स्वतंत्रता की रजत जयन्ती के अवसर पर संसद के केंद्रीय कक्ष में जो समारोह हुआ उसमें हिन्दी के भाषण सुनकर लगा देश में हिन्दी आ गयी है। राष्ट्रपति महोदय के अंग्रेजी भाषण और उनके अटकते हिन्दी अनुवाद ने तो जरूर कुछ कानों को नोंचा। पर प्रधानमन्त्री, उपराष्ट्रपति और लोक सभा अध्यक्ष के हिन्दी भाषणों की भाषा और भाव दोनों जानदार थे। कहीं हमारी संसद और विधानमण्डलों में भी यह स्थिति पैदा जायें। हिन्दी आज पच्चीस साल बाद भी राजनीतिक दांवपेंचों और विदेशी षड्यंत्रों के जाल में फंसी कराह रही है। पर इसके लिए क्या कोई और नया गांधी आएगा जो हिन्दी के बन्धन खोलेगा?
स्वराज्य से पहले तो अंग्रेजों ने हिन्दी के पैरों में बेड़ियां डाल राखी थी। पर आज तो वह भी वहां नहीं हैं। हिन्दी जा दुर्भाग्य, जो आज उसके लिए अपने ही पराये बने हुए। जब जनता में जायेंगे, तब तो जनता की भाषा में बोलेंगे। पर जब संसद और सरकारी कार्यालयों में पहुंच तो फिर दासता का वही पुराना अभिशाप उनके मुंह और कलम पर आकर सवार हो जायगा। इसके प्रयोग में संकोच अनुभव करने की बजाय गौरव अनुभव करते हैं। नेताओं की देखादेखी सरकारी कर्मचारियों में भी जो लहर आयी थी, वह भी ठंडी पद गयी। पहले बड़ी तेजी से वह हिन्दी सीखने लगे थे। हिन्दी भाषी और अहिन्दी भाषी कर्मचारियों में होड़ लग गयी थी। पर अब तो जिन लाखों अहिन्दी भाषी कर्मचारियों ने हिन्दी सीखी थी, वह भी इसके प्रयोग का अवसर न मिलने से भूलते जा रहे हैं।
स्वतंत्रता संग्राम में देश के छोटे बड़े सभी नेता हिन्दी को देश की राष्ट्रभाषा बनाने के लिए प्रयत्नशील थे। एक बार पराधीन भारत में गांधी जी से किसी ने पूछा-बापू! आप तो कहते हैं हमारे बच्चे अंग्रेजी न पढ़ें पर हिन्दी को तो पुस्तकें ही नहीं मिलती। अब बच्चे स्कूलों में अंग्रेजी न पढ़ें तो क्या करें? उन्होंने कहा- 'जब तक हिन्दी की पुस्तकें तैयार न हों स्कूलों का वहिष्कार करें पर अंग्रेजी पढ़कर अपना दिमाग गिरवी न रखें।' स्वयं नेहरू जी ने भी नैनी जेल से जो पत्र अपनी प्रिय पुत्री को लिखे हैं, स्वयं उनमें एक जगह अपनी हिन्दी संबंधी अनभिज्ञता पर ग्लानि अनुभव की है। नेहरू जी ने अपने पत्र में लिखा-हमारे देश में गुलामी की जड़ें कितनी गहरी पहुंच गयी हैं? अंग्रेजी भाषा उनका सबसे बड़ा प्रमाण हैं। हम उसके प्रयोग को गौरव की बात समझने लगे हैं। पर संयोग की बात स्वयं नेहरू जी ने जिस पत्र में यह लिखा उनका वह पत्र भी अंग्रेजी में ही था। इसलिए पत्र में उन्होंने लिखा-इन्दिरा ! तुम सोचोगी मैं भी कितना धोखेबाज हूं। जिस भाषा में पत्र लिख रहा हूं उसी को गुलामी का प्रतीक भी बता रहा हूं। लेकिन यह मेरी कमजोरी है क्योंकि आरम्भ में ही मेरी सारी शिक्षा-दीक्षा इसी भाषा के माध्यम से हुई है। अब में यहां हिन्दी सीखने का प्रयत्न कर रहा हूं। प्रधानमंत्री बनने के बाद नेहरू जी की इच्छा थी हिन्दी जल्दी अंग्रेजी का स्थान ले। पर वह जिस माहौल में थे, उससे अधिक सफल न हो सके। मंत्रिपरिषद में हिन्दी के लिए सहारा देने वाला ही कोई सदस्य नहीं था। कोई गांधी भी उन दिनों देश में ऐसा नहीं रह गया था जो सरकार को इसके लिए ललकारता। इसी में बात बिगड़ती चली गयी और होते-होते १९९५ भी आ गया, जब हिन्दी को राजभाषा के आसन पर बैठना था। अब तो लगता है न जाने कितने पन्द्रह साल और अभी आयेंगे।
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वेद कथा - 60 | Explanation of Vedas | वेद का शान्ति सन्देश
