षा नहीं है।

प्रत्येक यह समझता है कि सत्य वही है जो वह मानता है। पर वस्तुतः सत्य वह है जिसमें किसी प्रकार का किसी के साथ धोखा, छल, ठगी, प्रपंच, चालाकी नहीं है। इसीलिए विदुर नीति (3.58), महाभारत (उद्योग पर्व 35.49) तथा चाणक्य शास्त्र आदि में कहा गया है-
न तत्सत्यं यच्छलेनाभ्युपेतम्।
सत्यन्न तद् यच्छलदोषयुक्तम्॥ चाणक्य राजनीति शास्त्र 8.35॥
सत्यस्य भूषणं निर्व्याजता॥ नीति शतक 83॥

इसी बात को ऐसे भी कहा जाता है कि मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकम्। अर्थात मन-वचन और कर्म की एकता, यथार्थ होना। जो बात, तत्व, तथ्य तीन कालों में एक सा हो। वह सत्य कहाता है। वेद में अनेकत्र सत्य की चर्चा की गई है। जैसे कि महिमा की दृष्टि से-
सत्यस्य नावः सुकृतमपीपरन्। (ऋग्वेद 9.73)
अर्थात् सत्य की नौका ही सत्य सुकर्मा को पार लगाती है। सत्य के स्वरूप की दिशा से यह मन्त्र विशेष है-
ओ3म् सुविज्ञानं चिकितेषु जनाय सच्चासच्च वचसी पस्मृधाते।
तयोर्यत्सत्यं यतरदृजीयस्तदित्सोमोऽवति हन्त्यासत्॥ ऋग्वेद 7.104.12॥

शब्दार्थ- चिकितुषे = समझदार, विचारशील जनाय = मनुष्य के लिए सुविज्ञानम् = यह प्रत्यक्ष, स्पष्ट पते की बात परीक्षित सुनिश्‍चित तथ्य है कि सत् च = सचाई और असत् च= झूठ पस्पृधाते = परस्पर स्पर्धा करते हैं, एक-दूसरे को दबाते हैं, परे हटाते हैं। तयोः = उन दोनों मेंसे यत् सत्यम् = जो सत्य होता है अर्थात् वही सत्य है यतरत् = दोनों में से जो ऋजीयः = ऋजु, सरल, सीधा, छल-प्रपंच रहित है। अतः सोमः = सोमस्वरूप परमात्मा, सारों का सार उसी बात का निचोड़ तत् इत = निश्‍चित रूप से सत्य की अवति = रक्षा करता है। और असत् = झूठ का हन्ति = नाश करता है। विकास का दूसरा मूल मन्त्र है- बृहत् = बड़ापन, उदारता, विशालता अर्थात हृदय की उदारता, मन-विचारों की विशालता। ऐसी स्थिति में-
अयं निजः परो वेति गणना लघु चेतसाम्।

उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्॥
यह मेरा है, ये अपने हैं और वे पराए हैं। ऐसी सोच छोटे दिल वालों की होती है। परन्तु जो उदार दिल वाले होते हैं, वे सारी धरती को अपना कुटुम्ब मानते हैं। वे पन्थ-भाषा-जाति देश से ही किसी को अपना या पराया नहीं मानते हैं।

मनुष्य एक विचारशील सामाजिक प्राणी है। परिवार-रिश्तेदार, मित्र, अड़ोसी-पड़ोसी ही समाज के अंग, सदस्य होते हैं। इन सबका समष्टि, सांझा रूप ही समाज है। यथाशक्ति इन सबके साथ जीवन जीना और दूसरे के भले की भावना को लेकर चलने में ही जीवन की शोभा है। अपना पेट तो कौए, कुत्ते भी भर लेते हैं। अतः किसी के काम जो आए उसे इन्सान कहते हैं। वही इन्सार के रूप में मान्य है। नीति की भी मांग है कि यथासम्भव दूसरों को सहयोग देने का यत्न करें।

