त्रयः केशिन ऋतुथा विचक्षते। यह सूक्ति ऋग्वेद के 1.164.44 मन्त्र का प्रथम चरण है। इस सूक्त में अधिकतम दार्शनिक ढंग का विचार-विमर्श प्राप्त होता है। प्रायः भाष्यकारों ने इस मन्त्र में सूर्य (अग्नि), विद्युत और वायु का वर्णन माना है। अगले चरणों में इन तीनों का क्रमशः चित्रण है। इस वर्णन को आधिदैविक भी कहा जा सकता है। यहाँ सूक्त के दार्शनिक भाव को सामने रखकर सूक्ति के शब्दों का विश्लेषण किया जा रहा है। सूक्ति के शब्दों का सामान्य अर्थ है- तीन केश वाले समय-समय पर चमकते हैं। केश शब्द यहाँ किरण, प्रकाश, चमक, स्पष्ट सत्ता वाले की ओर संकेत करता है।
ऋतुथा- शब्द, समय, स्थिति, स्तर, आवश्यकता, अपेक्षा, जरूरत का वाचक है। अर्थात् तीन अपने-अपने रूप को प्रकट करते हें। तीनों की सत्ता स्पष्ट है। तीन अनोखे, मौके-मौके पर सिद्ध होते हैं। अपने-अपने क्षेत्र में तीन अनोखे चमकते हैं, अनुभव में आते हैं, अनुभूत होते हें। पूरा मन्त्र इस प्रकार है-
त्रयः केशिन ऋतुथा विचक्षते संवत्सरे वपत एक एषाम्।
विश्वमेको अभिचष्टे शचीभिर्ध्राजिरेकस्य दृदृशे न रूपम्॥
शब्दार्थ- ऋतुथा= व्यवस्था के अनुरूप, अपने-अपने कार्यक्षेत्र में त्रयः = तीन, केशिनः = केश वाले, चमक वाले अनोखे विचक्षते = दीखते हैं, अनुभव में आते हैं। एषाम् = इनमें से एकः = एक संवत्सरे = कालचक्र में समय-समय पर वपते = अनेक कर्म बीजों को बोता है, करता है। एकः = एक शचीभिः = अपनी शक्तियों, गुणों के द्वारा विश्वम् = संसार को अभिचष्टे = देखता है, व्यवस्था में रखता है। एकस्य = एक की ध्राजिः = गति, कार्यरूप दृदृशे = दीखता है रूपम् = मूलकारण, रूप न = नहीं दीखता।
संसार का प्रत्येक प्राणी सदा सूर्य, जल, वायु, पृथिवी आदि प्राकृतिक पदार्थों का लाभ उठाता है। वह स्वयं इन प्राकृतिक पदार्थों या उनकी व्यवस्था, स्वारस्य को समझ सके या नहीं, परन्तु वह प्रतिक्षण इनके आधार पर ही अपना जीवन जीता है। अतः यह सर्वसम्मत बात है कि इस संसार में प्राकृतिक जगत की एक अपनी अटल परम्परा है। उसमें जहाँ सूर्य (अग्नि) अपनी ऊर्जा, उष्मा, उषा से सारे चर-अचर को चमत्कृत कर रहा है, वहाँ वायु, जल, पृथिवी तथा तज्जन्य ऐसे अनेक पदार्थ हैं, जो अपनी-अपनी देनों से अनिवार्य सिद्ध होते हैं। इनसे प्राप्त होने वाले योगदानों के महत्व को प्रत्येक अपने व्यवहार से भी स्वीकार करता है। कोई इनके गीत गाए या नहीं, पर ये प्राकृतिक पदार्थ, प्रकृति के नियम, व्यवस्थाएं सबके लिए एकसी, लाभप्रद और सर्वत्र अटल-अटूट हैं।
अग्नि, वायु, जल, पृथिवी आदि की सत्ता, स्थिति स्पष्ट, प्रत्यक्ष अनिवार्य है। अतएवं ये भूत भू=सत्तायाम् स्पष्ट, प्रत्यक्ष सत्ता वाले कहलाते हैं। भूतों से बने हुए, जुड़े, सम्बद्ध को भौतिक कहते हैं। प्रकृति (= मूलतत्व) से बनने के कारण ही इनको प्राकृतिक पदार्थ भी कहते हैं।
