विशेष :

प्रभु सर्वरक्षक हैं

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ओ3म् इमं मे वरुण श्रुधि हवमद्या च मृडय।
त्वामवस्युराचके ॥ ऋग्वेद 1.25.19॥

शब्दार्थ- वरुण = हे वरणीय = सर्वश्रेष्ठ देव! मे = मेरी इयम् = इस, प्रस्तुत हवम् = पुकार को श्रुधि = सुनिए। च = और अद्य = आज ही मृडय = सुखी बनाइए । अवस्युः = रक्षा चाहने वाला मैं त्वाम् = तुझको आचके = बारम्बार पुकारता हूँ।

व्याख्या- वरुण! मे इमं हवं श्रुधि। हे वरुण ! आप ही सबसे श्रेष्ठ, सर्वेत्तम देव हैं। तभी तो सभी सदा सभी स्थानों पर आपको ही वरते हैं, चाहते हैं। इस संसार में एक से एक उत्तम जल, वायु, सूर्य जैसे उपयोगी पदार्थ हैं, जिनके बिना हमारा जीवन नहीं चलता है। इन भौतिक पदार्थों की व्यवस्था पर जब हम विचार करते हैं, तब हम यह अनुभव करते हैं कि ये सारे प्राकृतिक पदार्थ अपनी-अपनी व्यवस्था में बन्धे हुए अपनी श्रेष्ठता से आपकी ही श्रेष्ठता को बता रहे हैं। इसीलिए मैं आपकी उत्कृष्टता को अनुभव करके आपसे प्रार्थना करता हूँ कि- च अद्य मृडय। आप मेरी इस पुकार को सुनिए। मेरे इस बुलावे को सुनकर आज ही मुझे सुखी कर दीजिए। मैं आगे से किसी प्रतीक्षा में न रहूँ। निःसन्देह आपने हमारे लिए एक से बढकर एक भौतिक सुखों की देन दी है। पर आज मैं अपने हृदय के भावों को लेकर पुकार कर रहा हूँ। मेरे हृदय में उभरे इन भावों को अपनी अनुभूति से भावविभोर, अभिभूत कर दीजिए। आपके अनुभव का सुख ही सबसे बढ-चढकर है। अतः इस समय इसी सुख से सुखी करो।

अवस्युः त्वाम् आचके। मैं तो कब से आपसे रक्षा की पुकार कर रहा हूँ। मैं तो सदा सर्वत्र आपकी शरण में आने की इच्छा रखता हूँ। अतः केवल और केवल आपको ही पुकार रहा हूँ। सर्वव्यापक, सर्वसामर्थ्य से भरपूर होने से आप ही सबके रक्षक हैं। आपकी सर्वगुणसम्पन्न शक्ति अपरम्पार है। तभी तो सभी सदा सर्वत्र आपको ही चाहते हैं, पुकारते हैं।

हमारे जीवन में यदा-कदा अनेक प्रकार की समस्याएँ आती हैं। कुछ आन्तरिक अर्थात मन-बुद्धि में उभरती हैं, तो कुछ शारीरिक और सामाजिक होती हैं। इन परिस्थितियों से हम व्याकुल हो जाते हैं, जिससे हम कई बार अन्तः या बाह्य स्तर पर झिझक जाते हैं, आशंकित हो उठते हैं। तब हमें कई तरह का डर आ घेरता है। कभी-कभी भयवशात् हम कई प्रकार की बचाव की बातें सोचते हैं तथा बचाव के कई प्रकार के उपाय करते हैं। ऐसी स्थिति में हम हर स्तर पर रक्षा की चाहना रखते हुए कई प्रकार के यत्न करते हैं।

यह भय कई प्रकार का हो सकता है। कभी किसी को हम अपने से अधिक शक्तिवाला मानकर उससे भय अनुभव करते हैं। कभी दूसरों के संख्या-सत्ताबल या धनबल को देखकर घबरा जाते हैं। कभी हमें अपनी गलतियाँ, अपने अपराध, दोष, विकार, पकड़े जाने की भावना बेचैन कर डरा देती है। कभी अकेले होने के कारण हम डरकर रक्षा चाहते हैं और कहीं दूसरों को देखकर भयग्रस्त होते हैं। इन विविध विपदाओं में हे सबके सहारे! आप ही हमारी रक्षा करने में सदा-सर्वत्र समर्थ रहते हैं। मैं सर्वथा अनेक प्रकार से अल्प, अल्पज्ञ, सीमित शक्ति-गति-मति-धृति वाला हूँ। अतएव यत्र-तत्र-सर्वत्र दूसरों पर निर्भर हो जाता हूँ। हे सर्वशक्तिमान ! आप सदा, सर्वत्र, समर्थ, सक्षम, सर्वज्ञ, असीमित हैं। अतः आपसे ही सर्वत्र सदा रक्षा की, बचाव की चाहना रहती है। आप ही मेरी चाहना को पूर्ण करते हैं। हमारे सारे के सारे रक्षा के उपाय अधूरे ही होते हैं। हे सर्वसामर्थ्य वाले ! आप ही हममें भरोसा भरो। हमें हर स्थिति में रक्षा का विश्‍वास दो। अन्यथा मैं भय से भटककर किधर का भी ना रहूँगा। (वेद मंथन)

वेद मंथन, लेखक - प्रा. भद्रसेन वेदाचार्य एवं संपादक - आचार्य डॉ. संजय देव (Ved Manthan, Writer- Professor Bhadrasen Vedacharya & Editor - Acharya Dr. Sanjay Dev) Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev | भारत महान क्यों है | मेरा प्यारा भारत देश | वेद कथा -1.3 | गौरवशाली भारत - 3 | Greatness of India