विशेष :

आत्मोद्धार के साधन

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ओ3म् त्रिभिः पवित्रैरपुपोद्ध्यर्कं हृदा मतिं ज्योतिरनु प्रजानन्।
वर्षिष्ठं रत्नमकृत स्वधाभिरादिद् द्यावागृथिवी पर्यपश्यत्॥ (ऋग्वेद 3.26.8)

शब्दार्थ- (हृदा) हृदय से (मतिम्) ज्ञान तथा (ज्योतिः) प्रकाश को (अनु प्रजानन्) उत्तमतापूर्वक प्रकट करता हुआ (त्रिभिः) तीन (पवित्रैः) पवित्रकारक साधनों से (हि) निस्सन्देह (अर्कम्) पूजनीय आत्मा को (अपुपोत्) निरन्तर पवित्र करता है। (स्वधाभिः) अपनी शक्तियों से (वर्षिष्ठम्) सर्वश्रेष्ठ (रत्नम्) आत्मारूपी रत्न को (अकृत) बनाता है (आत् इत्) तत्पश्‍चात् वह (द्यावापृथिवी) समस्त संसार को (परि अपश्यत्) तिरस्कारपूर्ण दृष्टि से देखता है।

भावार्थ- प्रत्येक मनुष्य को अपने आत्मा का उद्धार करना ही चाहिए। इस मन्त्र में आत्मोद्धार के साधनों का वर्णन है-
1. मनुष्य अपने हृदय से ज्ञान-ज्योति को उत्तमता से प्रकट करे। ज्ञान से कर्म होता है और ज्ञानपूर्वक कर्म करने का नाम ही उपासना है।
2. ज्ञान, कर्म और उपासना इन तीन साधनों से आत्मा पवित्र होता है।
3. यह आत्मारूपी रत्न ऐसे ही पवित्र नहीं हो जाता, इस रत्न को बनाने के लिए स्वधा=शक्ति लगानी पड़ती है। पुरुषार्थ करना पड़ता है, जी जान से जुटना पड़ता है।
4. जब मनुष्य इस आत्मरूपी रत्न को पा लेता है तब इसके समक्ष उसे संसार के सभी पदार्थ हेय और तुच्छ दीखते हैं जैसे हीरा पाने वाले को मिट्टी का ढेला हेय लगता है।
आओ! इस आत्मारूपी रत्न को पाने का प्रयत्न करें। - स्वामी जगदीश्‍वरानन्द सरस्वती (दिव्ययुग- जून 2013)

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