मैक्डानल द्वारा लिखित वैदिक रीडर आज प्रायः सभी विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती है। इसे पढ़कर विद्यार्थियों में वेद के प्रति श्रद्धा नहीं हो सकती। इस रीडर में वेदमन्त्रों के अटकलपच्चू और अशुद्ध अनुवाद दिये गये हैं। मन्त्र की शिक्षा क्या है, यह तो किसी भी मन्त्र में स्पष्ट ही नहीं होता है। यहाँ हम अग्नि-सूक्त के प्रथम मन्त्र पर ही कुछ विवेचन करते हैं-
अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम्॥ ऋग्वेद 1.1.1॥
मैक्डानल महोदय ने इस मन्त्र का अर्थ इस प्रकार किया है-
I magnify Agni the domestic priest, the divine ministrant of the sacrifice, the invoker, best bestower of treasure.
अर्थात् मैं गृह्य-पुरोहित अग्नि का वर्णन करता हूँ जो यज्ञ का दिव्य प्रबन्धक है, जो प्रार्थनीय और धनोें को देने वाला है। वेद के सभी शब्द यौगिक हैं। वेद में पुरोहित का अर्थ है- पुर एनं दधति-जिसे आगे रखा जाए। गृह्य पुरोहित तो परवर्ती काल का शब्द है, इसे वेद पर लादना पक्षपात है। मन्त्र का ठीक अर्थ इस प्रकार है-
मैं (पुरोहितम्) सबसे पूर्व विद्यमान (यज्ञस्य देवम्) संसार यज्ञ के प्रकाशक (ऋत्विजम्) ऋतुओं को सङ्गत करने वाले (होतारम्) अत्यन्त दानी (रत्नधातमम्) रत्न-निर्माता (अग्निम्) अग्नि की (ईळे) स्तुति करता हूँ।
इस मन्त्र में श्लेषालंकार है। जगत् की उत्पत्ति से भी पूर्व वर्तमान होने के कारण प्रभु पुरोहित हैं। शरीर के निर्माण होने से पूर्व जीव विद्यमान होता है, अतः जीव भी पुरोहित है। संसार के सब पदार्थों से पूर्व अग्नि के सूर्यरूप में दर्शन होते हैं, अतः अग्नि भी पुरोहित है। संसार का रचयिता होने के कारण ईश्वर इस संसार का प्रकाशक है। शरीर यज्ञ का सञ्चालक होने के कारण जीवात्मा भी यज्ञ का देव है। अग्निहोत्र का साधन होने से अग्नि भी यज्ञ का प्रकाशक है।
ऋतुओं को व्यवस्थित करने के कारण प्रभु ऋत्विक् हैं। यज्ञ करने के कारण जीव भी ऋत्विक् हैं। अग्नि=सूर्य के कारण ही ऋतुओं का परिवर्तन होता है। अतः अग्नि ऋत्विक् है। प्रभु ने जीवों के कल्याण के लिए नाना साधन और सामग्री जुटाई हैं। वह महादानी है, अतः ’होता’ है। जीव कर्मफलों का भोक्ता होने के कारण ‘होता’ है। यज्ञ का साधन होने के कारण अग्नि भी ‘होता’ है। सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, आदि का निर्माता होने के कारण प्रभु रत्नधाता है। संसार के पदार्थों का उपभोग लेने के कारण जीव भी रत्नधातमम् है। भूगर्भ में पड़े कोयले को रत्न के रूप में परिवर्तित करने के कारण अग्नि भी रत्नधातमम् है। मन्त्र में आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक तीनों अर्थों की सुन्दर संगति है।
इनके अतिरिक्त अन्य व्यक्तियों ने भी वेद के ऊपर कुठाराघात किया है। तनिक उसका भी अवलोकन कीजिए-
“कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय संहिता (7.1.8.2) में ‘श्रद्धादेव’ शब्द आया है, जिसका सीधा अर्थ श्रद्धालु है, परन्तु एगलिङ्ग ने इसका अर्थ ‘देव-भीरु’ (God fearing) कर डाला है। ‘पीटर्सबर्ग लेक्जिकन’ (संस्कृत जर्मन महाकोष) के लेखक राथ और बोट्लिंक ने अश्वा शब्द के तृतीया एक वचन ‘अश्वया’ का अर्थ ‘कुत्ते के समान’ लिख मारा है। अश्वया का अर्थ है घोड़ी के द्वारा। यही नहीं ‘हड़प्पा’ और ‘मोहनजोदड़ो’ की खुदाई कराने वाले और ‘इण्डो सुमेरियन सील्स डिसाइफर्ड’ के लेखक एल.ए. वैडल ने तो इतनी दूर तक लिखा है कि “ईराक की सुमरजाति (अनार्य) ने ही आर्यों को सभ्य बनाया। उनके एदिन शब्द से सिन्धु शब्द बना है। सुमेरियन भाषा के ‘मुद्गल’ शब्द से वेद का ‘मुद्गल’ शब्द बना है।’’ इसी प्रकार सुमेरियन कन्व से कण्व, बरम से ब्राह्मण और ‘तप्स’ (अक्कद के सगुन का मन्त्री) से ‘दक्ष’ बना।
वेद के पूजा और मीन शब्द चाल्डियन भाषा के हैं। ऋग्वेद के ‘सचा मना हिरण्यया’ में मना बेबीलोनियन शब्द है। अंग्रेजी के ’पाथ’ शब्द से वेद का ‘पन्था’ शब्द निकला है। कुछ पाश्चात्यों ने वैदिक शब्दों के अर्थ का अनर्थ कर डाला है और बहुत-सी वृथा कल्पना-जल्पनाएँ रच डाली है। सबके लिखने का यहाँ न तो स्थान ही है न आवश्यकता ही। जिन्हें आर्यधर्म और हिन्दू-संस्कृति में केवल छिद्र ही ढूँढने हैं, वे तो ऐसी ऊटपटांग बातें करेंगे ही। वस्तुतः वैदिक साहित्य को हीन बताने के लिए ही कितने ही विदेशी वैदिक विद्वान् वैदिक साहित्य के पीछे पड़े भी। मैक्डानल ने अपने Vedic Mythology के प्रथम पृष्ठ में ही आर्यों को असभ्य और बरबर बना डाला है। ‘जैसी समझ वैसी करनी’ ठीक ही है। पक्षपात का चश्मा पहनने वालों से निष्पक्ष अर्थ करने तथा यथार्थ विषय उपन्यस्त करने की आशा ही कैसे की जा सकती है।’’ (हिन्दी ऋग्वेद, पं. रामगोविन्द त्रिवेदी भू.पृ. 10)
जिस समय वैदिक धर्म और वैदिक संस्कृति पर चारों ओर से भीषण कुठाराघात हो रहे थे, भारतीय सभ्यता और संस्कृति पर अन्धकार की घनघोर घटाएं छाई हुई थीं, उस समय उन अविद्या-अन्धकार की घटाओं को चीरते हुए, एक दिव्यलोक का प्रकाश बिखेरते हुए महर्षि दयानन्द सरस्वती भारतीय रङ्गमञ्च पर अवतीर्ण हुए। महर्षि दयानन्द ने वेद के गम्भीर अध्ययन, मनन और चिन्तन के पश्चात् जोरदार शब्दों में एक घोषणा की ‘वेदों की ओर लौटो’ (Back to the Vedas)। उन्होंने सिंह गर्जना करते हुए कहा- वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है।’’
महर्षि दयानन्द के भाष्य को पढ़कर उन्हें अपनी श्रद्धांजलि प्रस्तुत करते हुए योगी अरविन्द घोष ने कहा था-
In the matter of Vedic interpretation, I am convinced that whatever may be the final comlete interpretation, Dayananda will be honoured as the first discoverer of the right clues. Amidst the choas and obscurity of old ignorance and age long misunderstanding, his was the eye of direct vision that pierced to the truth and fastened on that which was essential. He has found the keys of the doors that time had closed and rent asunder the seals of the imprisoned fountains. (Dayananda the man P.12)
