ओ3म् अभि नो वाजसातमं रयिमर्ष पुरुस्पृहम्।
इन्दो सहस्रभर्णसं सुविद्युम्नं विभ्वासहम्। (ऋ. 8.98.1)
शब्दार्थ- (इन्दो) हे तेजस्विन्! तू (नः) हमें (वाजसातमम्) अन्न देने वाला (सहस्र भर्णसम्) सहस्रों के पालन-पोषण में समर्थ (पुरुस्पृहम्) बहुतों को अच्छा लगने वाला (तुविद्युम्नम्) अत्यधिक यशस्वी (विभ्वासहम्) बड़े-बड़ों का भी पराभव करने वाला (रयिम्) पुत्र (अभि अर्ष) प्रदान कर।
भावार्थ- कोई भक्त प्रभु से प्रार्थना करते हुए कहता है कि प्रभो! हमें ऐसा पुत्र दे-
1. जो अन्न देने वाला हो। जिसके घर से कोई भूखा न जाए।
2. पुत्र अन्न देने वाला तो हो परन्तु दो-चार को नहीं वह सहस्रों का भरण-पोषण करने की क्षमता से युक्त हो।
3. वह बहुतों को अच्छा लगने वाला हो। वह क्रूर स्वभाव का न होकर सौम्य स्वभाव का हो।
4. उसका यश दूर-दूर तक फैला हुआ हो।
5. वह समय पड़ने पर बड़े-बड़ों का भी पराभव करने वाला हो। वह सत्य के लिए मर मिटने वाला हो।
‘रयि’ का ’धन’ अर्थ लेने पर मन्त्र का भाव होगा-
1. मेरा धन भूखों के लिए अन्न देने वाला हो।
2. मेरे पास इतना धन हो कि दो-चार का नहीं मैं सहस्रों और लाखों का भरण-पोषण कर सकूँ।
3. मेरा धन ऐसे कार्यों में लगे जो मेरी कीर्ति बढ़ाने वाले हों।
4. मेरा धन ऐसा हो जिसे पाकर मैं आलसी और निर्बल न बनूँ, अपितु समय आने पर मैं बड़े-बड़ों का पराभव करने के लिए तैयार रहूँ। - स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती
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