ऋत- इस मन्त्र में सत्य शब्द पहले आ चुका है। अतः ऋत- उससे भिन्न प्राकृतिक सचाईयों के अर्थ में लिया जा सकता है। प्राकृतिक पदार्थ तथा नियम सबके लिए सर्वत्र सदा एकसे होते हैं। परन्तु सत्य व्यक्ति, स्थान काल, निष्ठा आदि से जुड़ा हो सकता है। जैसे सड़क पर बाएँ या दाएँ चलने का नियम देश भेद से है। पर ऋत सभी कालों, स्थानों पर प्रत्येक व्यक्ति के प्रति एकसा ही होता है। सम्भवतः इसी दृष्टि से ईश्‍वरीय ज्ञान वेद ने जल, वायु आदि की तरह मन्त्र (=वेद) का विशेषण समानं मन्त्रमभि मन्त्रये वः (ऋग्वेद 10.191.3) में समानम् दिया है। अर्थात प्राकृतिक पदार्थों के समान मन्त्र= वेद, नियम भी सभी कालों, स्थानों, व्यक्तियों की दृष्टि से एक से ही हैं। अतः प्राकृतिक व्यवस्थाओं को पालने का स्वयं जहाँ यत्न करें, वहाँ स्वयं भी इनकी तरह सभी के प्रति ऐसा ही व्यवहार करें।
उग्रम= तेजस्वी, पक्षपातरहित न्याय व्यवस्था सम्पन्न, संयमी, कठोर, जिससे अपराध करने वालों के लिए बिना पक्षपात दण्ड व्यवस्था हो। न्याय व्यवस्था से बचने का न तो स्वयं प्रयास करे और न ही दूसरे अपराधियों को बचने-बचाने में सहयोग करे। ताकि न्याय, धर्म, गुणों का आदर सहित पालन हो।
मनुस्मृति (7.18) में संविधान, न्याय प्रक्रिया को दण्ड नाम देते हुए कहा गया है-
दण्डः शास्ति प्रजाः सर्वाः दण्ड एवाभिरक्षति।
दण्डः सुप्तेषु जागर्ति दण्डं धर्मं विदुर्बुधाः॥
दण्ड (न्याय) व्यवस्था ही सारी प्रजा पर शासन करती है। वह ही सभी के व्यवहार को चलाती है। यही सबकी रक्षा करती है। जब सारी प्रजा सो रही होती है, अन्य प्रसंगों में मग्न होती है, तब रक्षा पुरुष जागते हैं, सावधान रहते हैं। अतः इस व्यवस्था को ही समझदार धर्म समझते हैं, मानते हैं।

कौटिल्य अर्थशास्त्र में इस रहस्य को इन शब्दों में कहा गया है- दण्डनीतिरेका विद्या, तस्यां हि सर्वाः विद्याः प्रतिबद्धाः। नयानयौ दण्डनीत्याम् (1.2) एवं तस्यामायत्ता लोकयात्रा। सुप्रीणतो हि दण्डः प्रजा धर्मार्धकामैर्योजयति (1.4) इन वचनों से स्पष्ट होता है कि संविधान, दण्ड, राजधर्म, न्याय व्यवस्था ये सारे शब्द पर्यायवाची हैं। जितना-जितना जनता स्वयं इसका पालन करती है, तब सामूहिक व्यवस्था अधिक सुन्दर, सुखप्रद रहती है।

दीक्षा- योग्यता, क्षमता। दीक्षा प्राप्त कर लेने पर शिक्षित में कार्य करने का आत्मविश्‍वास आता है। अतएव विद्या समाप्ति पर दीक्षान्त संस्कार होता है। इससे यह सिद्ध हेाता है कि यह अब इसके याग्य है। ऐसे ही समूह में किसी सामयिक धर्म, कर्तव्य को अपनाने पर दीक्षा ली जाती है कि मैं इस बात को निभाकर दिखाऊँगा। जैसे कि मैं सदा इस या इन बातों को प्रति सदाचारी, संयमी, कटिबद्ध रहूँगा।

तपः - तप शब्द (द्वन्द्व सहनं तपः) मुख्य रूप से भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी से होने वाले कष्ट सहने के अर्थ में आता है। तपना शब्द भी यही प्रकट करता है। इसका मूल भाव यही है कि अपने कर्तव्य को करते हुए सचाई, ईमानदारी को निभाते हुए जो भी कष्ट, दुःख, क्लेश आए उसको सहर्ष सहन करना। इसी दृष्टि से यक्ष- युधिष्ठिर संवाद में कहा गया है- तपः स्वधर्मवर्तित्वम्। (महाभारत आरण्यक पर्व 32.5) तप के इसी महत्व के कारण सारे भारतीय साहित्य और जनता में तप को इतना अधिक आदर दिया गया है। अपने-अपने प्रकरण में स्वाध्याय, प्राणायाम, ब्रह्मचर्य=संयम को भी तप कहा गया है।

ब्रह्म- ब्रह्म शब्द मुख्यतः ईश्‍वर और ज्ञान के अर्थ में लिया जाता है। ईश्‍वर, उसके नियमों और ज्ञान के महत्व को स्वीकार करते हुए जीना। ब्रह्म का धातु अर्थ है- बड़ा। प्रभु तथा ज्ञान बड़े महत्वपूर्ण हैं।

