ओ3म् असद भूम्याः समभवत् तद् द्यामेति महद् व्यचः।
तद् वै ततो विधूपायत् प्रत्यक् कर्तारमृच्छतु॥ (अथर्ववेद 4.16.6)
शब्दार्थ- (असत्) असद् व्यवहार, पाप, अधर्म (भूम्याः) भूमि से (समभवत्) उत्पन्न होता है और (तत्) वह (महत् व्यचः) बरे रूप में, अत्यन्त विकसित होकर (द्याम् एति) द्युलोक तक पहुंच जाता है फिर (ततः) वहाँ से (तत् वै) वह पाप निश्चयपूर्वक (विधूपायत्) सन्ताप कर्म करने वाले को (ऋच्छतु) आ पड़ता है।
भावार्थ- मन्त्र में पापकर्म-कर्ता का सुन्दर चित्र खींचा गया है-
1. मनुष्य पाप करता है और समझता है कि किसी को पता नहीं चला। परन्तु यह बात नहीं है। पाप जहाँ से उत्पन्न होता है वहीं तक सीमित नहीं रहता, अपितु शीघ्र ही सर्वत्र फैल जाता है।
2. फैलकर पाप वहीं नहीं रह जाता, अपितु पापी को कष्ट देता हुआ उसके ऊपर वज्र-प्रहार करता हुआ वह पापी के पास ही लौट आता है।
3. पाप का फल पाप होता है और पुण्य का फल पुण्य। उन्नति के अभिलाषी मनुष्यों को चाहिए कि अपनी जीवनभूमि से पाप, अधर्म, अन्याय और असद्-व्यवहार के बीजों को निकालकर पुण्य के अंकुर उपजाने का प्रयत्न करें। - स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती
Sin Comes Back to the Sinner | Atharvaveda | Sin | Behavior | Unrighteousness | Satisfaction | Beautiful Picture | Everywhere | Thunderbolt | Sinner | Saintly | Ambition of Advancement | Lifestyle | Vedic Motivational Speech in Hindi by Vaidik Motivational Speaker Acharya Dr. Sanjay Dev for Gandhigram - Sambhar - Sidhi | News Portal - Divyayug News Paper, Current Articles & Magazine Ganeshpur - Samrala - Singrauli | दिव्ययुग | दिव्य युग