संसार में समय-समय पर अनेक ऐसे व्यक्ति हुए, जिन्होंने जीवन को अच्छा बनाने के लिए अपने-अपने ढंग से प्रयास किया। इनमें से अनेकों ने भौतिक आवश्यकताओं को अनिवार्य और प्रथम समझते हुए भौतिक क्षेत्र में कार्य किया। अतः अनेक भौतिक वैज्ञानिकों ने प्राकृतिक जगत को प्रकृति के नियम, व्यवस्था या कुदरत का खेल कहकर सागर को गागर में भरने की तरह अपने भावों को समेटने का प्रयास किया।
उन्होंने इस खेल को समझने और इसके स्वारस्य को जानने के लिए दिन-रात एक कर दिया। ऐसों के परिश्रम के परिणामस्वरूप ही आज तक के भौतिक जगत के सारे विचार और आविष्कार आविष्कृत हुए हैं। जैसे कि इन दिनों और ऊर्जा को प्रयोग में लाने के लिए उस-उस प्राकृतिक व्यवस्था को समझने-समझाने में ही निमग्न रहते हैं और इस उधेड़बुन में नहीं पड़ते कि इस व्यवस्था की पृष्ठभूमि में कोई व्यवस्थापक, नियामक है या नहीं है तथा उसका स्वरूप क्या है? जैसे कि हम सब आकाशवाणी, दूरदर्शन, वाहन आदि यन्त्रों तथा यानों को नित्य प्रति अपने-अपने व्यवहार में लाकर उनसे लाभ ग्रहण करते हैं। परन्तु वर्तते समय कोई विरला ही उस यन्त्र, यान के आविष्कारक के नाम, जीवन,समय, स्थान को याद करता है। केवल उस-उस के वर्तने के ढंग में ही सभी अधिकतम सीमित होते हैं। यही स्थिति भौतिक पदार्थों के प्रयोग में भी स्वीकार करने पर आपत्ति की बात नहीं होनी चाहिए। क्योंकि वह सत्ता स्वतः इसके अन्तर्गत आ जाती है।
दूसरी ओर संसार में अनेक ऐसे आस्तिक, अध्यात्मवादी भी हुए हैं, जिन्होंने इन भौतिक तत्वों, व्यवस्थाओं की अपेक्षा इन पदार्थों के बनाने वाले तथा इन व्यवस्थाओं के व्यवस्थापक (ईश्वर) की ओर ही अपना क्रियाकलाप जुटा दिया। उनकी दृष्टि में प्रकृति, कुदरत एक शक्ति, नियम, स्वभाव, तत्व है। इसका आधार चाहिए ही और वही शक्ति, नियम वाला ही ईश्वर है। कुछ इस सत्ता को अद्वैत (एकमात्र, अकेली) रूप में मानते हैं। उसकी लीला, इच्छा, मनमर्जी को वे सर्वस्व समझते हैं। उनकी दृष्टि से कोई पत्ता भी परमतत्त्व की इच्छा से ही गति करता है, अन्यथा नहीं। अनेक लोग ईश्वर के स्थान पर किसी अन्य इष्टदेव, अवतार, गुरु, बाबा, माता आदि के नाम से उस परमसत्ता और उसके स्वरूप को अपने-अपने ढंग से साधने के प्रयास करते हैं। इसमें भी कोई शक नहीं कि कुछ इनकी सत्ता अलग-अलग भी अंगीकार करते हैं।
