विशेष :

हमारा कायाकल्प

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ओ3म् आ ब्रह्मन् ब्राह्मणों बह्मवर्चसी जायताम्, आ राष्ट्रे राजन्यः शूर इषव्योऽतिव्याधी महारथो जायताम्। दोग्ध्रीः र्धेनुर्वोढानड्वानाशुः सप्तिः पुरन्धिर्योषा, जिष्णू रथेष्ठाः सभेयो युवास्य यजमानस्य वीरो जायताम्, निकामे निकामे नः पर्जन्य वर्षतु फलवत्यो न ओषधयः पच्यन्ताम्, योगक्षेमो नः कल्पताम्॥ (यजुर्वेद 22.22)

विशेष - इस वेद मन्त्र में राष्ट्र का एक मानचित्र चित्रित किया गया है कि इस प्रशासनिक व्यवस्था के किस-किस विभाग का कैसा-कैसा रूप-रंग हो। जैसे प्रदेश-प्रदेश के भेद से नक्शे में उनका विशिष्ट चित्र दर्शाया जाता है या मिट्टी के भेद से मैदानी, पहाड़ी, रेतीते, पठारी, समुद्रीय स्थलों को भिन्न-भिन्न रूपों में प्रदर्शित किया जाता है या रेलों, सड़कों, नदियों को विशेष संकेतों से संकेतित किया जाता है। ऐसे ही मन्त्र में राष्ट्र के जीवन को शब्दगत रूप दिया गया है।

शब्दार्थ- ब्रह्मन् = हे सबसे महान् ! बड़ों से भी बड़े ! हमारे राष्ट्रे = नियम, व्यवस्था से चलने वाले देश में, ब्राह्मणः = बुद्धिजीवी, योजनाओं को सोचने वाले ब्रह्मवर्चसी = ब्रह्मतेज युक्त, अपने ज्ञान को सार्थक करने में समर्थ, साक्षर (स+अक्षर) = अक्षर ज्ञान के अनुकूल जीने वाले आ जायताम् = शोभायमान हों। ऐसे ही राजन्यः = राज-काज का कार्य करने वाले शूरः = आगे बढकर कार्य करने वाले, निर्भय, साहसी, बिना डरे निर्णय लेने वाले इषव्यः = निशानची जरूरत होने पर रक्षा की व्यवस्था के लिए अस्त्र-शस्त्र के प्रयोग में कुशल अतिव्याधी = हर प्रकार के रोगों से दूर अर्थात् पूर्णतः स्वस्थ महारथः = अच्छे से अच्छे वाहनों से युक्त आ जायताम् = इन गुणों से अच्छी प्रकार से युक्त हों। धेनुः = दूध देने वाले पशु दोग्ध्रीः = अच्छा होहन करें, अच्छी मात्रा में दूध दें या दुग्ध वाले हों। अनड्वान् = भार ढोने वाले (पशु, बैल) वोढा = भार ढोने के कार्य में सफल हों। सप्तिः = यात्रियों को ले जाने वाले, एक जगह से दूसरी जगह पहुँचाने वाले वाहन आशुः = शीघ्र गति से चलने वाले हों। योषा = नारी, देश की महिलाएं पुरन्धि = पुरम् = अपने शरीर, परिवार, नगर को धिः = सम्भालने में समर्थ हों। अस्य = इस यजमानस्य = राष्ट्र यज्ञ के कर्ता-धर्ता के युवा = जवान पुत्र, नागरिक जिष्णुः = जय की सफलता की भावना से भरे हुए रथेष्ठाः = रथ = वाहन युक्त, उसके चलाने में सक्षम, सभेयः = सभा के योग्य अर्थात् सामाजिक जीवन में उठने-बैठने, रहने-सहने, बोलने-वर्तने में सफल सिद्ध और वीरः = दुष्टता को हटाने वाले, अपनेपन में अडिग, सत्य पर अटल जायताम ् = इन गुणों से भरे हुए हों, नः = हम राष्ट्रवासी कामे-कामे = जब, जहाँ-जहाँ चाहें वहाँ-वहाँ इच्छानुसार पर्जन्यः = जल व्यवस्थाका कर्ता बादल नि वर्षतु = निश्‍चित रूप से पहुँचे, सफल हो, वर्षा बरसे। जिससे नः = हमारी ओषधयः = गेहूँ, चना, धान, जौ, तिल, सौंफ, जीरा आदि अन्न फलवत्यः = फल = फसल दानों से युक्त होकर पच्यन्ताम् = पकें, फलें। जिससे नः = हम सब देशवासियों के लिए योग = अप्राप्त की प्राप्ति क्षेम = प्राप्त का संरक्षण रूपी अर्थशास्त्र के सिद्धान्त कल्पन्ताम् = सार्थक हों, पूर्ण हों, चरितार्थ हों अर्थात् हमारा राष्ट्र भौतिक और नैतिक प्रगति से भरपूर हो।

