विशेष :

राजा सोमदेव

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ओ3म् त्वं नः सोम विश्‍वतो रक्षा राजन्नघायत्ः।
न रिष्येत् त्वावतः सखा॥ ऋग्वेद 1.99.8

ऋषिः राहूगणो गोतमः॥ देवता सोमः॥ छन्दः गायत्री॥

विनय- हे सोमदेव ! तुम्हीं वास्तव में हमारे राजा हो। यद्यपि संसार के मनुष्य राजा भी जान-माल आदि की रक्षा करने के लिए ही होते हैं, पर वे अल्पशक्ति राजा चाहे जितनी हुकूमत की शक्ति रखते हों, तो भी हमारी पूरी तरह रक्षा नहीं कर सकते । पर मुझे अपने जान-माल की ऐसी परवाह नहीं है, इनको तो मैं धर्म के लिए खुशी से जाने दूँगा । अतः हत्यारों और लुटेरों के आक्रमण से रक्षा पाने की मुझे कोई चिन्ता नहीं होती। मुझे तो चिन्ता है पाप के आक्रमण से रक्षा पाने की। इस पाप के आक्रमण से ही बचने की मुझे सख्त जरूरत है और इस आक्रमण से तो, हे मेरे अन्तस्तम के राजा ! मुझमें अन्दर से हुकूमत करने वाले स्वामी! हे असली राजा ! तुम्हीं चारों और से मुझे बचा सकते हो। बड़े से बड़ा श्रेष्ठ राजा भी अपने बाहरी सुप्रबन्धन से हमें पाप के आक्रमण से सर्वथा सुरक्षित नहीं कर सकता। इसीलिए हे राजाओं के राजा परमेश्‍वर! तुमसे हम प्रार्थना करते हैं कि तुम हमें पाप चाहने वालों से सब ओर से रक्षित करो। हे सर्वशक्तिमान्! मैं तो अपने अन्दर तुम्हीं से सम्बन्ध जोड़ चुका हूँ, मुझे अब किसका डर है ? तुझ जैसे से अपना सम्बन्ध जोड़ने वाला तुझ सर्वशक्तिमान् राजा की मैत्री पाया हुआ तेरा सखा- कभी नष्ट नहीं हो सकता। तेरी सर्वशक्तिमान् शरण में पहुँचे हुए को नाश कर सकने वाली वस्तु कहाँ से आएगी ? पर ऐसा तेरा सखित्व पाने के लिए और ऐसा अमूल्य सखित्व पाकर उसको स्थिर रखने के लिए बस, पाप से सुरक्षित रहने की जरूरत है। इसलिए हमारी बारम्बार यही प्रार्थना है कि हमें पाप से चारों ओर से बचाइये । हमें पाप से सब ओर से बचाइए।

शब्दार्थः सोम=हे सोम ! राजन्=हे राजन्! हे असली राजन् ! त्वं नः=तू हमें अघायतः=पाप चाहने वालों से विश्‍वतः=चारों ओर से रक्ष=रक्षा कर। त्वावतः सखा =तेरे जैसे से मित्रता रखने वाला न रिष्येत्=कभी नष्ट नहीं होता।• - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार

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