वैदिक व्याख्यान के विषय में मेरा यह विश्वास है कि वेदों की सम्पूर्ण अन्तिम व्याख्या चाहे कोई भी हो, दयानन्द का उपयुक्त शैली के प्रथम आविष्कारक के रूप में सम्मान किया जाएगा। पुराने अज्ञान और पुराने युग की मिथ्याज्ञान की अव्यवस्था और भ्रम के मध्य में यह उन्हीं की दिव्य दृष्टि थी, जिसने सत्य का अन्वेषण कर उसे वास्तविकता के साथ बाँध दिया। जिन वेदों के द्वार को समय ने बन्द कर रक्खा था, उनकी चाबियों को उन्होंने पा लिया और बन्द पड़े हुए स्रोत की मुहरों को तोड़कर फेंक दिया।
वेद की प्रशंसा करते हुए स्वामी विवेकानन्द जी लिखते हैं-
“वेदों के सम्बन्ध में हिन्दुओं की यह धारणा है कि वे प्राचीनकाल में किसी व्यक्तिविशेष की रचना अथवा ग्रन्थमात्र नहीं हैं। वे उसे ईश्वर की अनन्त ज्ञानराशि मानते हैं, जो किसी समय व्यक्त और किसी समय अव्यक्त रहती है। टीकाकार सायणाचार्य ने एक स्थान पर लिखा है- यो वेदेभ्योऽखिलं जगत् निर्ममे, जिसने वेदज्ञान के प्रभाव से सारे जगत् की सृष्टि की है। वेद के रचयिता को कभी किसी ने नहीं देखा। इसलिए इसकी कल्पना करना भी असम्भव है। ऋषि लोग उन मन्त्रों अथवा शाश्वत नियमों के मात्र अन्वेषक थे। उन्होंने आदिकाल से स्थित ज्ञानराशि वेदों का साक्षात्कार किया था। ये वेद ही हमारे एकमात्र प्रमाण हैं और इन पर सबका अधिकार है-
यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः। ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय च। (यजुर्वेद 26.2)
क्या तुम हमें वेद में ऐसा कोई प्रमाण दिखला सकते हो, जिससे यह सिद्ध हो जाए कि वेद में सबका अधिकार नहीं है? पुराणों में अवश्य लिखा है कि वेद की अमुक शाखा में अमुक जाति का अधिकार है या अमुक अंश सत्ययुग के लिए और अमुक अंश कलियुग के लिए है। किन्तु ध्यान रखो, वेद में इस प्रकार का कोई जिक्र नहीं है। ऐसा केवल पुराणों में ही है। क्या नौकर कभी अपने मालिक को आज्ञा दे सकता है? स्मृति, पुराण, तन्त्र ये सब वहीं तक ग्राह्य हैं, जहाँ तक वेद का अनुमोदन करते हैं। ऐसा न होने पर उन्हें अविश्वसनीय मानकर त्याग देना चाहिए, किन्तु आजकल हम लोगों ने पुराणों को वेद की अपेक्षा श्रेष्ठ समझ रखा है। मैं वह दिन शीघ्र देखना चाहता हूँ..... जब बच्चे, बूढ़े और स्त्रियाँ वेद-अर्चना का शुभारम्भ करेंगे।
वेदों के सम्बन्ध में पाश्चात्य विद्वानों के सिद्धान्तों में मेरा विश्वास नहीं है। आज वेदों का समय वह कुछ निश्चित करते हैं और कल उसे बदलकर फिर एक हजार वर्ष पीछे घसीट ले जाते हैं। पुराणों के विषय में हम ऊपर कह आये हैं कि वे वहीं तक ग्राह्य हैं जहाँ तक वेदों का समर्थन करते हैं। पुराणों में ऐसी अनेक बातें हैं जिनका वेदों के साथ मेल नहीं खाता। उदाहरण के लिए पुराणों में लिखा है कि कोई व्यक्ति दस हजार वर्ष तक और कोई दूसरे बीस हजार वर्ष तक जीवित रहे, किन्तु वेदों में लिखा है- शतायुर्वै पुरुषः। इनमें से हमारे लिए कौन सा मत स्वीकार्य है? निश्चय ही वेद।’’ (विवेकानन्द साहित्य भाग 5, पृ. 344-346)
