विशेष :

पुनर्जन्म

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ओ3म् पुनर्मनः पुनरायुर्म आगन् पुनः प्राणः पुनरात्मा म आगन् पुनश्‍चक्षुः पुनः श्रोत्रम्म आगन्।
वैश्‍वानरो अदब्धस्तनूपा अग्निर्नः पातु दुरितादवद्यात्॥ (यजुर्वेद 4.15)

शब्दार्थ- (मे) मुझे (मनः पुनः) मन फिर से (आगन्) प्राप्त हुआ है (प्राणः पुनः) प्राण भी फिर से प्राप्त हुए हैं (चक्षुः पुनः) नेत्र भी नूतन ही मिले हैं (श्रोत्रम् मे पुनः आगन्) कान भी मुझे फिर से प्राप्त हुए हैं (आत्मा मे पुनः आगन्) आत्मा भी मुझे फिर से प्राप्त हुआ है। अतः (मे पुनः आयुः आगन्) मुझे पुनः जीवन, पुनर्जन्म प्राप्त हुआ है। (वैश्‍वानरः) विश्‍वनायक, सर्वजनहितकारी (अदब्धः) अविनाशी (तनूपाः) जीवनरक्षक (अग्निः) परमतेजस्वी, सर्वोन्नति-साधक परमात्मा (दुरितात् अवद्यात्) बुराई और निन्दा से, दुराचार और पाप से (नः पातु) हमारी रक्षा करें।

भावार्थ- जो लोग यह कहते हैं कि वेद में पुनर्जन्म का उल्लेख नहीं है, वे इस मन्त्र को ध्यानपूर्वक पढ़ें। इस मन्त्र में पुनर्जन्म का स्पष्ट उल्लेख है। देह के साथ आत्मा के संयोग को पुनर्जन्म कहते हैं। मन्त्र के पूर्वार्द्ध में कथन है कि मुझे नूतन मन, प्राण, चक्षु, श्रोत्र और आत्मा मिला है। अतः मेरा पुनर्जन्म हुआ है। यह स्पष्ट रूप से पुनर्जन्म का वर्णन है।

मन्त्र के उत्तरार्द्ध में प्रभु से एक सुन्दर प्रार्थना की गई है कि हे प्रभो! हमें दुराचार और पाप से बचा। दुराचार और पाप से बचकर जब हम शुभ-कर्म करेंगे, तो नीच योनियों में न जाकर हमारा जन्म श्रेष्ठ योनियों में होगा अथवा हम मुक्ति को प्राप्त करेंगे। - स्वामी जगदीश्‍वरानन्द सरस्वती

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