विशेष :

परम सत्य की प्राप्ति

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ओ3म् व्रतेन दीक्षामाप्नोति दीक्षामाप्नोति दक्षिणाम्।
दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति श्रद्धया सत्यमाप्यते॥ यजुर्वेद 19.30॥

(व्रतेन) व्रत से (दीक्षाम्) दीक्षा को (आप्नोति) प्राप्त करता है। (दीक्षया) दीक्षा से (दक्षिणाम्) दक्षिणा को (आप्नोति) प्राप्त करता है। (दक्षिणा) दक्षिणा (श्रद्धाम्) श्रद्धा को (आप्नोति) प्राप्त करती है। (श्रद्धया) श्रद्धा से (सत्यम्) सत्य (आप्यते) प्राप्त होता है।

वैदिक चिन्तन में मानव के अभ्युदय की बात सर्वोपरि है। मानव का अभ्युदय भौतिक पदार्थों की प्राप्ति में निहित नहीं है, वह है चरम सत्य का साक्षात्कार करने में। जहाँ तक स्वाभाविक वृत्तियों की बात है, मनुष्य या पशु में कोई अन्तर नहीं है। यह मनुष्य ही है जो अपने विवेक और ज्ञान से अपने अभ्युदय की तथा कल्याण की बात सोच सकता है, उसे पाने के लिए प्रयत्न भी कर सकता है और प्राप्त भी कर सकता है। पशु का जीवन तो केवल स्थूल आवश्यकताओं की पूर्ति तक सीमित रहता है। पर मननशील मानव के लिए स्थूल से सूक्ष्म की ओर की यात्रा अपरिहार्य है। मानव के अभ्युदय के लिये अनेकों मार्ग, अनेकों रास्ते वैदिक ऋषियों ने खोजे, उन्हे जांचा-परखा और तब मनुष्य को उन पर चलने के लिए प्रेरित किया।

यहाँ व्रत, दीक्षा और श्रद्धा ऐसे ही मार्ग बताए गए हैं, जिनसे व्यक्ति सत्य का साक्षात्कार कर सकता है और कल्याण को प्राप्त हो सकता है।

सबसे पहले आता है व्रत। व्रत क्या है? किसी भी शुभ, मंगल या महनीय उद्देश्य को पूर्ण करने के लिए किये गए संकल्प को व्रत कहा जाता है। दृढ़ निश्‍चय या निर्णय को व्रत कह सकते हैं। जब हम किसी को पाने का निश्‍चय या निर्णय कर लेते हैं तो वह व्रत की परिधि में ही आता है। यदि हम अपने अभ्युदय और कल्याण का संकल्प कर लें, व्रत धारण कर लें तो परमात्मा स्वयं आत्मिक बल प्रदान करता है, हमें व्रत पूर्ण करने की शक्ति और विश्‍वास देता है, क्योंकि परमात्मा वेद में व्रतपति है, व्रत की रक्षा करने वाता है। कोई भी कार्य करने से पूर्व संकल्प की आवश्यकता होती है। संकल्प की, व्रत की तुलना बीज से की जा सकती है। जिस प्रकार छोटे से बीज में एक बड़े वृक्ष की सब सम्भावनाएँ निहित होती हैं, छिपी रहती हैं उसी प्रकार एक शुभ संकल्प में, शुभ व्रत में महनीय उद्देश्य प्राप्ति की संभावना रहती है। व्रत धारण या संकल्प कर कार्य आरम्भ करने से लेकर कार्य सम्पन्न होने तक आत्मिक बल से नियम पर दृढ़ रहते हुए विपत्तियों, बाधाओं को सहन करते हुए अपने लक्ष्य तक पहुँचने का प्रयत्न मानव को करना आवश्यक है।

व्रत के पश्‍चात् आती है बात दीक्षा की। दीक्षा का अर्थ प्रायः शिक्षा के सम्मान ग्रहण किया जाता है, व्यवहार में शिक्षा-दीक्षा प्रयोग भी किए जाते हैं। पर यहाँ दीक्षा से भाव है आरम्भ। संकल्प के साथ जब हम यह निर्णय करते हैं कि यह कार्य हमें करना है तो यह भाव दीक्षा का है। इसीलिए व्रत लेने को ‘दीक्षित’ कहा जाता है।

