संसार के विद्वान, बुद्धिमान व धर्मात्मा मनुष्यों का परम कर्तव्य है कि वे जानी हुई सच्चाई और अच्छाई का प्रचार करें। प्रचार के बिना अच्छाई केवल चाहने से नहीं फैलती । यह एक बहुत आवश्यक और विचारणीय विषय है। मनुष्य एक विचारशील सामाजिक प्राणी है। उस पर अच्छे और बुरे संस्कारों का प्रभाव अवश्य पड़ता है, अतः संसार को सन्मार्ग पर लाने के लिए मनुष्य का पवित्र कर्त्तव्य है कि वह शुभ विचारों का सन्देश दूसरों को देता रहे। यदि इस आवश्यक कर्त्तव्य की उपेक्षा की जाएगी तो कपिल मुनि के शब्दों में - उपदेश्योपदेष्ट्रीत्वात तत्सिसिद्धिरन्यधान्धपरम्परा (सांख्यदर्शन) - अच्छे वक्ता व श्रोता शुभ कर्मों के मार्ग को प्रशस्त करने के लिए सदविचारों के प्रचार में लगे रहते हैं तो संसार में धर्म की वृद्धि होती है, अन्यथा अज्ञान के अंधेरे में स्वार्थ-सिद्धि और भोग का वातावरण तैयार हो जाता है।
समाज में अव्यवस्था का कारण- शरीर का कोई अंग जब किसी कार्य को करने की योग्यता नहीं रखता तो वह उस कार्य को करता ही नहीं। आँख सुनने का कार्य नहीं करती। कान सूंघने अथवा चखने का कार्य नहीं करता। परन्तु मनुष्य समाज में कामनाओं के अधीन होकर मनुष्य उस कार्य को भी करने का यत्न करता है, जिसे करने की योग्यता उसमें नहीं होती और जब वह अयोग्य होने के कारण असफल होता हैं, तो उसमें ऐसे कारण खोजने लगता है, जिससे अपनी असफलता का दोष दूसरों पर आरोपित कर सके। यही समाज में अव्यवस्था का मुख्य कारण होता है।
जो मनुष्य लोगों की बातों से प्रभावित होकर अपने लक्ष्य बदलते रहते हैं, उन्हें असफलता ही मिलती है। इसलिए सफल होना है तो सबकी सुनते हुए विवेकपूर्वक निर्णय करना चाहिए। आज मनुष्य के जीवन मूल्यों में ह्रास चिन्ता के कारण नहीं है, अपितु उन कारणों से है जिनके द्वारा मनुष्य निरन्तर भाग-दौड़ में पड़कर स्वयं को भूल चुका है। आज मनुष्य विक्षिप्त और बैचेन है। उसने जीवन का एकमात्र लक्ष्य भौतिक प्रगति को मान लिया है और आध्यात्मिक पक्ष को लगभग पूरी तरह से नकार देने के कारण वह जड़ सा हो गया है। पिता घर का मस्तक है तथा माँ परिवार का हृदय है। जिस प्रकार शरीर में हृदय की उपेक्षा करने से जीवन समाप्त हो जाता है, उसी प्रकार घर में माँ की अवगणना होने से परिवार की प्रसन्नता समाप्त हो जाती है। शरीर में मस्तक की उपेक्षा से जैसे जीवन बिखर जाता है, उसी प्रकार यदि घर में पिता की अवगणना की जाये तो परिवार अस्त - व्यस्त हो जाता है।
गलत समय पर गलत बात बोलना मुसीबतों को बढ़ा सकता है। हम सभी को आत्ममंथन की जरुरत होती ही है। हम हमारे रवैये को बदलकर ही जीवन में बहुत सी मुसीबतों का सामना आसानी से कर सकते है और प्यार भरे रिश्तो को जिंदगीभर के लिये बनाये रख सकते हैं। प्रत्येक मनुष्य जो खाता,पीता, सोता और साँस लेता है, जीवित ही माना जाता है। पर सच्चे जीवन की दृष्टि से यह व्याख्या बहुत अधूरी और संकुचित है । यदि मानव-जीवन का अर्थ इतना हो मान लिया जाए तो फिर उसमें तथा अन्य पशु-पक्षियों में बहुत कम अन्तर रह जाता है ।
हर मनुष्य का अपना-अपना स्वभाव होता है। मूर्ख व्यक्ति ईर्ष्या करता है, सामान्य मनुष्य स्पर्धा करता है तथा समझदार व्यक्ति सहयोग करता है। मनुष्य के स्वभाव की पहचान उसके आचार एवं व्यवहार से होती है। (वेद मंथन)
वेद मंथन, लेखक - प्रा. भद्रसेन वेदाचार्य एवं संपादक - आचार्य डॉ. संजय देव (Ved Manthan, Writer- Professor Bhadrasen Vedacharya & Editor - Acharya Dr. Sanjay Dev) Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev | वेद कथा -1 - 4 | ईश्वर के अनेक नाम और वेद | Ishwar Ek Naam Anek | Introduction to the Vedas in Hindi