महर्षि दयानन्द के सिंहनाद का प्रभाव मैक्समूलर पर भी पड़ा। वेद के सम्बन्ध में उसके मन्तव्य और धारणाएँ परिवर्तित हुईं। फलस्वरूप वेद की प्रशंसा करते हुए उसने लिखा-
Whatever the Vedas may be called they are to us unique and priceless guides in opening before over eyes tombs of thought richer in relics than the royal tombs of Egypt and more ancient and primitive in though than the oldest hymns of Babylopian and Accadian poets. (Six Systems of Indian Philosophy P. 34)
वेद चाहे जो कुछ भी हों वे हमारे लिए अद्वितीय और बहुमूल्य मार्गदर्शक हैं, क्योंकि वे हमारे समक्ष विचारों की ऐसी राशि प्रस्तुत करते हैं जो मिस्र के राजकीय स्मारक चिन्हों से कहीं अधिक श्रेष्ठ हैं। वेद बेबीलोनियन और अकेडियन कवियों की प्राचीनतम कविताओं से बहुत प्राचीन हैं।
एक अन्य स्थान पर उन्होंने लिखा-
The Rigveda is the most ancient book of the Aryan....the sacred hymns of the Brahmans stand unparalled in the literature of the whole world and their preservation might be called miraculous. (Pref. to Vol. IV of Rigveda Samhita P. LXXVIII)
ऋग्वेद आर्यजगत् की प्राचीनतम पुस्तक है। ब्राह्मणग्रन्थों की ऋचाएं संसार के साहित्य में अपूर्व हैं तथा उनके संरक्षण की विधि को अद्भुत कहा जा सकता है।
इतना ही नहीं उन्होंने वेद को ईश्वरीय ज्ञान भी स्वीकार किया। उन्होंने लिखा-
If there is a God who has created heaven and earth, it will be unjust on his part if he deprive millions of souls, born befor Moses, of his divine knowledge. Reason and comparatives study of religions declare that God gives his divine knowledge to mankind from his first appearance on earth. (Science of Religion)
द्युलोक और पृथिवीलोक का निर्माता यदि कोई ईश्वर है तो यह उसके लिए अन्यायपूर्ण बात होगी यदि वह मूसा से पूर्व उत्पन्न लोगों को अपने दिव्यज्ञान से वञ्चित रखता है। तर्क और धर्मों के तुलनात्मक अध्ययन से यह बात स्पष्ट है कि प्रभु मनुष्य के पृथिवी पर प्रादुर्भाव के समय ही उसे अपना दिव्यज्ञान प्रदान करता है।
वेद संसार का प्राचीनतम ग्रन्थ है, अतः वह निश्चय ही ईश्वरीय ज्ञान है। ऋग्वेद की प्रशंसा करते हुए उन्होंने कहा-
यावत्स्थास्यन्ति गिरयः सरितश्च महीतले। तावदृग्वेदमहिमा लोकेषु प्रचरिष्यति॥
जब तक पृथिवी पर नदियाँ और पर्वत रहेंगे तब तक संसार के मनुष्यों में ऋग्वेद की महिमा का प्रचार होगा। - स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती
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