ओ3म् नामानि शतक्रतो विश्वाभिर्गीर्भिरीमहे।
इन्द्राभिमातिषाह्ये॥ ऋग्वेद3.37.3, अथर्व. 20.19.3॥
ऋषिः गाथिनो विश्वामित्रः॥ देवता इन्द्र ॥ छन्दः गायत्री॥
विनय- हे परमेश्वर! मुझे यह वाणी तेरे नामोच्चारण के लिए ही मिली है। मैं निरन्तर तेरे पवित्र नामों का उच्चारण करता रहता हूँ। तेरी दी हुई इस वाणी से मैं अन्य कुछ कर ही नहीं सकता। कोई भी निरर्थक बात, कोई भी अनीश्वरीय बात मेरी वाणी से नहीं निकल सकती। मेरे एक-एक कथन में तेरी ही धुन होती है, तेरा ही निवास होता है। हे इन्द्र! मैं इस प्रकार अपनी सब वाणियों से नानारूप में तेरे ही नामों का कीर्त्तन करता रहता हूँ। यदि मैं ऐसा न करूँ तो मैं अपने शत्रुओं को कैसे पराजित कर सकूँ? उनसे कैसे रक्षित रहूँ? तेरा पवित्र नामोच्चरण करता हुआ ही मैं निरन्तर सब शत्रुओं पर विजयी हुआ हूँ और हो रहा हूँ। मेरा सबसे बड़ा शत्रु ‘अभिमाति’ है, अभिमान है। आजकल इस महाशत्रु को मार डालने के लिए विशेषतया तेरा नाम मेरा महा-अस्त्र हो रहा है। जब मनुष्य के काम-क्रोध आदि अन्य शत्रु जीते जा चुके होते हैं, मनुष्य आत्मिक उन्नति की ऊँची अवस्था को पहुँचा होता है, तब भी यह अभिमान, अस्मिता, अहंकार मनुष्य का पीछा नहीं छोड़ता। यही है जो अविद्या का कुछ अंश शेष रहने तक भी आत्मा का मुकाबला करता रहता है। यही है जो कि हे मेरे परमेश्वर! मुझे अन्त तक तुमसे जुदा किए रहता है। जब मनुष्य खूब उन्नत हो जाता है, तब उसे और कुछ नहीं तो अपनी उन्नतावस्था का, अपने पुण्यात्मा होने का अभिमान हो जाया करता है। यह अभिमान ही मनुष्य को बिल्कुल पतित कर देने के लिए पर्याप्त होता है। इसीलिए हे शतक्रतो! हे अनन्तवीर्य! हे अनन्तप्रज्ञ! इसीलिए मैं निरन्तर तेरे नाम को जपता रहता हूँ, जीभ पर तेरा परमपवित्र नाम रक्खे फिरता हूँ। जब जरा भी अभिमान मन में आता है कि “यह बड़ा भारी काम मैं कर रहा हूँ’’, “यह मैंने किया’’ तो तुरन्त मेरे हाथ जुड़ जाते हैं और मुख से तेरा नाम निकल पड़ता है। इस तरह इस महाशत्रु से मेरी रक्षा हो जाती है। तेरा नाम मुझे तुरन्त नमा देता है। तेरा स्मरण आते ही मैं अवनत-शिर होकर भूमि पर मस्तक टेक देता हूँ। तब उस महाबली अभिमान को क्षणभर में विलीन हो चुका पाता हूँ, चारों ओर कोसों दूर तक उसका पता नहीं होता, सब पृथिवी पर तुम ही तुम होते हो और मैं तुम्हारे चरणों में। मैं उस समय तेरे पृथिवीरूप विस्तृत चरणों में लगी हुई धूल का एक परम तुच्छ कण बनकर निरभिमानता के परम-पावन सात्त्विक सुख का उपभोग पाता हूँ। हे नाथ ! तेरे नाम की अपार महिमा का मैं क्या वर्णन करूँ!
शब्दार्थ- शतक्रतो=हे अनन्तकर्म! हे अनन्त प्रज्ञ! विश्वाभिः गीर्भिः=मैं अपनी सब वाणियों से ते नामानि=तेरे नामों को ईमहे=लेता रहता हूँ। इन्द्र=हे परमेश्वर! अभिमातिषाह्ये=शत्रु का, अभिमानरूपी शत्रु का पराभव करने के लिए तेरा नाम लेता हूँ। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार
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