विशेष :

हे शक्ति के स्वामी

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shakti ke swami

ओ3म् शिक्षेयमस्मै दित्सेयं शचीपते मनीषिणे।
यदहं गोपतिः स्याम्॥ ऋग्वेद 8.14.2, साम. उ. 9.2.9, अथर्ववेद 20.27.2

ऋषिः गोषूक्त्यश्‍वसूक्तिनौ काण्वायनौ॥ देवता इन्द्रः॥ छन्दः विराड्गायत्री ॥

विनय- हे शचीपते! हे शक्ति के स्वामी! तुम सर्वोत्कृष्ट ज्ञानमयी शक्ति के स्वामी हो और परिपूर्ण होने के कारण अपनी इस शक्ति का जगत् के पालन-पोषण में परिपूर्णतया ही सदुपयोग कर रहे हो। परन्तु मैं यद्यपि अपूर्ण जीव हूँ, तो भी मुझे अपनी शक्ति का सदा पूरा सदुपयोग ही करने में यथाशक्ति तुम्हारा अनुकरण करना चाहिए। इसलिए मैं चाहता हूँ और संकल्प करता हूँ कि यदि मैं ‘गोपति’ होऊँ, सच्चा वैश्य बनकर भूमि, गौ, धन का (वैश्यशक्ति का) स्वामी होऊँ तो मैं इसका सदुपयोग ही करूँगा। हे सर्वान्तर्यामी परमेश्‍वर! तुम मुझे ऐसी बुद्धि देना, ऐसी समझ और योग्यता देना कि मैं यह धन संसार के केवल ‘इस मनीषी पुरुष’ के लिये ही देना चाहूँ और इसे ही दूँ। किसी और को देने की मुझे कभी इच्छा तक न हो, कभी प्रलोभन तक न हो। यह ‘मनीषी’ वह पुरुष होता है जो अपने मन का ईश है, जो कभी क्षणभर के लिए भी मन का गुलाम नहीं होता, जो जितेन्द्रिय है, जिसे अपने पर पूरा काबू है। ऐसे ही पुरुष को दिया हुआ धन सदुपयुक्त होता है, हजारों गुणा फल लाता है, सर्वलोक का हित करता है। हमारे धन के एकमात्र अधिकारी ये आत्मवशी पुरुष ही हैं। वास्तव में हमारा सब धन इन संयमी महानुभावों का ही है, परन्तु हे प्रभो! बहुत बार हम अपने किन्हीं तुच्छ स्वार्थों के कारण या केवल रिवाज के वशीभूत होकर या अपनी कमजोरी के कारण सन्त वेशधारी अजितेन्द्रिय भोगी-विलासी लोगों को दान दे देते हैं। ओह ! यह तो तुम्हारी दी हुई धन-शक्ति का घोर दुरुपयोग है, यह पाप है! यह दान नहीं है। यह या तो रिश्‍वत है या आत्मघात करना है। यह सम्पूर्ण मनुष्य समाज का व राष्ट्र का घात करना है, द्रोह करना है। जो मनीषी नहीं हैं उन्हें धन देने का विचार भी हमारे मन में नहीं आना चाहिए, देने की इच्छा ही नहीं होनी चाहिए। जिसे अपने पर काबू नहीं उसके पास गया हुआ धन उस द्वारा सर्वनाश का कारण होता है। इसलिए हे शचीपते! मुझे इतनी शक्ति प्रदान करो कि मैं अनुचित दान के लिए स्पष्ट ‘न’ कर सकूँ। भोगियों को दिये जाने वाले दान में सम्मिलित न होने की हिम्मत कर सकूँ। हे प्रभो! मैं तो उसी को दान दूँ जो कि अपने मन का ईश होने के कारण जनता के हृदयों का भी ईश हो और अतएव जिसके पास गया हुआ धन सर्व जनता के लिए हो, सर्व जनता के कल्याण में ही स्वभावतः ठीक-ठीक उपयुक्त हो जाता हो।

शब्दार्थ- शचीपते=हे शक्ति के स्वामिन्! यत् अहम्=यदि मैं गोपतिः स्याम्=धन-भूमि आदि का स्वामी होऊँ तो (मेरी मति ऐसी हो कि) मैं अस्मै मनीषिणे=इस मन के ईश, पूरे जितेन्द्रिय पुरुष के लिये ही दित्सेयम्=इस धन शक्ति को देना चाहूँ और शिक्षेयम्=इसे ही दूँ। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार

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