गुरुत्व दायित्व - हिन्दी भाषी राज्यों और उनके विश्वविद्यालयों पर तो राजभाषा संबंधी संविधान के पवित्र व्रत को निभाने का और भी गुरुतर दायित्व है। इन राज्यों की चौबीस करोड़ आबादी में सारे देश का चालीस प्रतिशत से भी अधिक भाग आ जाता हैं यदि हिन्दी इन सात राज्यों में ही चल पड़ी होती तो आज उसको यह दिन न देखने पड़ते? केंद्रीय सरकार ने पीछे हिन्दी में हर विषय की मौलिक पुस्तकें तैयार कराने के लिए सात करोड़ रूपये हिन्दी भाषी सात राज्यों को दिए थे। पर मध्यप्रदेश को छोड़कर उस दिशा में भी कहीं कोई विशेष प्रगति अभी नज़र नहीं आयी। यों हिन्दी के हक में घंटो-घंटों उन राज्यों के मन्त्री भाषण दे देंगे, पर हिन्दी के लिए जो उनका दायित्व है, उसे वह अभी पूरी तरह अनुभव नहीं कर रहे। केंद्रीय सरकार यदि ह्रदय से हिन्दी और भारतीय भाषाओँ की उन्नति में विश्वास रखती है तो केंद्र में इसका एक पृथक भाग ही खोले।
कहां का न्याय - कुछ लगन वाले और अनुभवी व्यक्ति वहां बिठाये जाएं और एक निश्चित कार्यक्रम बनाकर उसकी प्राथमिकताएं निर्धारित कर दी जाएं। दुर्भाग्य से अब तक प्रायः यह विभाग उन्ही हाथों में अधिक रहा, जो अन्दर से हिन्दी समर्थक नहीं रहे। बल्कि यों भी कह दिया जाए तो संभवतः बात और अधिक स्पष्ट हो जाए--उल्टे वे उसके विरोधी ही थे। और यदि सरकार पच्चीस साल बाद इस निष्कर्ष पर पहुंच गयी है- हिन्दी के साथ मोह वाली बात ही अधिक है। व्यवहार में अंग्रेजी ही अब राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय दोनों स्तरों पर चलेगी तो फिर बात दूसरी है। लेकिन अगर ऐसा भी है तो फिर एक बार साहस बटोरा कर बात भी साफ कर देनी चाहिए। क्यों लाखों युवकों का भविष्य अंधकार में किया जाए ? उनके अपने बच्चे तो अंग्रेजी माध्यम से पढ़कर सरकारी और गैर-सरकारी सभी बड़ी-बड़ी नौकरियों पर छाए रहें और दूसरे हिन्दी माध्यम से उपाधियाँ लेकर जूतियाँ चटकाते फिरें, यह कहाँ का न्याय है ?
बाधक चट्टानें - हिंदी के प्रयोग में प्रशासन और न्यायालय दो ही सबसे अधिक बाधक चट्टानें बताई जाती है। इनमें अंग्रेजी के अभ्यस्त कुछ पुराने ऐसे खुर्राट जमे हुए हैं- जो न स्वयं कुछ करें और न दूसरों को कुछ करने दें। हिन्दी में काम करने वालों को प्रोत्साहन देने के बजाय और उल्टा हतोत्साहित करते हैं। सरकार इनके लिए भी अब कोई मजबूत कदम उठाए। प्रारम्भ में कुछ वर्षों तक इन दोनों जगहों पर अच्छे कुशल अनुवादकों की व्यवस्था करनी होगी। यह लोगो अंग्रेजी से हिन्दी और हिन्दी से अंग्रेजी के अतिरिक्त और भारतीय भाषाओँ में भी साथ-साथ अनुवाद देते रहे हैं। ऐसे अनुवादकों में शब्दावलि की एकरूपता लेन के लिए उनके प्रशिक्षण के स्थान और पाठविधि में भी साम्य होना बहुत जरूरी है। जहां तक जनता के व्यवहार की भषा का सम्बन्ध है वह तो अपने आप मंजते-मंजते मंज जायेगी। इसमें आकाशवाणी और हिन्दी समाजचार पत्रों का योगदान अब तब अच्छा सहायक हो रहा है। उच्च न्यायालयों में तो हिन्दी में इक्के-दुक्के निर्णय दिये भी जाने लगे हैं। ऐसे न्यायाधीशों के अभिनन्द और सम्मान की भी उपयुक्त व्यवस्था होनी चाहिए। ऐसी बात उन वकीलों के सम्बन्ध में भी है जो हिन्दी में बहस करें। राष्ट्र के सर्वोच्च पदों पर आसीन होने के लिए भी ईमानदारी, सेवा, चरित्र और अनुभव के साथ-साथ उनका देश की भाषा का ज्ञान अनिवार्य होना चाहिए। राष्ट्रीय अवसरों पर उनका यह अज्ञान बड़ा अखरता है।
