कुण्ठा मनुष्य को कुण्ठित कर देती है। मन का उत्साह मार देती है कुण्ठा। मन मरा तो मनुष्य मरा सा ही जानो। अतः कुण्ठा से बचना है।
वि-कुण्ठा जीवन है, उच्छलता, मचलता, लहराता जीवन। हर काम के लिए उत्साह, हर नए विचार को करके देखने की उमंग। वि-कुण्ठा जीवन का उभार है। आगे बढ़ो, ऊँचे चढ़ो। वह देखो, नया शिखर सामने, दूर क्षितिज पर न जाने कहाँ से उभर आया है। तुम्हें चुनौती दे रहा है कि बस, थक गए! दम बाकी है तो चढ़ो मुझ पर। बढ़ो मेरी ओर आओ मेरे पास। और मन कहे, अच्छा! यह बात है। तो ले, अभी धरता हूँ अपना पैर तेरे सिर पर।
मन मरा रहे, इससे तो उसका नटखट नारायण होना अच्छा। जो कदम आज नटखटपने में उठ रहा है, कल वह पाप के मुकाबले में बढ़ तो सकेगा, यदि चाहे तो। पर पैरों में दम ही न हो, मन में साहस न हो तो पुण्यात्मा होकर भी क्या कर पाओेगे? घुटा करोगे।
अतः निर्-द्वन्द्वो नित्य सत्वस्थः होकर अपने अदम्य आत्मा से कह दो, करिष्ये वचनं तव। अपने शिशुत्व को सदा बनाए रखो, ताकि जीवन एक खेल, एक लीला बना रहे। खेल में न भय है, न थकान है। अहम् इन्द्रो, न पराजिग्ये। मैं इन्द्र हूँ, मैं पराजित नहीं होता हूँ। अपने इस स्वरूप को कभी न भूलो। इन्द्र? इन्द्र क्या होता है? तो सुनो, इन्द्र होता है इन्द्रियों का स्वामी, परम स्वामी। इन्द्रियाँ कठपुतली बनी नाचती हैं उसके डोर खींचने पर। सूत्रधर है वह। इन्द्रियों से हार रहे हैं आप? इन्द्रियों ने गुलाम बना दिया है आपको। नहीं, यह स्थिति अधिक चलने वाली नहीं है। इन्द्रियों के स्वामी तो आप हैं? ‘आप’ कौन? आप=आप्त=पहुँचा हुआ। कहाँ पहुंचा हुआ? मंजिल पर सदा से पहुँचा हुआ कौन है? आप=आत्मा। अतः आप तो आत्मा हैं। आत्मा ‘परम’ ईश्वर है। ‘परम’ ईश्वरता जिसकी हो वही तो ’इन्द्र’ होता है। (‘इद्’=परमैश्वर्य, धातु)।
इन्द्र तो शक्ति का पुतला होता है। प्राणपुञ्ज है इन्द्र। जोड़-तोड़ करता है। अपने श्वास को देखते हो? कैसा एक लय में अन्दर से बाहर, बाहर से अन्दर चल रहा है! अन्दर का कलुष बाहर फेंककर, बाहर से लेकर अन्दर ऊर्जा भरे दे रहा है। श्वास न हो तो आत्मा अलग, शरीर अलग। सारा करिश्मा प्राण का है। यह इन्द्र ही तो है। अ-थक, निर्-विश्रम, निर्-अन्तर, निर्लेप-निर्मम-निरासक्त-निर्विषयः इन्द्रत्व यही है।
इन्द्र में कुण्ठा नहीं होती। वह ‘वैकुण्ठ’ है, वैकुण्ठनाथ है। वैकुण्ठ इन्द्र में ऋषित्व होता है। उसकी ज्ञानदृष्टि, उसका विवेकनेत्र सब कुछ देख, समझ रहा होता है। वह देवत्व के शिखर को पाए हुए है। पा सकता है और भी शिखरों को।