व्याख्या- मन्त्र में राष्ट्र शब्द सप्तमी विभक्ति में है। इसमें आधारोऽधिकरणम् (पा. 1.4.45) आधार = सहारा बनने वालों की ओर संकेत है। अतः उसी का यह सारा अंग-उपांग सहित वर्णन है। यहाँ राष्ट्र का अर्थ जो कि सीमित रूप में लें तो देश होगा अर्थात् अच्छी प्रशासनिक व्यवस्था, इकाई। प्रत्येक अपनी और अपनों के जान-माल की सुरक्षा चाहता है। वहीं सभी तरह की प्रगतियाँ होती हैं।

शस्त्रेण रक्षिते राष्ट्रे शास्त्रचर्चा प्रवर्तते। शस्त्र द्वारा रक्षित राष्ट्र में ही शास्त्रचर्चा (ज्ञानचर्चा) हो सकती है। हर कोई वहीं ही रहना चाहता है। राष्ट्र = प्रशासनिक व्यवस्था का विपरीत शब्द है अराजकता = राज्य या राजा का अभाव अर्थात जहाँ जान-माल असुरक्षित हो, जहाँ व्यवस्था का अभाव हो, सब कुछ अस्त-व्यस्त हो जहाँ, वह अराजकता है।

ब्राह्मणः शब्द जन्मना वर्ग विशेष के लिए रूढ़, प्रसिद्ध हो गया है। वस्तुतः बह्म से बाह्मण बनता है और बह्म = ईश्‍वर अथवा वेद = ज्ञान के अर्थ में प्रसिद्ध है। अतः ईश्‍वर विश्‍वासी, पढ़ा-लिखा, समझदार ही ब्राह्मण है। मन्त्र में ब्राह्मण के साथ बह्मवर्चसी युक्त होकर आया है। अर्थात बह्मतेज से युक्त, अपनी विद्या को सार्थक करने वाला। इस एक विशेषण से ही उसका सारा परिचय दे दिया गया है। जिसको सिद्ध या सिद्ध हस्त भी कह सकते हैं, ऐसा ब्राह्मण व्यक्तित्व।

राजन्यः = राज = प्रशासन से सम्बद्ध विधान-कार्य-न्यायपालिका आदि। न्याय-कार्य के अन्तर्गत ही सुरक्षा (सेना-पुलिस) लिए जा सकते हैं। मन्त्र में राजन्य के चार विशेषण आए हैं। शूरः = विधान को लागू करने में निर्भय, साहसी, इषव्यः = सुरक्षा की दृष्टि से हथियारों के प्रयोग में प्रवीण अतिव्याधी = रोगरहित, स्वस्थ, सुदृढ महारथः = वाहन संचालन, रखरखाव-सुधार में कुशल, जिससे सभी तरह की प्रशासनिक व्यवस्था के लिए सर्वत्र समुपस्थित होना सरल हो।

अस्य यजमानस्य। यजमान यज्ञ करने वाले को कहते हैं। अस्य सर्वनाम से यज्ञ को स्पष्ट कर दिया गया है। क्योंकि पहले राष्ट्रे आया है। अतः अस्य से इस राष्ट्र यज्ञ की ही चर्चा है। राष्ट्र के विशेष पदों पर आसीनों के लिए सारे नागरिक युवा पुत्र रूप हैं। इस राष्ट्र यज्ञ के करने वाले युवा वीर जवानों के जिष्णु, रथेष्ठा, सभेय और वीर रूप में चार विशेषण हैं। अतः राष्ट्र का प्रत्येक नागरिक इन गुणों से युक्त हो। हाँ, राष्ट्र के भविष्य की दृष्टि से युवा शब्द का प्रयोग विशेष महत्वपूर्ण है। वे ही कल के नेता हैं। युवा-शिक्षा द्वारा ही शिशु शिक्षण-प्रशिक्षण प्राप्त करके कुमार से युवा वय को प्राप्त होते हैं। अतः शिक्षा का संचालन इस प्रकार हो कि स्नातक बनने तक शिक्षार्थी में ये गुण साकार हो जाएँ।

जिष्णुः। जयशील, जीत की भावनाओं से भरा हुआ यह स्थिति व्यक्ति में आत्मविश्‍वास से ही आती है। अन्यथा व्यक्ति निराश, उदास, हताश होता है और वह तब रचनात्मक साकार सोच वाला न होकर निराशावादी ही होता जाताह ै। रथेष्ठाः। रथ में बैठने वाला। रथ शब्द उस वाहन के लिए प्रयुक्त होता है, जो तेजगति वाला तथा आरामदेय हो। जैसे कि आजकल की कारें। पुराने रथ भी बैलगाड़ी से तेजगति वाले और बैठने में सुविधाजनक होते हैं।

