विशेष :

पृथ्वी पर्यावरण

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जनसमाज में पृथ्वी के प्रति मातृत्व की भावना भरकर तथा वन्दनीया कहकर उसे प्रदूषण से बचाए रखने का ही यत्न वैदिक मनीषियों ने किया था। कोई भी अपनी वन्दनीया माता को कष्ट नहीं देना चाहेगा। पृथ्वी के प्रति मातृत्व की भावना भरने के पीछे यही सोच थी।

इसी वैदिक भावना से आज पृथ्वी की रक्षा की जा सकती है।

आज मनुष्य पृथ्वी की नैसर्गिक गतिविधियों से छेड़खानी कर रहा है तथा उसके गर्भ में छिपे खनिज द्रव्यों और बहुमूल्य सम्पदाओं का अन्धाधुन्ध दोहन करके उसे रिक्त बना रहा है। इसके परिणामस्वरूप जो दृश्य उभरकर सामने आ रहे हैं, वे अत्यन्त भयावह और विनाशकारी हैं। आए दिन अनेक स्थानों पर हो रहे ज्वालामुखी विस्फोटों एवं भूकम्पों की शृंखला ने यह सिद्ध कर दिया है कि पृथ्वी अपना सन्तुलन खो रही है। इन प्राकृतिक विपदाओं तथा प्रकोपों को देखते हुए यही कहा जा सकता है कि पृथ्वी अपने निवासियों की करतूतों से अशान्त हो गई है। सम्भवतः इसी स्थिति की कल्पना करके दूरदर्शी ऋषियों ने ‘शान्तिः पृथिवी’37 कहकर पृथ्वी के शान्तिदायक रहने की कामना की होगी।

पृथ्वी को ‘रत्नगर्भा’ कहा जाता है। सोना, चांदी, ताम्बा, लोहा, कोयला आदि इसमें प्रचुर मात्रा में विद्यमान हैं। हीरा, मोती आदि सब पृथ्वी के गर्भ में छिपे हैं। इन पदार्थों का अत्यधिक दोहन पृथ्वी के पर्यावरण को प्रदूषित एवं अशान्त कर रहा है। मनुष्य को स्वयं अपनी गतिविधियों पर अंकुश लगाना चाहिए, तभी पृथ्वी शान्तिदायक हो सकेगी।

पर्यावरण प्रदूषण में भूमि-प्रदूषण का विनाशकारी दुष्परिणाम दिखाई देता है। भूमि-प्रदूषण के अनेक कारण हैं। यथा- वनस्पति जगत् को समाप्त करना, उपजाऊ भूमि का कृषि से भिन्न कार्यों में प्रयोग करना, पशु-पक्षी जगत् का नाश, भूमि का अत्यधिक खनन करके उसके गर्भ में छिपी गैस को निकलने देना एवं वातावरण को विषाक्त करना आदि। कृषि पैदावार बढ़ाने के लिए तथा फसलों की रक्षा के लिए प्रयोग किए जाने वाले कीटनाशक रसायनों से पृथ्वी निरन्तर प्रदूषित हो रही है। जिन फसलों पर इनको छिड़का जाता है, उनमें भी विषैले तत्व प्रविष्ट हो जाते हैं। रसायनों से प्रदूषित घास तथा चारे को खाने से पशुओं के दूध में भी विषाक्तता आ जाती है। परमाणु भट्टियों के अपशिष्ट अति विषैले पदार्थों को पृथ्वी में गाड़ने से भी पृथ्वी प्रदूषित होती है। पृथ्वी को प्रदूषण से बचाने के लिए विषैले अपशिष्ट पदार्थों को तथा कारखानों से निकली मलिनताओं को शोधित करके ही डालना चाहिए।

पृथ्वी की विशालता ही सारे प्रदूषण को कम करके उसे नष्ट करती रहती है। पृथ्वी की मिट्टी निश्‍चय ही प्रदूषण की निवारक है। इसीलिए इसका उपयोग विभिन्न प्रकार के रोगों की चिकित्सा के लिए किया जाता है। सड़े हुए व्रण भी मिट्टी का लेप करने से संक्रमण विहीन होकर ठीक हो जाते हैं।38 देखने में आता है कि मिट्टी में दबे हुए पदार्थ कुछ समय बाद मिट्टी हो जाते हैं। परन्तु मानव की गतिविधियों के द्वारा इसको इतना अधिक प्रदूषित कर दिया गया है कि अनेक स्थानों की भूमि संक्रमण से युक्त होकर रोगों का कारण बन गई है। ऐसी भूमि के गर्भ का जल तथा उस पर पैदा हुए अनाजों एवं वनस्पतियों का प्रयोग करने से विषाक्ततता हो रही है। आणविक परीक्षणों से भी भूमि निरन्तर प्रदूषित हो रही है।