इन्द्र का इन्द्रत्व कितने ही रूपों में प्रकट होता है। धरती के एक से एक बढ़कर महापुरुषों को निहारो। सब अलग-अलग पर सबमें एक बात समान मिलेगी ‘महा’-पुरुषता, ‘महा’-प्राणता, ‘महत्’-ता। शंकर हो या राणा प्रताप, परशुराम हो या भामाशाह, प्रत्येक में कोई न कोई गुण ‘परम’ होता है। यह ‘परम’ कोटि की ईश्वरता उन्हें इन्द्र बनाए हुए है। कुछ नमूने देखिए।
1. जिनमें इन्द्रत्व होता है वे इष्=विश्वेश्वर की इच्छा में रहते हैं। राजी हैं उसी में जिसमें तेरी रजा है, यह उनकी आन्तरिक आत्म-धरा होती है। मैं कर रहा हूं, यह भाव उनमें नहीं होता। विधाता ने धरती पर भेजा है तो किसी प्रयोजन से उसने ऐसा किया होगा। उस प्रयोजन को अपने जीवन का प्रयोजन समझो। पहचानो, समझो उस प्रयोजन को। और उसकी पूर्ति में लगे रहो। इसी में जीवन की धन्यता है। जिस देश, काल, परिस्थिति में हो, उसको कोसो नहीं, वहाँ जो कर्त्तव्य की दक्षिणा इन्द्र मांग रहा है वह उसे अर्पित करो। यह ब्राह्मणत्व है, संन्यास है, अनासक्तियोग है, बुद्धियोग है।
2. जिनमें इन्द्रत्व होता है उन्हें इन्द्र की सु-मति प्राप्त रहती है। इन्द्र की मति सदा ‘सु’ होती है। इस ‘सु’ मति से जीवन सुन्दर बनता है, सहज, सरल, वैकुण्ठ (कुण्ठा रहित) बनता है, गुलाब की कली जैसा मासूम, भोला। महापुरुष वे ही नहीं होते जिनका इतिहास में नाम हो जाए। धरती के चप्पे-चप्पे पर ‘महा’-पुरुष सदा मिल जाएंगे। वे अपने आप में, अपने से धन्य हैं। जो उन्हें जानेगा, पहचानेगा उसका भाग्योदय हुआ जानो। पर उन्हें किसी ने न जाना तो घाटा तो उसका हुआ, उनका नहीं।
3. ऐसे इन्द्र से न जाने कितनों को प्रेरणा मिल जाती है। दीप किसी को ज्योति देता नहीं, पर सबको मिल जाती है। इन्द्र तो ‘असु’ में रमा रहता है (असु-र)। उसमें तो ज्योति, शक्ति (वाज) भरी पड़ी है और सर्वत्र फूटी पड़ रही है। जिसे चाहिए, ले लो।
4. इन्द्र में पौरुष मानो कूट-कूटकर भरा होता है। उनके सम्पर्क में आने वाला पौरुष का स्पर्श पा लेता है। यह पौरुष क्या है? मानो जल की धारा हो, उर्वरा। जहाँ से गुजर जाएगी वहीं पौरुष का बीज अंकुरित हो जाएगा। सुप्त मनों को पौरुष से, उत्साह-उमंग-ऊर्जा से अपने को भर लेने का अवसर मिल जाता है।
अतः हम अपने वैकुण्ठ इन्द्रत्व को उभारने के लिए क्या करें? कुछ नहीं, बस, इन्द्र को पहचानना और अवसर से लाभ उठाना सीखें। इन्द्र ही ‘नर’-नायक होता है। इतिहास के नर-नायकों को देखो और सीख लो। अपने में निहित नर-नायक को प्रकट होने दो। निरहंकार, विवेकमय, आत्मबलोपेत, कर्मठ व्यक्तित्व ही अपना असली रूप है, उसे समझो, पहचानो, उभरने दो। ऐसी ही संगति करो जिससे इस ऐन्द्र व्यक्तित्व को उभरने में सहायता मिले। बात मत कर उनसे जो तेरा साहस और उत्साह तोड़ें। सत्य निष्ठा से रे साधक, तू किए जा काम अपना। - अभयदेव शर्मा
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