यज्ञः- सामूहिक हित का कार्य। यज धातु से यज्ञ शब्द बनता है जो कि देवपूजा, संगतिकरण, दान अर्थ में है। धार्मिक कर्मकाण्ड के रूप में इसकी सत्ता, चर्चा अधिक प्रसिद्ध है। वहाँ अग्नि में दी जाने वाली घी-हवन सामग्री की आहुति वाले कर्म के लिए यज्ञ शब्द अधिक प्रचलित है। महर्षि दयानन्द की दृष्टि में यज्ञ सुगन्धित-पौष्टिक आदि हव्य पदार्थों की अग्नि में आहुति देने पर पाकशाला की तरह लाभ देता है। तब यह दुर्गन्धनाशक तथा सुगन्ध प्रसारक के रूप में स्पष्ट परिणाम वाला होता है। जैसे पाकशाला में अग्नि के प्रभाव से पकने वाले पदार्थ में विशेष परिवर्तन आता है। दाल में लगने वाला छौंक इसका सबसे अच्छा उदाहरण है। इससे दाल के रूप, गुण, स्वाद आदि प्रभावित होते हैं। इसीलिए देवयज्ञ का दूसरा नाम अग्निहोत्र है। अतः सुगन्ध की तरह भला करना यज्ञ की मुख्य भावना है।

वैसे पंचमहायज्ञ और गीता वर्णित से यज्ञ शब्द सामूहिक हित कर्म के अर्थ में लिया जा सकता है। वेद में यज्ञ शब्द ईश्‍वर, उसकी आज्ञा, धर्म, सदाचार, सामाजिक सम्बन्धों का सम्मान, कृषि, पशु अदि विज्ञान, कर्मकाण्ड आदि अनेक अर्थों में आया है। इस दृष्टि से यजुर्वेद के अठारहवें अध्याय के प्रारम्भिक 1 से 31 तक के मन्त्र विशेष विचारणीय हैं।

उपसंहार- किसी भी विकसित का विकास इस बात का साक्षी है कि मन्त्र में वर्णित ऐसे गुणों से ही यह पूर्णता आई है, विकास हुआ है। तब इससे किसी का भविष्य उज्जवल होता है। फिर उससे कार्यक्षेत्र विस्तृत होता है और विश्‍वास जमता है। इन्हीं गुणों का शास्त्रीय सामूहिक नाम धर्म है। तभी तो पूर्णता, विकास के उद्देश्य का सामने रखकर मनुस्कृति में कहा गया है-
धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रिय निग्रहः।
धीर्विद्यासत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्॥ मनुस्मृति 6.92॥

यहाँ विशेष बात यह कि मनु ने इनको सबके लिए आवश्यक, अनिवार्य कहा है-
दतुर्भिरपि चैवैतै र्नित्यमारमिभिर्द्विजैः।
दशलक्षणका धर्मः सेवितव्यः प्रयत्नतः॥ मनुस्मृति 6.91॥

याज्ञवल्क्य स्मृति में भी महर्षि मनु की बातों का ही समर्थन करते हुए कहा गया है-
अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रिय निग्रहः।
दानं दया शान्तिः सर्वेषां धर्मसाधनम्॥ याज्ञवल्क्य स्मृति 1.22॥
सत्यमस्तेयमक्रोधो ह्रीः शौचं धीर्धृतिर्दमः।
संयतेन्द्रियता विद्या धर्मः सर्व उदाहृतः॥ याज्ञवल्क्य स्मृति 3.66॥

कौटिल्य अर्थशास्त्र में इसी रहस्य को इन शब्दों द्वारा पुष्ट किया गया है-
सर्वेषामहिंसा सत्यं शौचमनसूयानृशंस्यम् क्षमा च। (कौ.अ.शा. 3.18)
योगदर्शनकार ने मनु प्रतिपादित धर्म के दश लक्षणों को जहाँ यम (सामाजिक व्यवस्था) तथा नियम (वैयक्तिक कर्तव्य) नाम से स्मरण किया है, वहाँ इनको सर्वभौतिक-सार्वकालिक महाव्रत कहा है। वहाँ के शब्द हैं- एते जाति देशकाल समयावच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम् (योगदर्शन 2.31) अर्थात सभी कालों, स्थानों, व्यक्तियों पर ये बातें समान रूप से लागू होती हैं। (वेद मंथन)

वेद मंथन, लेखक - प्रा. भद्रसेन वेदाचार्य एवं संपादक - आचार्य डॉ. संजय देव (Ved Manthan, Writer- Professor Bhadrasen Vedacharya & Editor - Acharya Dr. Sanjay Dev) Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev | वेद कथा -13 | Explanation of Vedas | बालक निर्माण के वैदिक सूत्र एवं दिव्य संस्कार-2 | गर्भ संस्कार