ओ3म् जुहुरे चितयन्तोऽनिमिषं नृम्णं पान्ति।
आ दृळहां पुरं विविशुः॥ ऋग्वेद 5.11.2॥
ऋषिः आत्रेयो वव्रिः॥ देवता अग्निः॥छन्दः गायत्री॥
विनय- एक नगर है जो कि बिलकुल दृढ़ है, अभेद्य है। इसमें पहुंच जाने पर हम पर किसी भी शत्रु का आक्रमण सफल नहीं हो सकता। क्या कोई उस स्थान पर पहुँचना चाहता है? वहाँ पहुँचने का मार्ग कुछ विकट है, कड़ा है, आसान नहीं है। वहाँ पहुँचने वालों को ज्ञानपूर्वक स्वार्थ-त्याग करते जाना होता है और सदा जागते हुए अपने ‘नृम्ण’ की, आत्म-बल की रक्षा करते रहना होता है। ये दो साधनाएँ साधनी होती हैं। कई लोग अपने कर्त्तव्य व उद्देश्य का बिना विचार किये यूँ ही जोश में आकर ‘आत्म-बलिदान’ कर डालते हैं। ऐसा करना आसान है, पर यह सच्चा बलिदान नहीं होता। इससे यथेष्ट फल नहीं मिलता। इस पवित्र उद्देश्य के सामने अमुक वस्तु वास्तव में तुच्छ है, इसलिए अब इस वस्तु को स्वाहा कर देना मेरा कर्त्तव्य है, इस प्रकार के स्पष्ट ज्ञान के बिना आत्म-बलिदान के नाम से वे आत्मघात कर रहे होते हैं। वहाँ पहुँचने के लिए तो आत्मा का घात नहीं, किन्तु आत्मा की रक्षा करनी होती है। हम लोग प्रायः क्रोध करके, असत्य बोलकर, इन्द्रियों को स्वच्छन्द भोगों में दौड़ाकर अपना आत्म-तेज, आत्मवीर्य, आत्मबल खोते रहते हैं, पर धीर पुरुष अपने इस ‘नृम्ण’=आत्मबल की बड़ी सावधानी से, सदा जागरूक रहते हुए बड़ी चिन्ता से रक्षा करते हैं। वे पल-पल में अपनी मनोगति पर भी ध्यान रखते हुए देखते रहते हैं कि कहीं अन्दर कोई आत्मबल का क्षय करने वाला काम तो नहीं हो रहा है। इस प्रकार रक्षा किया हुआ आत्मबल ही उस दृढ़ पुरी में पहुँचाने वाला है। वास्तव में ये दोनों साधनाएँ एक ही हैं। यदि हम इनके इस सम्बन्ध पर विचार करें कि ऐसे लोग आत्मबल की रक्षा करने के लिए शेष प्रत्येक वस्तु का बलिदान करने को उद्यत रहते हैं और ये सदा इतने सत्य के साथ आत्मबलिदान करते जाते हैं कि उनके प्रत्येक आत्मबलिदान का फल यह होता है कि उनका आत्मबल बढ़ता है। आओ! हम भी आत्महवन करते हुए और आत्मबल की रक्षा करते हुए चलने लगें तथा उस मार्ग के यात्री हो जाएं जोकि अभयता, अजातशत्रुता, अमरता और अभेद्यता की दृढ़ पुरी में पहुँचाने वाला है।
शब्दार्थ- जो वि चियन्तो जुहुरे=ज्ञानपूर्वक स्वार्थ-त्याग करते हैं और अनिमिषं नृम्णं पान्ति=लगातार जागते हुए अपने आत्मबल की रक्षा करते हैं ते=वे दृळहां पुरम्=दृढ़-अभेद्य नगरी में आविविशुः= प्रविष्ट हो जाते हैं। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार
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