ओ3म् प्रियो नो अस्तु विश्पतिर्होता मन्द्रो वरेण्यः।
प्रियाः स्वग्नयो वयम्॥ ऋग्वेद 1.26.7, सामवेद 8.1.1.
ऋषिः आजीगर्तिः शुनःशेपः॥ देवता अग्निः॥ छन्दः गायत्री॥
विनय- हे मनुष्य भाइयो ! हम अपने परम आत्मा को, परम अग्नि को भूल गये हैं। हम यह भी भूल गये हैं कि हम स्वयं भी वास्तव में आत्मा रूप हैं, आत्माग्नि हैं। इसलिए हम इस संसार की परम तुच्छ धन-दौलत, माल-असबाब, पुत्र, वधू, सुख-आराम, शरीर तथा सौन्दर्य आदि विनश्वर वस्तुओं से तो इतना प्रेम करने लग गये हैं, इनमें इतने आसक्त, लिप्त और अनुरक्त हो गये हैं कि हमारा इस गन्दी दलदल में से अब ऊपर उठना असम्भव सा हो गया है । पर जो हमारा असली स्वामी, सखा और सब कुछ है, परम पवित्र प्रभु है, उसे हम दिन-रात के चौबीसों घंटे में से कुछ क्षणों के लिये भी स्मरण नहीं करते। अब तो हम होश संभालें, जागें और अपने परम प्यारे अग्नि-प्रभु को अपना लें। वही हम सब प्रजाओं का एकमात्र पति है, स्वामी है । वही हमें सब सुखों को देने वाला ‘मन्द्र’ है । वही एकमात्र है जोकि हम सबका वरणीय है और वही है जोकि अपने परम यज्ञ द्वारा हम प्रजाओं को सब कुछ दे रहा है। अरे प्यारो ! हम उसे छोड़कर कहाँ प्रेम करने लगे ? सचमुच हमने अपनी प्रेमशक्ति का अभी तक घोर दुरुपयोग किया है। क्या प्रेम जैसी पवित्र वस्तु हमें इन अशुचि, तुच्छ, अनित्य वस्तुओं में रखने के लिए ही दी गई थी? आओ, अब तो हम अपने प्रेम के लक्ष्य को पा लेवें और उस मन्द्र ‘विश्पति’ को, वरेण्य ‘होता’ को अपना प्यारा बना लेवें, अपना प्रेम समर्पण कर देवें।
किन्तु इस तरह प्रेमपथ पर चल देने पर हे भाइयो ! हमें भी उसे रिझाना होगा, उसे प्रसन्न करना होगा, उसके प्रेम को अपने प्रति आकर्षित करना होगा। अर्थात् हमें भी उसका प्यारा बनना होगा । और उसके प्यारे तो हम तभी बन सकते हैं जब हम ‘स्वग्नि’ बन जाएँ, उत्तम प्रकार की आत्माएँ बन जाएँ । अतः आओ, हम सब मनुष्य अपने उस परम प्यारे के लिए अपनी आत्माओं को शुद्ध करें। उस बृहद् अग्नि के लिए अपनी अग्नियों को उत्तम प्रकार की बना लेवें । अब हमारी आत्माग्नि से विश्वप्रेम की सुन्दर किरणें ही प्रसारित होवें, हमारी बुद्धि-अग्नि में से सत्य की ज्योति ही निकले, हमारी मानसिक अग्नि सर्वकल्याण के उत्तम विचारों से ही प्रकाशित हुआ करे और हमारी चित्ताग्नि से पवित्र इच्छाएँ व भावनाएँ ही उठें। इस प्रकार हम उत्तम अग्निवाले हो जाएँ, क्योंकि इसी प्रकार वह हमारा प्यारा हमसे प्रसन्न होगा। इसी प्रकार होगा। इसी प्रकार हमें अपने प्यारे को रिझाना है।
शब्दार्थ- वह विश्पतिः=हम प्रजाओं का स्वामी मन्द्रः=आनन्द देने वाला वरेण्यः=और वरणीय होता=दाता अग्नि नः=हमें प्रियम् अस्तु=प्यारा हो जाए तथा वयम्=हम भी स्वग्नयः=उत्तम अग्नियों वाले होकर प्रियाः=उसके प्यारे हो जाएँ। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार
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