ओ3म् द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्ति सनश्ननन्यः अभिचाकशीति॥ (अथर्ववेद 9.9.20, ऋग्वेद 1, 164, 20)
शब्दार्थ- द्वा = दो जो कि सुपर्णा = अच्छे पर्ण = पालन, उड़ान के साधन वाले सयुजा = एक-दूसरे से गहरी निकटता, सम्पर्क रखने वाले सखाया = समान ख्यान = गुण, प्रखरता रखने वाले समानम् = सांझे, एक ही वृक्षम् = वास स्थल से परिषस्वजाते = वारम्बार सम्पृक्त होते हैं। तयोः = उन दोनों में से अन्यः = एक पिप्पलम् = भोग्य पदार्थ को स्वादु = चाव के साथ, रुचि से अत्ति = खाता है। अन्यः = पहले से भिन्न अनश्नन् = बिना खाए अभिचाकशीति = केवल बारम्बार स्पष्ट देखता मात्र है।
भाव - ये दो ऐसे समान स्थिति, रूप वाले हैं कि स्तर भेद से अपने-अपने पालन आदि सुन्दर कर्म करते हैं। ये दोनों कभी भी एक-दूसरे से अलग नहीं होते और गहरे मित्र हैं।
व्याख्या- ईश्वर और जीव दोनों ही सुपर्ण हैं। दोनों में ही पालन और उड़ान का सामर्थ्य है। जैसे कि ईश्वर विशाल ब्रह्माण्ड की जहाँ सुन्दर पालना कर रहा है, वहाँ वह जगत उसकी सुन्दर निर्माण कला द्वारा उसकी उत्कृष्ट उड़ान को भी प्रकट कर रहा है। जीव अपने स्तर के अनुरूप अपने शरीर, परिवार, समाज को पालने का यत्न करता है। उड़ान की दृष्टि से जीव संसार में जहाँ अच्छे से अच्छे शरीर को प्राप्त करने की सामर्थ्य रखता है, वहीं परिवार, समाज को सुन्दर, प्रगतिशील बनाने की भी सामर्थ्य रखता है। इसके साथ वह मोक्षगमन की भी उड़ान भर सकता है।
दोनों ही एक-दूसरे से सम्पृक्त होने के कारण सयुजा विशेषण वाले हैं। ईश्वर सर्वव्यापक होने से जहाँ प्रत्येक पदार्थ में व्याप्त है, वहाँ वह जीव का पड़ोसी भी है। सभी शास्त्र ऐसा प्रतिपादन करते हैं कि जीव तथा ईश्वर हृदय देश, गुहा में विराजते हैं। अतः इन दोनों की अति निकटता सिद्ध हो जाती है। ये दोनों ही आत्मा हैं। अतः आत्मीयता की दृष्टि से भी इनमें गहरी निकटता सिद्ध हो जाती है।
सखाया= समान ख्यान = प्रकाशन, प्रकटाव, गुण प्रखरता इन दोनों में है। यतो हि ये दोनों आत्मा होने के सदा विविध प्रकार की गति से अपनी-अपनी योग्यता द्वारा युक्त हैं। ग्रहण सामर्थ्य भी इनमें है। आत्मा रूप में नित्यता, अमरता अजीर्णता, अविकारिता की भी इनमें योग्यता है। हाँ, जीव शरीर से सम्पृक्त होने के कारण उसमें वे रूप प्रकट नहीं होते। अतः जीव विपरीत प्रतीत होता है।
ईश्वर अपने मित्र जीव को कभी ओझल नहीं करता। सदा ही उस पर कृपादृष्टि बनाए रखता है। वेद में अनेकत्र ईश्वर-जीव में विविध सम्बन्ध बताए गए हैं। उनमें से एक मित्र रूप का भी है। मित्र रूप परमात्मा जीव का ऐसा निकटवर्ती हितचिन्तक है कि उसको कभी ओझल नहीं करता। जीव की प्रगति अर्थात् अपनी समीपता, सदृशता की प्राप्ति के लिए ईश्वर जीव के अन्तःकरण में कर्म के विवेकार्थ शुभ के समय श्रद्धा, उत्साह, लगाव और अशुभ के समय भय, शंका, लज्जा आदि प्रकट करता रहता है, जिससे जीव सत्पथगामी बनकर प्रगति कर सके।
