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पाश्‍चात्य विद्वानों की दृष्टि में वेदों का महत्व 2

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vedo ka mahatava 2

अपने ‘त्रयी-चतुष्टय’ में प्रसिद्ध भारतीय विद्वान् पं. सत्यव्रत सामश्रमी ने भी लिखा है- “वेदों में सारे विज्ञान सूक्ष्मरूप से विद्यमान हैं।’’
बड़ौदा में ‘यन्त्रसर्वस्व’ नामक एक हस्तलिखित ग्रन्थ मिला है जिसके लेखक महर्षि भारद्वाज हैं। इस ग्रन्थ के ‘वैमानिक-प्रकरण’ में लिखा है कि “वेदों के आधार पर ही इस ग्रन्थ को बनाया गया है।’’
प्रसिद्ध पारसी विद्वान् फर्दून दादा चानजी वेदों की महिमा का वर्णन करते हुए लिखते हैं-
The Veda is a Book of knowledge and wisdon comprising the Book of Nature, the Books of Religion, the Book of Prayers, the Book of Morals and so on. The Word 'Veda' means wit, wisdom, konwledge and truly the Veda is codenesed wit, wisdom and knowledge.
(Philosophy of zoroastrianism)
वेदज्ञान की पुस्तक है। इसमें प्रकृति, धर्म, प्रार्थना, सदाचार आदि विषयों की पुस्तकें सम्मिलित हैं। वेद का अर्थ है ज्ञान और वस्तुतः वेद ज्ञान-विज्ञान से ओत-प्रोत हैं। फ्रांस के प्रसिद्ध विद्वान वाल्टेयर का मत है- “केवल इसी देन (यजुर्वेद) के लिए पश्‍चिम पूर्व का ऋणी रहेगा।’’ फ्रांस देश के अन्य विद्वान जैकालियट ने अपने ग्रन्थ The Bible in India में लिखा है-
Astonishing fact! the Hindu Revelation (Veda) is of all revelations the only one whose ideas are in perfact harmony with Modern Sceince as it proclaims the slow and gradual formation of the world. (The Bible in India Vol. II Ch.1)
कितनी आश्‍चर्यजनक सच्चाई है। सम्पूर्ण ईश्‍वरीय ज्ञानों में हिन्दुओं का ईश्‍वरीय ज्ञान वेद ही ऐसा है, जिसके विचार वर्त्तमान विज्ञान से पूर्णरूपेण मिलते हैं। क्योकि वेद भी विज्ञानानुसार जगत् की मन्द और क्रमिक रचना का प्रतिपादन करते हैं।
ईसाई पादरी मौरिस फिलिप (Rev. Moris Philip) ने भी वेद को ईश्‍वरीय ज्ञान स्वीकार किया है। वे लिखते हैं- The conclusion, therefore is inevitable viz, that the development of religious thought in India has been uniformly downward, and not upward, deterioration and not evolution. We are justified, therefore, in concluding that the higher and pure conceptions of the Vedic Aryans were the results of primitive Divine Revelation. (The teachings of the Vedas)
अतः हमारे लिए इस परिणाम पर पहुंचना अनिवार्य है कि भारत में धार्मिक विचारों का किकास नहीं हुआ, अपितु ह्रास ही हुआ है, उत्थान नहीं अपितु पतन ही हुआ। इसलिए हम यह परिणाम निकालने में न्यायशील हैं कि वैदिक आर्यों के उच्चतर और पवित्रतर विचार एक प्रारम्भिक ईश्‍वरीय ज्ञान का परिणाम थे।