पृथ्वी को प्रदूषण से बचाने के लिए इसके अनुचित दोहन से बचा जाए तथा इस पर अधिकाधिक वृक्ष लगाए जाएं और पृथ्वी पर गाय आदि पशुओं का पालन हो। गायादि पशुओं के पालन से पृथ्वी का पर्यावरण शुद्ध रहता है। गाय का गोबर तथा मूत्र कृमिनाशक होता है। प्राचीन काल में घरों को गोबर से लीपने की परम्परा रही है। इससे भूमि के कृमि नष्ट होते हैं तथा पर्यावरण शुद्ध रहता है। गाय का गोबर तथा मूत्रादि भूमि की उर्वरा शक्ति को भी बढ़ाते हैं।
यजुर्वेद में पृथ्वी को यज्ञ द्वारा समर्थ बनाने का उल्लेख प्राप्त होता है- पृथिवी च मे यज्ञेन कल्पन्ताम्।39
पृथ्वी में स्थित पत्थर, रत्न, मिट्टी, छोटे-बड़े पर्वत, रेत, समस्त वनस्पतियाँ, सुवर्ण, लोहा, चान्दी, ताम्बा आदि सब धातुएं तथा सीसा और राँगा ये सब यज्ञ से समर्थ हों- अश्मा च मे मृत्तिका च मे गिरयश्‍च मे पर्वताश्‍च मे सिकताश्‍च मे वनस्पतयश्‍च मे हिरण्यं च मेऽयश्‍च मे श्यामं च मे लोहं च मे त्रपु च मे यज्ञेन कल्पन्ताम्।40
यजुर्वेद में पृथ्वी को भस्म से भरने का उल्लेख मिलता है, जो यज्ञ तथा स्वाहा क्रिया का ही परिणाम है- पृथिवीं भस्मनापृण।41
यज्ञ की भस्म से उत्तम औषधियों का सारतत्व पृथ्वी को प्राप्त होता है।
आज आणविक परीक्षणों से भी भूमि प्रदूषण बढ़ रहा है। यजुर्वेद में परस्पर मित्रता से रहने तथा मानव समेत समस्त प्राणीमात्र के प्रति मित्रभाव की दृष्टि रखने का उपदेश दिया गया है-
मित्रस्य मा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम्।
मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे।
मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे॥42
प्राणीमात्र के प्रति मित्रभाव बढ़ने से युद्ध तथा अहिंसा में कमी आ सकती है, जिससे आणविक शस्त्रों का प्रयोग कम होकर भूमि प्रदूषण नहीं होगा।
पृथ्वी ही सृजन के लिए आधारभूत तत्व है। दृश्यमान् स्थावर-जंगम जगत् में पृथ्वी तत्व का सबके लिए अनुकूल होना आवश्यक होता है। आज का युग वैज्ञानिक युग होने के कारण उपयोग प्रधान है। इसमें पृथ्वी पर पर्यावरण की सुरक्षा बहुत प्रासंगिक है। कृषि, निवास, कल-कारखाने आदि विविध रूप से पृथ्वी पर ही आश्रित हैं। साथ ही सब प्रकार के व्यवहार कार्य भी पृथ्वी पर ही किए जाते हैं। इसीलिए प्राचीन ऋषि-मुनियों द्वारा पृथ्वी को वन्दनीया माता कहे जाने के पीछे भूमि को प्रदूषण से बचाकर उसके पर्यावरण की सुरक्षा एवं उसके सदुपयोग की मूल भावना ही व्यक्त होती है। इसी वैदिक भावना से आज भी पृथ्वी के पर्यावरण को सुरक्षित रखा जा सकता है। (क्रमशः)
सन्दर्भ-
37. यजुर्वेद संहिता 36.17
38. प्राकृतिक आयुर्विज्ञानः पृथिवीतत्व चिकित्सा,
सम्पादक डॉ. गंगाप्रसाद गौड़ एवं राकेश जिन्दल
39. यजुर्वेद संहिता 18.22
40. यजुर्वेद संहिता 18.13
41. यजुर्वेद संहिता 6.21
42. यजुर्वेद संहिता 36.18

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