विशेष :

धर्म राष्ट्र की उन्नति का साधन है

User Rating: 0 / 5

Star InactiveStar InactiveStar InactiveStar InactiveStar Inactive
 

आज प्रायः लोगों को यह कहते सुना जाता है कि आज की सामाजिक शक्ति को विघटन करने का कार्य धर्म का है अर्थात् धर्म ने ही लोगों के प्रेम को ग्रहण लगाकर छोटे-छोटे समुदायों में विभक्त कर दिया है। धर्म ही निरन्तर धार्मिक सम्प्रदायों में वैमनस्य का बीजारोपण करके परस्पर लड़ाई-झगड़ों के लिए प्रेरित करता है। जबकि वास्तविकता यह है कि धर्म वह धारक तत्व है जिसे प्रत्येक समाज के लिए धारण करना आवश्यक है।

धारणात् धर्ममित्याहु, धर्मो धारयते प्रजा। बिना धर्म के किसी समाज का अस्तित्व सन्देह के दायरे में निहित रहता है। भगवान् मनु कहते हैं-
धर्म एव हतो हन्ति, धर्मो रक्षति रक्षितः।
तस्माद् धर्मो न हन्तव्यो, मा नो धर्मो हतोऽवधीत्॥
अर्थात् अरक्षित धर्म विनाश का कारण है। इसलिए धर्म की रक्षा प्राणपण से करनी चाहिए। ऐसा समय कभी नहीं था जब कोई समाज बिना धर्म के जीवित रहा हो। धर्म मानव जाति का संचालक और हृदय है। जिस प्रकार हृदय के बिना मानव का जीवन सन्दिग्ध है, उसी प्रकार धर्म के बिना मानव और समाज का भी जीवन सन्दिग्ध है। वास्तव में धर्म एक सनातन सत्ता है, जो कि सदा से चली आ रही है। इसका प्रत्यक्ष कलाकौशल, साहित्य, विज्ञान, दर्शन आदि पर सुगमतया किया जा सकता है। सम्पूर्ण मानवीय इतिहास ऊर्ध्ववाहु होकर साक्षी दे रहा है कि संसार की कोई भी जाति या समाज धर्म के बिना नहीं रह सकती है। धर्म की भूख प्रारम्भ से ही चली आ रही है। जिस प्रकार ‘क्षीणाः जनाः निष्करुणा भवन्ति’ अर्थात् क्षुधा पीड़ित लोग उचितानुचित का विवेक बिना किए ही उदर पूर्ति कर लेते हैं, इसी प्रकार यदाकदा व्यक्ति और जाति भी धार्मिक क्षुधा निवृत्ति के लिए ऐसी मान्यताओं का प्रयोग करने लगते हैं, जो परिणामतः हानिप्रद हैं। परन्तु जिस प्रकार भोजन के बिना जीवन असम्भव है, इसी प्रकार धर्म के बिना समाज या जाति का जीवन भी निष्प्राण है। अकाल से पीड़ित मनुष्य रेत फांक लेते हैं। भूखी माताएँ कभी-कभी अपने बच्चे को भी भूनकर खा जाती हैं। परन्तु इसका यह मतलब नहीं कि अनुचित भोजन से व्यक्ति को हानि नहीं होती है। इसी प्रकार धर्म की प्रचण्ड भूख से पीड़ित समाज सत्य धर्म की अनुपलब्धि में अनेक रोमांचकारी साधनों से धार्मिक क्षुधा शान्त करने के प्रयास में हानि उठाता है। परन्तु इस बात को भी नकारा नहीं जा सकता कि बिना धर्म के कोई समाज क्षण भर भी जीवित नहीं रह सकता।

यह समझना कि धर्म देश के सामाजिक विकास में बाधक है, नितान्त हास्यापद है। वस्तुतः सच तो यही है कि धर्मविहीन समाज त्रिकाल में भी उन्नति नहीं कर सकता। जिस समय ‘धर्म’ हमारे देश का अभिन्न अंग था उस समय हमारा देश ‘विश्‍व गुरु’ जैसी गौरवमयी पदवी से विभूषित था।उस समय संविधान के आदि प्रणेता भगवान मनु ने हिमालय की सर्वोच्च शिखर से घोषणा की थी-
एतद्देश प्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः।
स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः॥
आह ! कितने सुखद होंगे वे दिन !! किन्तु जब से हमारे देश ने धर्म को तिलांजलि देना प्रारम्भ किया, हम निरन्तर पतनोन्मुख होते जा रहे हैं।