वेद की तुलना आत्मा के हिमालय से करते हुए श्री जे.मास्करो (J. Mascaro) लिखते हैं- If a Bible of India were compiled......... the Veda, the Upanishads and Bhagvad Gita would rise above the rest like Himalayas of the spirit of man. (The Himalayas of the Soul)
यदि भारत की कोई बाइबल संकलित की जाए तो उसमें वेद, उपनिषदें और भगवत्गीता मानवीय आत्मा के हिमालय के समान सबसे ऊपर उठे हुए ग्रन्थ होंगे।
अनेक पाश्‍चात्य ईसाई लेखकों ने अपना जीवन और जवानी वेदों के सम्बन्ध में खोज करने में इसलिए लगा दी, ताकि वे वेद के गौरव को नष्ट करके बाइबल के महत्व और गौरव को प्रदर्शित कर सकें। ऐसे लेखकों में मैक्समूलर अग्रगण्य है। मैक्समूलर ने ऋग्वेद की भूमिका में स्वयं ही लिखा है कि उन्हें 25 वर्ष तो केवल इसके लिखने में ही लगे, फिर छपवाने में 20 वर्ष और लगे। इस ग्रन्थ को प्रकाशित कराने के लिए ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने नौ लाख रुपये दिये, किन्तु उससे भी कार्य पूरा नहीं हुआ।
एक स्वाभाविक जिज्ञासा होती है कि आखिर मैक्समूलर ने यह सब कुछ क्योें किया? उत्तर है वेद के गौरव और महत्व को घटाने के लिए। यह कपोलकल्पना नहीं है। यह बात मैक्समूलर के जीवन और पत्रों (Life and Letters of Max Mullar) से सिद्ध है।
मैक्समूलर राथ का सहपाठी था। अपने गुरु की छाप के अतिरिक्त 28 दिसम्बर 1855 की मैकाले की भेंट ने भी उस पर पूर्ण प्रभाव डालाथा। मैकाले के एक घण्टे तक उसे भारत-विरोधी विचार देता रहा। उस भेंट के पश्‍चात् मैक्समूलर लिखता है- I went back to Oxford as a sadder an wiser man. अर्थात् मैं गम्भीर और बुद्धिमान बनकर आक्सफोर्ड वापल लौटा।
बस, अब क्या था। उसने वेद के विषय में विषवमन करना आरम्भ कर दिया। उसने घोषणा की- Large number of Vedic hymns are childish in extreme, tedious, low, common place. (Chips from a German Wrokshop P.27)
अर्थात् वैदिक सूक्तों की अत्यधिक संख्या बचपन अथवा मूर्खता की पराकाष्ठा से पूर्ण, नीरस और तुच्छ विचारों से भरी है। मैक्समूलर ने समय-समय पर अपने मित्रों और सम्बन्धियों को जो पत्र लिखे हैं, उनसे उसके मनोगत विचारों का पता चलता है। यहाँ कुछ पत्र उद्धृत किए जा रहे हैं।
1866 में उसने अपनी पत्नी को लिखा- I hope. I shall finish the work and I feel convinced though I shall not live to see it, yet this edition of mine and the translation of the Veda will hereafter tell to a great extent on the fate of India and on the growth of their religion and to show them what the root is. I feel sure, it is the only way of uprooting all that has sprung from it during the last three thousand years.