सभेयः। सभा के याग्य को सभेय कहते हैं जो कि शिष्ट, विनीत, अनुशासित, सामाजिक के लिए आता है। यह शब्द सभा से ढक्-एय प्रत्यय लगने पर बनता है। सभा=स+भा = साथ-साथ चमकना, रहना, वर्तना अर्थात् समाज, समूह में जीने में निपुण। अतः समाज में रहने, उठने, बैठने में वर्तने-बोलने, जीने में सक्षम।

वीरः। आगे बढने की भावना से भरा हुआ, न घबराने वाला, धैर्यशील, विपदा व शत्रु से जूझने वाला।

दोग्ध्रीः धेनुः। गाय को धेनु उन दिनों कहा जाता है, जिन दिनों वह दूध देती हैं। अतः हमारे दुधारू पशु पर्याप्त दूध देने वाले हों। कौन दूध कितना गुणकारी तथा किस प्रकार प्रभूत मात्रा में प्राप्त होता है आदि विचार स्वतः इसके अन्तर्गत आ जाते हैं। वाहन दोनों प्रकार के प्रारम्भ से प्रचलित रहे हैं। मन्त्र में वोढानडवान् आशुः सप्तिः से ऐसा चित्रित है। भारत और यात्रियों को इधर-उधर लाने-ले जाने की भावना मन्त्र के अनुरूप आज भी प्रचलित है।

योषा पुरन्धिः। राष्ट्र की महिलाएँ अपने पुर = शरीर, परिवार, नगर, देश आदि को सम्भालने में सब प्रकार से समर्थ हों। धि = सम्भाल शब्द बहुत व्यापक अर्थ वाला है। जैसे सन्तान की सम्भाल में सन्तान का उत्पादन-पालन-विकास और विकासार्थ शिक्षा-चिकित्सा आदि सभी आते हैं, ऐसे ही पुर के सभी सदस्यों की सभी तरह की जरूरतों की सम्भाल को पुरन्धि शब्द अपने में समेटे हुए है।

पर्यन्यः नः कामे कामे नि नि वर्षतु। हम जहाँ-जहाँ, जब-जब चाहें, वहाँ-वहाँ तब-तब बादल (जल) बरसे। यहाँ इच्छा के अनुरूप बरसने की प्रार्थना है। इससे यह सन्देश भी सामने आता है कि हम अपनी इच्छा के अनुरूप व सुविधा के अनुसार जल व्यवस्था करें, जैसे कि आजकल आधुनिक भवनों की जल योजना होती है।

नः ओषधयः फलवत्यः पच्यन्ताम्। जल की व्यवस्था हो जाने पर हमारी फसल दानों से भरकर पकें। प्राचीन संस्कृत भाषा में ओषधी शब्द जड़ी-बूटियों की अपेक्षा अनाजों, जौ, धान आदि के लिए भी प्रयुक्त हुआ है। जैसे कि अन्नप्राशन (अन्नपते) के मन्त्र में निर्दिष्ट किया गया है। वैसे फलवत्य विशेषण युक्त पच्यन्ताम् क्रिया यहाँ आई हुई है, जो कि इस अर्थ को पुष्ट करती है कि फसलें इन दोनोें स्थितियों में ही अधिक सार्थक होती हैं।

योगक्षेमो नः कल्पताम्। मन्त्र निर्दिष्ट सारी व्यवस्थाएँ चरितार्थ हो जाने पर जब हम राष्ट्रवासियों का योग = अप्राप्त की प्राप्ति और क्षेम = प्राप्त का संरक्षण रूपी अर्थशास्त्र में प्रतिपादित भौतिक विकास सामने आता है। कल्पताम् क्रिया कायाकल्प की परिभाषा को संकेतित करती है, स्मरण दिलाती है। राष्ट्र एक भौतिक रूप वाली संरचना है। भौतिक रूप भौतिक पदार्थों से ही प्रत्यक्ष होता है। अतः मन्त्र में योजनाओं के बनाने वाले योजनाकार, उन योजनाओं को मूर्तरूप देने वाले कारीगर, सक्रिय कार्यकर्ता, महिलाएँ, पशु, वाहन, जल-अन्न व्यवस्था जैसे-जैसे हों, इन सबका मानचित्र मन्त्र के यौगिक अर्थ रखने वाले शब्द अभिव्यक्त कर रहे हैं। अन्त में इन सारी व्यवस्थाओं के सुपरिणाम को दर्शाते हुए कहा कि ऐसा होने पर ही किसी देश की समृद्धि सुरक्षित रूप में उसके कायाकल्प को प्रत्यक्ष कराती है। (वेद मंथन)

वेद मंथन, लेखक - प्रा. भद्रसेन वेदाचार्य एवं संपादक - आचार्य डॉ. संजय देव (Ved Manthan, Writer- Professor Bhadrasen Vedacharya & Editor - Acharya Dr. Sanjay Dev) Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev | वेद कथा - 15 | मनुष्य की मूल भूत आवश्यकता धर्म | वैदिक विद्वानों की तपस्या | Explanation of Vedas