दीक्षा लक्ष्य में निष्ठा या लक्ष्य की ओर प्रवृत्ति है। इस दीक्षा से, निष्ठा या प्रवृत्ति से व्यक्ति दक्षिणा को पाता है। ’दक्षिणा’ शब्द व्यवहार में प्रायः यज्ञ के साथ अविकल रूप से जुड़ा है। कोई भी मांगलिक कार्य (यज्ञ, हवन आदि) दक्षिणा के बिना पूर्ण नहीं माना जाता। इस सन्दर्भ में दक्षिणा ऋत्विक् को दी जाने वाली भौतिक सामग्री (धन, स्वर्ण, पशु आदि)है। पर जहाँ तक मनुष्य के अभ्युदय का प्रश्‍न है, दक्षिणा का यह भौतिक स्वरूप अभिप्रेत नहीं है। यहाँ दक्षिणा वह विशिष्ट योग्यता है, दाक्षिण्य है, कुशलता है जिसके अभाव में कोई भी महनीय उद्देश्य, उच्च लक्ष्य, उच्च आदर्श पाए ही नहीं जा सकते। जब व्यक्ति कर्त्तव्यनिष्ठ होता है तो उसे उस कार्य में विशेष योग्यता या निपुणता प्राप्त होती ही है।

इस योग्यता से अपने अभीष्ट लक्ष्य के प्रति श्रद्धा उत्पन्न होती है। श्रद्धा का अर्थ है- सत्य (श्रत्) को धारण करना (धा) अथवा हृदय (श्रत्) को लगाना (धा) किसी कर्म-विशेष में हृदय को उसकी सम्पूर्ण वृत्तियों के साथ लगा देना श्रद्धा कहलाता है। कार्य में तल्लीनता, मन की एकाग्रता ही वास्तव में श्रद्धा है। श्रद्धा का अर्थ सत्य में विश्‍वास ही है। असत्य में श्रद्धा तो निरा अन्धविश्‍वास है, जिसका फल अच्छा नहीं होता। जो वस्तु जैसी है उसे वैसी ही मानना सत्य है। सत्य के स्वरूप का निश्‍चय करके उस पर आचरण करना श्रद्धा हैा। भावार्थ है कि हमारा विश्‍वास सत्य के आधार पर हो और हम हृदय की सम्पूर्ण वृत्तियों के साथ उस कर्म-विशेष को करें, तभी अभ्युदय की प्राप्ति हो सकती है। तभी ‘गीता’ में ‘श्रद्धा-विरहित कर्म’ को श्रेष्ठ नहीं माना गया है। यज्ञ, तप, दान कोई भी कार्य श्रद्धापूर्वक किए जाने पर ही पूर्ण फल को प्रदान करता है।

इस प्रकार की श्रद्धा से ही वेद के अनुसार मनुष्य सत्य अर्थात् परम सत्य की प्राप्ति कर सकता है। व्रत, दीक्षा और श्रद्धा तीन सोपान है, जिनसे क्रमशः ऊपर चढ़ते हुए व्यक्ति अपने लक्ष्य तक पहुंच जाता है। व्रत प्रयत्न की आरम्भिक स्थिति है तथा श्रद्धा है चरम अवस्था। श्रद्धा का भाव जागरित हो जाने पर सिद्धि में कोई व्यवधान रहने का प्रश्‍न ही नहीं उठता। आध्यात्मिक मार्ग में मनुष्य व्रत, दीक्षा और श्रद्धा के माध्यम से परम सत्य का साक्षात्कार कर लेता है। व्रत, दीक्षा और श्रद्धा सांसारिक जीवन में भी व्यक्ति के अभ्युदय के लिए आवश्यक हैं। धन पाना हमारा अभीष्ट हो अथवा विद्या या कोई अन्य उद्देश्य हो, सबकी सिद्धि इन सोपानों के माध्यम से सम्भव है। पर मानव होकर भी यदि हमने परम सत्य के साक्षात्कार का प्रयत्न न किया तो हमारा जीवन व्यर्थ ही होगा। - डॉ. प्रवेश सक्सेना

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