ओ3म् यथाहान्यनुपूर्वं भवन्ति यथर्तव ऋतुभिर्यन्ति साकम्।
यथा न पूर्वमपरो जहात्येवा धात्रायूंषि कल्पयैषाम्॥ (अथर्ववेद 12.2.25)
(यथा अहानि) जैसे दिन (अनुपूर्वं भवन्ति) क्रमशः होते हैं, (यथा ऋतवः) जैसे ऋतुएं (ऋतुभिः साकं यन्ति) ऋतुओं के साथ चलती हैं, (यथा अपरः) जैसे बाद वाला (पूर्वं न जहाति) पूर्ववर्ती को नहीं छोड़ता है, (एव धातः!) उस प्रकार हे धाता! (एषां आयूंषि कल्पय) इनकी आयुओं की तुम योजना करो।
काल की दृष्टि में नया-पुराना कुछ नहीं है। जो आज नया है वह कल पुराना हो जाता है। भूत-वर्तमान, प्राचीन-नवीन, इसलिए, बस, होते रहते हैं। व्यवहार की दृष्टि से जरूर प्राचीन-नवीन का भेद मानना होता है। इस मन्त्र में इसीलिए दिन-रात के आनुपूर्ण्य की, ऋतुओं के आनुपूर्ण्य की बात कही गई है। दिन-रात क्रम से आते-जाते हैं, ऋतुएं ऋतुओं के साथ आती जाती हैं। इसी क्रम से ‘पूर्व को अपर नहीं छोड़ता’ न पूर्वम् अपरो जहाति। इस पंक्ति का सूक्त के सन्दर्भ में अर्थ होगा, वृद्ध के पीछे तरुण चलें। पूर्वजों को नवीन (पुत्र आदि) नहीं छोड़ें। वेद में आयु की पूर्णता शतवर्ष मानी गई है। उससे पूर्व कोई अकाल मौत न मरे। इसीलिए धाता से मन्त्र के अन्त में प्रार्थना है, आयूंषि कल्पयैषाम्। इन (मनुष्यों) की आयुओं को निरन्तर बढ़ाओ। वेद जीवन का काव्य है, आगे बढ़ने का काव्य है, स्वास्थ्य का काव्य है, आशा का काव्य है। मृत्यु, पीछे लौटने, रुग्णता या निराशा की बात यहाँ कभी नहीं मिलेगी।
प्रश्न उठता है कि द्वन्द्वमयी पृथिवी पर जहाँ उदयास्त, दिन-रात, सुख-दुःख, धूप-छाँव सदा रहते हो वहाँ मात्र एकरसता या एक भाव की बात वेद कैसे कर पाता है? माना कि जीवन में द्वैधीभाव वर्तमान रहता है, पर सकारात्मक सोच और आशावादी दृष्टिकोण जीवन में प्राप्त वरदानों को ही महत्व देता है, अभिशापों को नहीं।
मन्त्र की उपरि लिखित पंक्ति न पूर्वम् अपरो जहाति को सामाजिक सन्दर्भों में, संस्कृति और सभ्यता के सन्दर्भों में भी समझा जा सकता है। यह एक व्यावहारिक व अत्यन्त उपयोगी शिक्षा है, जिसके अनुसार नवीनता को अंगीकार करते हुए प्राचीनता को भी न छोड़ा जाए। प्रतिमान के लिए दिन-रात तथा ऋतु-परिवर्तन को रखा गया है। दिन के बिना रात और रात के बिना दिन नहीं रह सकता। एक ऋतु के बिना दूसरी ऋतु का विकास नहीं हो सकता। अटूट शृंखलाएं हैं ये, जिनमें से किसी एक को निकालकर नहीं रख सकते। यह सिद्धान्त संस्कृति और सभ्यता दोनों पर लागू होता है। प्राचीन संस्कृति से नव्या संस्कृति विकसती है, ठीक वैसे ही जैसे मूल से शाखाएं, पत्र-पुष्प आदि। पर शाखा, पत्र, पुष्प आदि के पाने के लिए मूल का सेचन जरूरी होता है। मूल के नाश से सम्पूर्ण वृक्ष का नाश हो जाता है। वैसे भी कुछ सांस्कृतिक मूल्य शाश्वत होते हैं। वे हर युग में प्रासंगिक भी रहते ही हैं। शेष सब जीर्ण पत्रों की तरह झरता रहता है। नव्यता की चाह भी मनुष्य की सहज इच्छा होती है। इसलिए प्राचीनता के साथ-साथ नवीन को ग्रहण किया ही जाता है। यही बात सम्यता के सम्बन्ध में है। संस्कृति का सम्बन्ध यदि आत्मा से है तो सभ्यता का शरीर से। धर्म, उत्सव, पर्व, कलाएं यदि संस्कृति के अंग हैं तो भोजन, खान-पान, रहन-सहन सभ्यता के। समय के साथ इनमें परिवर्तन अपेक्षाकृत बहुत तेजी से आता है। फैशन की बात सोचें तो पाएंगे कि यहाँ तो परिवर्तन एक ध्रुव नियम है। हर रोज बदलते हैं परिधान। और आज परिधान के भीतर केवल वस्त्र नहीं आते, अन्य साज-सज्जा के साधन जूते, चप्पल, शृंगार के उपकरण, सभी तो संग्रहीत हो जाते हैं। तभी तो फैशन डिजायनिंग जैसे पाठ्यक्रमों की प्रतिष्ठा बढ़ती जाती है। पर एक आश्चर्यजनक तथ्य है यह कि फैशन के संसार में पुरानी से पुरानी चीज नई शैली में स्वीकृत हो जाती है। तभी तो पारम्परिक परिधान, अलंकरण, ठेठ गाँव-गंवई गहने ‘एथनिक’ माने जाने लगे हैं।
खैर, जो भी हो भाव यही है कि नए-पुराने में कोई बैर है ही नहीं, होना भी नहीं चाहिए। पुराने के प्रति न अतिरिक्त मोह ही अच्छा, न उसकी बिलकुल उपेक्षा ही उचित है। यही बात नए के सम्बन्ध में भी है। कालिदास ने भी इस वैदिक मन्त्र के भाव को मालविकाग्निमित्रम् नाटक के आरम्भ में (1.2) बड़ी कुशलता से अभिव्यक्त किया है-
पुराणमित्येव न साधु सर्व,
न चापि काव्यं नवमित्यवद्यम्॥
अर्थात् पुरातन या नवीन होने से कोई काव्य उत्कृष्ट या साधारण नहीं हो जाता। पुराने सांस्कृतिक मूल्यों के सम्बन्ध में यदि आज का यथार्थवादी इस युग के सबसे कर्मठ यथार्थदर्शी लेनिन के शब्दों को याद रख सके तो बहुत उपकार होगा, “हमें जो सुन्दर है उसे ग्रहण करना, आदर्श के रूप में स्वीकार करना और सुरक्षित रखना चाहिए, चाहे वह पुराना हो। केवल पुरातन होने के कारण वास्तविक सौन्दर्य से विरक्ति क्यों और नवीन के विकास के लिए उसे सदा को त्याग देना अनिवार्य क्यों? जिसका अनुसासन मानना ही होगा, ऐसे देवता के समान नवीनता की पूजा किसलिए? यह तो अर्थहीन है, नितान्त अर्थहीन।’’ (लेनिन द मैन, अंग्रेजी से अनूदित) अतीत और वर्तमान के आदान-प्रदान से ही जीवन-यात्रा सुचारु रूप से चल सकती है। - डॉ. प्रवेश सक्सेना
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