आज धर्म से घृणा के दो कारण है। एक तो धर्म के नाम पर अत्याचार तथा दूसरा फैशन या अन्धानुकरण। जब बुद्धिवादी मनुष्य देखता है कि आये दिन धर्म के नाम पर हजारों उपद्रव होते रहते हैं, लोगों को जिन्दा जला दिया जाता है, सैकड़ों निर्दोष पशुओं को मौत के घाट उतार दिया जाता है, धार्मिक संगठन परस्पर खून के प्यासे हो जाते हैं और जब सामाजिक शान्ति भंग होने लग जाती है तो उन लोगों को धर्म से घृणा होने लगती है। लेकिन इनकी धर्म से घृणा उसी प्रकार अनुचित है, जिस प्रकार भूख से पीड़ित व्यक्ति को रेत खाते देखकर भोजन से घृणा करने लगना और कहते फिरना कि मानव जीवन में भोजन बाधक है। यह अनर्गल प्रलाप के सिवाय कुछ नहीं। बुद्धिमत्ता तो इसी में थी कि रेत खाने वाले से कहा जाता है कि तुम्हारे लिए यह उपयुक्त भोजन नहीं है। इसके स्थान पर रोटी खाओ। अतः यदि पक्षपात रहित चित्त से सोचें तो ज्ञात होगा कि आज जो धर्म के नाम पर सैकड़ों अत्याचार हो रहे हैं, उनका कारण अधर्म है। अधर्म ही धर्म का चोगा पहनकर अत्याचार कर रहा है।

सत्य तो यह है कि अधिकतर झगड़े राजनीति और रोटी के नाम पर होते हैं। इसके प्रत्यक्ष उदाहरण कोर्ट-कचहरी है। निरीक्षण करने पर ज्ञात होता है कि 99 प्रतिशत मुकदमे राजनीति और रोटी के कारण हैं। अगर धर्म के नाम पर मन्दिरों में सैकड़ों बकरे मारे जाते हैं, तो विज्ञान का नाम लेकर बायलाजी की प्रयोगशाला में लाखों जीव-जन्तुओं का प्राणान्त किया जाता है। भोजन का बहाना करके करोड़ों पशुओं की गर्दन पर छुरी चलाई जाती है। के कारण इतने अत्याचार होते हैं, इसका सामाजिक बहिष्कार करो। बचाव के लिए कहा जा सकता है कि यह सच्ची राजनीति नहीं है। तो फिर धर्म के विषय में ऐसा सोचने में क्यों संकोच होता है? क्यों नहीं समझा जाता है कि धर्म के नाम पर होने वाले अत्याचार धर्म के कारण न होकर अज्ञान और अधर्म के कारण होते हैं। जो लोग धर्म के नाम पर कुकृत्य करते हैं, निरीह प्राणियों का प्राणान्त करेत हैं या सामाजिक विघटन करेत हैं वे अज्ञान व स्वार्थ से प्रेरित हैं न कि धर्म से। क्योंकि धर्मशास्त्रियों ने धर्म का जो स्वरूप निरूपित किया है, यह आचरण उसके ठीक विपरीत परिलक्षित होता है। धर्म के लक्षण हैं- यतोऽभ्युदय निःश्रेयस सिद्धि स धर्मः। (वैशेषिक दर्शन) धर्म वह होता है जिससे इस लोक में और परलोक में उन्नति हो। किन्तु अधर्म उभयविध उन्नति में नितान्त बाधक है। महाभारतकार व्यास न धर्म का स्वरूप इस प्रकार प्रस्तुत किया है-
क्षूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्॥
अर्थात् धर्म का सार ही यह है कि जो व्यवहार हम दूसरे से अपने प्रति नहीं चाहते, वैसा व्यवहार हम भी किसी के साथ न करें।

धर्म के इस एकमात्र लक्षण पर ही ध्यान केन्द्रित किया जाए, तो विदित होगा कि आज का तथाकथित धार्मिक व्यवहार धर्मजन्य नहीं हो सकता। धर्म तो वस्तुतः समाज या राष्ट्र की उन्नति का बाधक न होकर साधक है और बिना धर्म के व्यक्ति, समाज या राष्ट्र की उन्नति कदापि सम्भव नहीं है।

Religion is the means of advancement of the nation | Human history | Religious Organization | Social Exclusion | Social Development | Politics and Roti | Devout | Secular Nation | Sacrifice | Divine | Divyayug | Divya Yug