विशेष :

परमेश्‍वर व्रतपति हैं

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ओ3म् अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि तच्छकेयं तन्मे राध्यताम्।
इदमहमनृतात्सत्यमुपैमि॥ यजुर्वेद 1.5॥

शब्दार्थ- अग्ने = हे अग्नि स्वरूप ! व्रतपते = व्रतों = कर्मों के स्वामी ! नियमों के नियामक ! मैं व्रतम् = प्रस्तुत कर्म, संकल्प को चरिष्यामि = व्यवहार में लांऊगा, मैं यह व्रत करना चाहता हूँ। तत् = संकल्प में लाये गए इस व्रत को शकेयम् = कर सकूं। मे = मेरा तत् = वह संकल्पित व्रत राध्यताम् = सिद्ध हो, सफल हो, पूर्ण हो। मेरा अभीष्ट व्रत है कि अहम् = मैं अनृतात् = झूठे व्यवहार से इदम् = इस सत्यम् = सुनिश्‍चित, छल रहित, यथार्थ व्यवहार को अर्थात सत्यपथ दर्शाने वाले वेद को उपैमि = प्राप्त होऊं, ग्रहण करूं। उस वेद का अध्ययन, मनन और पालन करूं।

व्याख्या- इस मन्त्र के अग्नि और व्रतपति शब्द जहाँ समझने योग्य हैं, वहाँ अनृत् = न + ऋत का ऋत शब्द तथा सत्य शब्द का शब्दार्थ और इनका अन्तर भी समझने योग्य है।

हम सर्वत्र अपने कर्म की सफलता चाहते हैं। यह सर्वसम्मत मान्यता है कि झूठ से काम बिगड़ता है और प्रत्येक कर्म अपने-अपने सम्बद्ध सत्य से सफल होता है। तभी तो कहा जाता है- सत्यमेव जयते (मुण्डक उपनिषद 3.1.6)। अतः प्रत्येक कार्य में अनृत को छोड़कर सत्य को स्वीकार करना चाहिए। अपने चारों ओर फैली प्राकृतिक सचाईयों से व्यावहारिक सचाईयों को समझें और उपनायें।

विशेष- अग्ने शब्द अग्नि का सम्बोधन रूप है। अग्नि = आग, प्रकाशरूप, दाह-पाक-गमन क्रियायुक्त। अगुआ, अग्रणी आदि अग्नि के समान अर्थ वाले शब्द हैं। अतः जो जहाँ अगुआ या अग्रणी है, वह वहाँ अग्नि शब्द से पुकारा जा सकता है। अग्नि अपने में आए हुए को अपने जैसा बना लेता है। व्रतपते व्रतपति का सम्बोधन है। व्रत और पति का मेल ही व्रतपति है। व्रत = कर्म, नियम, संकल्प अर्थ में है। व्रत वरा, चुना, स्वीकारा जाता है। निरुक्त में अन्न अर्थ भी व्रत का कहा है। वह देह को आवरण = चारों ओर से घेरता = पुष्ट करता है। वैसे व्रत = उपवास या कायाकल्प चिकित्सा में विशेष अन्न = भोज्य पदार्थ वरा जाता है। पति शब्द पालक, स्वामी अर्थ में प्रसिद्ध है।

ऋत- ऋ = गति, जिसकी जैसे गति = क्रिया, स्थिति, व्यवस्था, नियम है। अतः प्राकृतिक रूप, रहस्य, तत्त्व का विशेषतः वाचक है। ऋत- Right.

सत्य - तीनों कालों, सभी स्थानों पर जो एक सा रहे। जिसमें किसी प्रकार का छल-कपट-धोखा-छिपास नहीं है। जो यथार्थ है, यथा+अर्थ, अर्थ के अनुसार, जो जैसी वस्तु, स्थिति है वैसा ही कथन, लेखन, चित्रण, वर्णन।

ऋत और सत्य प्रायः एक ही अर्थ में लिये जाते हैं। दोनों में अन्तर की दृष्टि से ऋत = प्राकृतिक तत्त्व, जल आदि सबके प्रति एक सा व्यवहार, स्वभाव रखते हैं। मार्ग पर किस हाथ चलना चाहिए? चलना (क्रिया) समान होते हुए भी देश-प्रशासन के भेद से दिशा भेद हो जाता है। अतः कहीं मार्ग के दाहिनी ओर और कहीं बांई ओर। इसीलिए यह बात सर्वत्र एक सी नहीं होती। इसमें व्यवहार, व्यवस्था के अनुरूप भेद रहता है। अतः यह व्यावहारिकता सत्य में गिनी जाती है।

भाव तरंग- हे अग्निस्वरूप प्रभु! आप सबके अगुआ हो। आप ही आगे से आगे ले चलने वाले हो। आप अपने समीप आने वाले को अपने जैसा सशक्त, शुद्ध बनाने वाले हो। हे व्रतपति ! आप ही व्रतों = कर्मों, नियमों के स्वामी हो। आपके कर्म, नियम हमारे चारों ओर प्रतिक्षण हो रहे हैं। आप ही इन प्राकृतिक कर्मों को सम्भालने, चलाने वाले हैं। आपके ये प्राकृतिक कर्म, नियम अटल, अटूट हैं और सबके लिए एक से हैं। हम अपनी शुभकामना लेकर आपकी शरण में आए हैं। अतः हमें इतनी शक्ति, मति, धृति दीजिए कि सदा एतदर्थ हम प्रयासरत रहें। इस प्रकार उस-उस कर्म के अनुरूप सचाई को समझें और उसके पालने में कटिबद्ध हों। सफलता की चाहना रखते हुए असम्बद्ध बातों में न उलझें। सदा अड़चनों, बाधाओं को पार करते हुए सही मार्ग को ही अपनावें। प्रथम सत्यपथ को समझें, पुनः उसके अनुरूप आचरण के लिए सदा यत्नशील हों, जिससे सर्वत्र सफलता प्राप्त करने में समर्थ हों। (वेद मंथन)

वेद मंथन, लेखक - प्रा. भद्रसेन वेदाचार्य एवं संपादक - आचार्य डॉ. संजय देव (Ved Manthan, Writer- Professor Bhadrasen Vedacharya & Editor - Acharya Dr. Sanjay Dev) Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev | घर की सुख और शांति के वैदिक उपाय | सफलता का विज्ञान | वेद कथा - 98 | यजुर्वेद मन्त्र 1.1 की व्याख्या | Explanation of Vedas | Yajurveda explained in Hindi