उल्टी गंगा - सरकार की उल्टी गंगा बहती देखकर समाज पर भी उसका विपरीत प्रभाव हो रहा है। व्यापारियों के खातों में गुलामी के दिनों में भी अंग्रेजी नहीं प्रवेश कर पायी थी। दो ही क्षेत्र ऐसे उन दिनों बचे थे जो गुलामी की हवाओं से दूर थे- व्यापारियों के बही-खाते और महिलाओं के गीत। इन दोनों ने कभी अंग्रेजी की दासता स्वीकार नहीं की। पर महिलाएं तो अभी बची हुई हैं, लेकिन बही-खातों में तेजी से अंग्रेजी का दखल होता जा रहा है। जो अंग्रेजी का ए.बी.सी.डी. भीनही जानते उनके भी निमन्त्रण पत्र अंग्रेजी में छप रहे हैं। घरों में मम्मी-डैडी और अंकल-आंटी का दौरदौरा शुरू हो गया है। सिनेमा तो इन शब्दों के प्रचार में और भी दो कदम आगे बढ़ गया है। अंग्रेजी सभ्यता और शांदों का अवैतनिक प्रचारक-सा वह हो गया है। यदि यह प्रवाह इसी गति से चला तो पता नहीं गाड़ी कहाँ जाकर रुकेगी।
स्वराज्य और हिन्दी - हिन्दी सेवा संस्थाओं ने कभी समाज ने अपनी भाषा के प्रयोग को गौरव का विषय समझने में अच्छा योगदान किया है। पराधीन भारत में साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन कांग्रेस के बाद दूसरा महत्वपूर्ण और राष्ट्रीय अधिवेशन माना जाता था। गांधी जी, राजेंद्र बाबू, टण्डन जी उसमें उतनी ही रूचि लेते थे। पर स्वतंत्रता के बाद ये राष्ट्रीय संस्थाएं पहले तो विवादों में फसीं रही और अब परीक्षा लेने की मशीन सी बन रही हैं। हिन्दी साहित्य सम्मेलन इन तीनों को विशेष रूप से इस दिशा में कुछ सोचना चाहिए। दायित्व दूसरों का भी कुछ कम नहीं है। पर उनका तो जन्म ही केवल इसके लिए हुआ है। दिल्ली के केंद्रीय सचिवालय हिन्दी परिषद् ने प्रशासन में हिन्दी का प्रयोग बढ़ाने के लिए जरूर कुछ हाथ-पैर मारे हैं। पर उनका तो अपना एक सिमित क्षेत्र ही है। कुछ ऐसे हिन्दी सेवी संगठन और व्यक्ति भी अहिन्दी भाषी क्षेत्रों में हैं जो राष्ट्रीय कोष से हिन्दी के नाम पर अच्छी राशि ले रहे हैं, पर काम अन्दर से हिन्दी विरोध में कर रहे हैं। खायें खसम का और गीत गायें भैयों के, वाली नीति भी हिन्दी का अहित साधन करने में सहायक हो रही है। ऐसे कृपालुओं पर भी निगाह रखना बहुत जरुरी है।
भारत में यदि हिन्दी चल पड़ती तो हिन्दी को अंतर्राष्ट्रीय भाषा बनने में भी शायद देर न लगाती। प्रारम्भ में तो एक बार दुनिया के कई प्रमुख देशों में जिनकी अपनी भाषा है उन्हीं में कोई उत्साह विशेष नहीं है तो हम क्यों व्यर्थ का सर दर्द मोल लें। दूसरे देशो में काम कर रहे हमारे राजदूतावास भी उसी दिशा में सर्वथा निष्क्रिय बने हुए हैं। दूसरों को क्या वह प्रेरणा देंगे उनके अपने यहां ही हिन्दी का जानबूझ कर बहिष्कार किया जा है। पारस्परिक बातचीत में भी उन्हें हिन्दी बोलने में शर्म आती है। इसी नीति का परिणाम है जो सयुक्त राष्ट्रसंघ में पचपन करोड़ आबादी वाले देश की भाषा का कोई स्थान नहीं है। अंग्रेजी के अच्छे विद्वान् होते हुए भी दुनिया के दूसरे देशो के प्रमुख राष्ट्र नेता बाहर जाकर अपनी भषा में ही बोलना राष्ट्र स्वाभिमान का प्रतिक मानते हैं। जिसकी गरज हो वह उसके अनुवाद की व्यवस्था करे। पर इधर एक हम भी हैं, जो आज भी पचीस साल बाद दासता युग की भषा का बोलना बड़प्पन की निशानी समझ रहे हैं। समय बदलने तो जरूर, देर तक तो नया भारत विडम्बना का शिकार नहीं रह सकेगा पर तब तक स्वदेशाभिमान का मापदण्ड बहुत नीचे आ चूका होगा। - पंडित प्रकाशवीर शास्त्री