अर्थात् मुझे आशा है, मैं उस कार्य (वेदों के सम्पादन) को पूर्ण कर दूँगा। यद्यपि में उसे देखने के लिए जीवित नहीं रहूंगा, परन्तु मुझे पूर्ण निश्‍चय है कि मेरा यह वेदों का अनुवाद भारत के भाग्य और लाखों भारतीयों के आत्मविश्‍वास पर एक वज्र-प्रहार होगा। वेद उनके धर्म का मूल है और मूल को दिखा देना, उससे पिछले तीन सहस्र वर्षों में जो कुछ निकला है, उसको मूलसहित उखाड़ फेंकने का सबसे उत्तम प्रकार है।
16 दिसम्बर 1868 को उसने तत्कालीन भारत के मन्त्री ड्यूक आफ आर्गायल (Duke of Argyle) को लिखा- The ancient religion of India is doomed and if Christianity does not step in, whose fault will it be. अर्थात् भारत के प्राचीन धर्म का नाश तो सुनिश्‍चित है। यदि अब ईसाइयत उसका स्थान ग्रहण न करे तो यह किसका दोष होगा-
एक पत्र में उसने अपने पुत्र को लिखा- Would yo say that any one sacred book is superior of all others in the world? It may sound prejudiced but taking all in all, I say the New Testament. After that I should place the Koran, which in its moral teachings is harldy more than a later edition the New Testament, than would follow the Old Testament, the Southern Buddhist Tripitaka, the Laote King of Laotize, the Kings of confucious, the Veda and the Avesta. There is no doubt however, that the ethical teaching is for more prominent in the Old and New Testament than in any other sacred Book. Therein lies the distinctivencess of the Bible. Other sacred books are generally collections of whatever was remebered of ancient times.
अर्थात् क्या तुम कहोगे कि संसार में कोई ऐसी पवित्र पुस्तक है जो सबसे श्रेष्ठ है? यह बात पक्षपातपूर्ण हो सकती है, फिर भी मैं कहूँगा कि नव-व्यवस्था सर्वोत्तम है। उसके पश्‍चात् में कुरआन को रक्खूँगा, जो अपनी सदाचार सम्बन्धी शिक्षाओें में नव-व्यवस्था का ही अनुवाद है। इनके पश्‍चात् प्राचीन व्यवस्था, तत्पश्‍चात् बौद्धों का त्रिपिटक, तत्पश्‍चात् वेद और अन्त में अवेस्ता। इस बात में तनिक भी सन्देह नहीं है कि प्राचीन और नव-व्यवस्था की सदाचार-सम्बन्धी शिक्षाएं अन्य पवित्र ग्रन्थों की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण हैं। इसी बात में बाइबल का महत्व है। अन्य पवित्र ग्रन्थ तो प्राचीनकाल की स्मृतियों का समलनमात्र हैं।
कितने खेद की बात है कि मैक्समूलर ने वेद को बाइबल और कुरान से भी घटिया बताया है, जबकि वेद की तुलना में शेष पुस्तकें नगण्य ही हैं। मैक्समूलर के ये विचार उसकी अज्ञानता के परिचायक हैं। वस्तुतः उसने सभ्य समाज की दृष्टि में वेदों के महत्व को कम करने के लिए ही ऐसे विचार व्यक्त किये हैं।
मैक्समूलर के एक परम स्नेही ई.बी. पुसे (E.B. Pussey) ने उसके कार्य की प्रशंसा करते हुए उसे एक पत्र लिखा था, जिसमें उसने लिखा-
Your work will form a new era in the efforts for the conversion of India...... अर्थात् आपका कार्य भारतीयों को ईसाई बनाने के प्रयत्न में नवयुग लाने
वाला सिद्ध होगा।