इस जगतितल पर अनेक ऐसे व्यक्ति भी पधारे, जिन्होंने संसार के ताने-बाने को स्पष्ट करने के लिए जहाँ भौतिक पदार्थों की अनिवार्यता को स्वीकारा तथा इन तत्वों की व्यवस्था के व्यवस्थापक को भी अंगीकार किया, वहाँ इन दोनों के अनुभव को रखने वाले इन सारे भौतिक पदार्थों से प्राप्त होने वाले भोग्य के भोक्ता या परम दयालु की दया को प्राप्त करने वाले को भी स्वीकार किया। क्योंकि हम सभी अनुभव करते हैं कि इस संसार में जीने की इच्छा रखने वाले भी हैं। अपने जीवन को जीवित रखने के लिए जो इन भौतिक पदार्थों को भोगते, वर्तते हुए स्पष्ट प्रतीत होते हैं। वे अपने आपको इन प्राकृतिक व्यवस्थाओं में बन्धा हुआ अनुभव करते हैं, जो कि भौतिक जगत की व्यवस्था के स्वारस्य से सामने आने वाले आविष्कारों से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में लाभान्वित होते रहते हैं। प्रत्येक में अपनेपन को अनुभव करने वाला कोई न कोई तत्व अवश्य है। इसको अनेक लोग आत्मा, जीव के नाम से स्मरण करते हैं, तो कुछ इन्द्रियों या मन रूप में मानते हैं, तो कुछ और गहराई में जाने का प्रयास करते हैं। वे शरीर, इन्द्रिय, मन से अलग इनके संचालक के रूप में आत्मा की अभौतिक सत्ता स्वीकार करते हैं।
वस्तुतः प्रत्येक का जीवन शरीर, इन्द्रिय, मन, आत्मा का मेल रूप है। यह मेल कर्मफलदाता परमेश्वर की व्यवस्था के अनुसार होता है। कुछ इसको पृथिवी, जल आदि भौतिक तत्वों का मेलमात्र मानते हैं। पर है तो कुछ का मेल ही। हाँ, मेल का जहाँ कर्त्ता चाहिए वहाँ मेल का संचालक भी।
इस प्रकार व्यवहार में ये तीन तत्त्व स्वतन्त्र स्पष्ट रूप से अनुभव में आते हैं। शास्त्रों में भी बड़ी गहराई के साथ इसका विवेचन किया गया है। हाँ, कुछ इन तीनों को किसी एक रूप में समेटकर कहने का प्रयास करते हैं। इस
वर्णन को भी कभी धर्म या कभी दर्शन का नाम दिया गया, कभी कहीं स्मृति, नीति, पुराण, मत, विचार आदि के नाम से पुकारा गया। अपने-अपने ढंग से समझने-समझाने वाले समझदारों की समझ आज हमारे सामने सहस्रों शास्त्रों, सैकड़ों सम्प्रदायों, पन्थों के रूप में यत्र-तत्र-सर्वत्र झलक रही है। इन रूपों की आगे से आगे अनेक शाखाएँ-उपशाखाएँ तथा अवान्तर शाखाएँ समय के साथ सामने आईं और आ रही हैं।
इनमें किसी न किसी रूप में इन तीनों तत्वों का विश्लेषण अवश्य ही प्राप्त होता है और यही तीन ऐसे तत्व हैं, जिनकों केन्द्र बिन्दु बनाकर ही सभी सम्प्रदायों का वर्णन चलता है। कुछ इन तीनों को स्पष्ट रूप में स्वीकार करते हैं, तो कुछ एक को दूसरे में अन्तर्भाव करके अंगीकार करते हैं। कुछ विवर्त, माया के अन्तर्भूत दूसरों को रखते हैं, पर स्वीकार अवश्य करते हैं। अतः सीधी तरह से इन तीनों को स्वीकार करना ही सरल और स्पष्ट बात है। (वेद मंथन)
वेद मंथन, लेखक - प्रा. भद्रसेन वेदाचार्य एवं संपादक - आचार्य डॉ. संजय देव (Ved Manthan, Writer- Professor Bhadrasen Vedacharya & Editor - Acharya Dr. Sanjay Dev) Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev | वेद कथा - 11 | सुख-शान्ति एवं सुखी जीवन के वैदिक सूत्र | Introduction to the Vedas in Hindi | Vedas