इन दोनों का समानम् अर्थात् एक ही वृक्ष वास स्थल, आधार, आश्रय स्थल है। अर्थात् ये दोनों अलग-अलग स्थानों पर नहीं रहते। समन शब्द एक जैसे के अर्थ के लिए है। अर्थात दोनों में एक जैसे ही गुण हैं। आश्रय स्थल को मन्त्र में वृक्ष नाम दिया गया है। वृक्षो व्रश्चनात् वृत्त्वाक्षां तिष्ठति (निरुक्त 2.2)। वृक्ष शब्द भौतिक संसार के दो गुणों को प्रकट करता है। प्रथम यह ऐसा (वृक्ष) है, जिसका कभी न कभी व्रश्चन = कटाव, विनाश अवश्य होता है और दूसरा जो भौतिक होने से किसी न किसी स्थल को अवश्य ही घेरता है। परिषस्वजाते= ये दोनों संसार से संम्पृक्त होते हैं। ईश्वर कर्तृत्व, नियमन, व्यवस्थापन आदि भाव से संसार से जुड़ता है। बारम्बार प्रवाहपूर्वक सृष्टि प्रक्रिया चलती है। जीव भोक्तृ भाव से संसक्त होता है। आत्मा शरीर आदि से जुड़कर जैसे कर्म करता है, फिर उन कर्मों के अनुरूप फल भोगने के लिए नए शरीर को धारण करता है। आत्मा के नित्य होने से यह क्रम आगे से आगे चलता रहता है। इसी बात को मन्त्र में आगे और भी स्पष्ट किया गया है।
तयोः अन्यः = उन दोनों में से एक जीव पिप्पलम् अर्थात् स्थूल रूप को प्राप्त भोग्य पदार्थों वाले संसार को स्वादु-अत्ति = चाव से, रुचिपूर्वक, विषय वासना की भावना से खाता है, अपने भोग में लाता है। प्रकृति सूक्ष्मतम है। वह के पश्चात् स्थूल रूप में आ जाती है। तब वह आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथिवी नामक पाँच स्थूल भूतों में परिणत हो जाती है। इन्ही पाँच भूतों से हमारे भोग में आने वाले सारे भौतिक पदार्थ बनते हैं। इनका भोक्ता जीव इनका बड़ी रुचि से सेवन करता है। जब जीव इनका मर्यादापूर्वक सेवन करता है, तो शुभ गति को प्राप्त होता है। जब वह स्वार्थ, लोभवश नियम तोड़कर सेवन करता है तो उसके परिणामस्वरूप निम्न गति को प्राप्त होता है।
अनश्नन् ÷अन्यः अभिचाकशीति। जीव से भिन्न ईश्वर भोक्ता की तरह पदार्थों को बिना भोग में लाए केवल देखता भर है। कर्मफल व्यवस्था को चरितार्थ करने के लिए वह न्यायकारी प्रत्येक कर्म कर्त्ता के कर्म को अपनी सर्वज्ञता से प्रत्यक्ष की तरह देखता है। कर्मकर्ता जब कर्म को करता है, तभी ईश्वर सर्वव्यापक होने से यथावत् रूप से देखता रहता है। कर्मफल व्यवस्था को परिणत करने के लिए सर्वस्रष्टा जगत की रचना करता है। जीव प्रगति या अवनति की स्थिति में किए गए कर्मानुसार विविध योनियों में यहाँ जगत में आते-जाते हैं। कभी प्रगति करते हुए मोक्ष की ओर बढ़ने का सामर्थ्य रखने वाले जीव मनुष्य कलेवर को प्राप्त करते हैं, तो कभी अवनति की दिशा में जाते हुए पशु-पक्षी-कृमि आदि की काया में विविध कष्टमयी पराधीनताओं को प्राप्त होते हैं। (वेद मंथन)
वेद मंथन, लेखक - प्रा. भद्रसेन वेदाचार्य एवं संपादक - आचार्य डॉ. संजय देव (Ved Manthan, Writer- Professor Bhadrasen Vedacharya & Editor - Acharya Dr. Sanjay Dev) Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev | वेद कथा - 1 | मरने के बाद धर्म ही साथ जाता है | Introduction to the Vedas in Hindi | Ved Katha Hindi