मैक्समूलर की भाँति मोनियर विलियम्स का उद्देश्य भी पवित्र नहीं था। वे अपने ‘संस्कृत-इङ्गलिशकोष’ की भूमिका में लिखते हैं- मेरे समालोचक और कुछ स्पष्टवादी मित्र इस बात पर आश्‍चर्य प्रकट करते हैं कि मैंने अपने जीवन का अधिकांश समय कोष और व्याकरण लिखने के शुष्क कार्य में क्यों लगाया है? उसके समाधान में मैं कहना चाहूंगा- That the special object of his (Boden's) munificent bequest was to promote the translation of the Scriptures into Sanskrit, so as to enable his countrymen to proceed in the conversion of the natives of India to the Christian Religion.....Surely then it need not be thought suprising, if following in the footsteps of my venerated master. I have made it the chief aim of my personal life to provide facilities for the translation of our sacred Scriptures into Sanskrit. (Sanskrit English Dictionary, Preface P. IX)
अर्थात् बोडन महोदय के उदार दान का प्रमुख उद्देश्य ईसाइयों के धर्मग्रन्थों का संस्कृत में अनुवाद कराना था, जिससे उसके देशवासी भारतीयों को ईसाई बनाने में अग्रसर हो सकें। ऐसी स्थिति में यह कोई आश्‍चर्य की बात नहीं है यदि मैंने अपने आदरणीय स्वामी के पदचिह्नों पर चलते हुए अपने जीवन का मुख्योद्देश्य अपने पवित्र ग्रन्थों का संस्कृत अनुवाद करने के साधन जुटाने में लगा दिया है।
ग्रिफ़िथ महोदय ने चारों वेदों का अंग्रेजी में अनुवाद किया है। उनका उद्देश्य भी वेद के गौरव को बढ़ाना नहीं था। उन्होंने प्रायः सायण, महीधर और उव्वट आदि का ही अनुकरण किया है। उनके अनुवाद को पढ़कर किसी भी व्यक्ति को वेदों के प्रति श्रद्धा नहीं हो सकती। यहाँ दिग्दर्शनार्थ केवल एक मन्त्र प्रस्तुत करते हैं।
अपश्यं गोपमनिपद्यमानमा च परा च पथिभिश्‍चरन्तम्। स सध्रीचीः स विषूचीर्वसान आ वरीवर्ति भुवनेष्वन्तः॥ (ऋग्वेद 10.117.3)
ग्रिफिथ महोदय ने इस मन्त्र का अर्थ इस प्रकार किया है-
I saw the Herdsman, him who never resteth, Approaching departing on his path-ways, He clothed in gathered and diffusive splendour,
Within the worlds continually travels.
अर्थात् मैंने एक ग्वाले को देखा जो अपने मार्ग पर आता और जाता हुआ कभी विश्राम नहीं लेता। कभी फटे-पुराने कपड़ों में और कभी सुन्दर वस्त्रों में वह संसार में नित्य गमन करता है।
ग्रिफिथ महोदय ने पादटिप्पणी Herdsman का अर्थ Sun (सूर्य) दिया है जो तीन काल में भी असम्भव है। गोपा का अर्थ तो सूर्य हो सकता है, Herdsman का कदापि नहीं। Herdsman का अर्थ तो ग्वाला ही होगा। यदि हर्डज्मैन का अर्थ सूर्य भी मान लिया जाए तो प्रश्‍न यह है कि सूर्य के वस्त्र कौन से हैं?
वेदों के महत्व को कम करने के लिए ही इन ईसाई लेखकों ने इस प्रकार के अर्थ किये हैं। अनेक भारतीय विद्वान भी उनका अन्धानुकरण करते हैं। वेदों को बच्चों की बिलबिलाहट और गड़रियों के गीत सिद्ध करने के लिए ही ऐसे दूषित अर्थ किये गये हैं। इस मन्त्र का ठीक अर्थ यह है-
“आत्म-साधना में लीन किसी योगी को घोषणा है कि मैंने सीधे और उलटे मार्गों से विचरण करने वाले अविनाशी, इन्द्रियों के स्वामी आत्मा का साक्षात्कार कर लिया है। वह आत्मा अपने कर्मों के अनुसार उत्तम और अधम दशाओें को धारण करता हुआ लोकों में बार-बार आता रहता है।’’
मन्त्र में कितने महान् और उदात्त विचार हैं! गो का अर्थ इन्द्रिय भी होता है। इन्द्रियों का स्वामी होने से आत्मा गोपा है। वह कर्म करने में स्वतन्त्र होने के कारण उलटे और सीधे जिस भी मार्ग में चाहे गमन कर सकता है। अपने कर्मों के अनुसार उत्तम और निकृष्ट शरीरों को धारण करते हुए वह बार-बार संसार में जन्म लेता है। (जारी) - स्वामी जगदीश्‍वरानन्द सरस्वती

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