ओ3म् सदा व इन्द्रश्चर्कृषदा उपो नु स सर्पयन्।
न देवो वृतः सूर इन्द्रः॥ साम. पू. 3.1.1.3॥
ऋषिः प्रगाथः काण्वः॥ देवता इन्द्रः॥ छन्दः गायत्री॥
विनय- हे मनुष्यो ! तुम अपने परमात्मा से प्रेम क्यों नहीं करते? जहाँ हरिकथा होती है वहाँ से तुम भाग आते हो। बार-बार प्रभु-चर्चा होती देखकर तुम ऊबते हो, जबकि विषयों की चर्चाएँ सुनने के लिए सदा लालायित रहते हो। तुम्हें उस अपने पिता से इतना हटाव क्यों हैं? तुम चाहे जो करो, वह देव तो तुम्हें कभी भुला नहीं सकता। वह तो तुम्हें प्रेम से अपनी ओर आकर्षित ही कर रहा है, सदा आकर्षित कर रहा है, निरन्तर अपनी ओर खींच रहा है। तुम जानो या न जानो, पर वह अत्यन्त समीपता के साथ माता की भाँति तुम-पुत्रों की निरन्तर परिचर्या भी कर रहा है। वह परमेश्वर हमारे रोम-रोम में रमा हुआ, हमारे एक-एक श्वास के साथ आता-जाता हुआ, हमारे मन के एक-एक चिन्तन के साथ तद्रूप हुआ-हुआ और क्या कहें, हमारी आत्मा की आत्मा होकर, एक अकल्पनीय एकता के साथ हमसे जुड़ा हुआ है। हमें संसार में जो कुछ प्रेम, आराम, वात्सल्य, भोग, सेवा, सुख मिल रहा है वह किन्हीं इष्ट-मित्रों या प्राकृतिक वस्तुओं से नहीं मिल रहा है। वह सब हमारे उस एक अनन्य सम्बन्धी परम दयालु प्रभु से ही मिल रहा है। वह केवल हमें अपनी ओर खींच ही नहीं रहा है, अपितु अति समीपता से निरन्तर हमारी सेवा भी कर रहा है, प्रेम-प्रेरित होकर हमारी सेवा कर रहा है। हमारा पालन, पोषण, रक्षण, दुःखनिवारण आदि सब परिचर्या कर रहा है। अरे! वह तो कहीं छिपा हुआ भी नहीं है। उसके और हमारे बीच में कोई भी आवरण नहीं है। उसे ढका हुआ, आच्छादित भी कौन कहता है?
हे मनुष्यो! सच बात तो यह है कि यदि हम उसके इस प्रेमाकर्षण को जानने लग जाएँ कि वे प्रभुदेव सदा प्रेम से हमें अपनी ओर खींच रहे हैं, यह हम सचमुच अनुभव करने लग जाएँ, तो हमें यह भी दिख जाए कि वे हमारे अत्यन्त निकट हैं और अत्यन्त निकटता के साथ हमारी सेवा-शुश्रूषा कर रहे हैं और फिर एक दिन हमें यह भी दिख जाए कि वे सब ब्रह्माण्ड के रचयिता महापराक्रमी इन्द्र प्रभु, जिनके विषय में परोक्षतया हम इतनी बातें सुना करते थे, वे हमसे किसी आवरण से ढके हुए भी नहीं हैं। वे प्रत्यक्ष हमारे सामने हैं और यह दिख जाना ही परमात्मा का साक्षात्कार करना है, परम प्रभु को पा लेना है।
शब्दार्थ- हे मनुष्यो! इन्द्रः=परमेश्वर वः=तुम्हें सदा=सदैव आचर्कृषत्=अपनी ओर आकर्षित कर रहा है। सः=वह नु=निःसन्देह उप उ=समीप ही, समीपता के साथ सपर्यन्=तुम्हारी सेवा करता हुआ विद्यमान है। शूरःइन्द्र देवः=वह महापराक्रमी इन्द्रदेव वृतः=ढका हुआ, आच्छादित न=नहीं है। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार
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