कृषि में फसल की उत्पत्ति, रक्षण एवं परिपाक के लिए वायु तथा सूर्य का उचित मात्रा में सम्पर्क आवश्यक है। सूर्य की धूप, ताप आदि की न्यूनता से कृषि में अपरिपक्वता रहती है। अतः वायु तथा सूर्य की विविध शक्ति एवं गतियों को कृषि कार्य के साथ जानना आवश्यक है।
इस विषय में यजुर्वेद में कामना की गई है कि-
वायुः पुनातु सविता पुनात्वग्नेर्भ्राजसा सूर्यस्य वर्चसा। वि मुच्यन्तामुस्त्रियाः॥113
अर्थात हल चलाने गर खेत से वायु पवित्र करे, सविता देवता पवित्र करे, अग्नि के तेज से यह स्थान पवित्र हो तथा सूर्य के प्रकाश से यह स्थान संस्कारित हो। तत्पश्चात गौ-पुत्र बैलों से मुक्त कर दिया जाए।
कृषि के कार्य को उत्तम रीति से करना चाहिए। तभी अच्छे अन्नों की उत्पत्ति होकर राष्ट्र की समृद्धि हो सकती है। यजुर्वेद में सुसंस्कृत कृषि एवं अन्न की वृद्धि के लिए अनेक प्रकार के उपायों का उल्लेख है। इनमें से एक उपाय कृषि के साथ ‘यज्ञ’ का उपयोग है। यजुर्वेद में उल्लेख है- कृषिश्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम्।114 अर्थात् यज्ञ के द्वारा कृषि समर्थ बने।
यज्ञ से तथा यज्ञ की भस्म से पृथ्वी समर्थ एवं शक्तिशाली बन जाती है तथा इसकी उत्पादन सामर्थ्य बढ जाती है। यज्ञ के द्वारा कृषि के लिए वायु को भी उपयुक्त बनाया जा सकता है- मरुतश्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम्॥115
कृषि तथा वायु आदि के समर्थ होने पर पृथ्वी से उत्पन्न होेने वाला ऐश्वर्य यज्ञ के द्वारा समर्थ बने।
वाजश्च मे प्रसवश्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम्॥116
यजुर्वेद में अन्नादि खाद्य पदार्थों के मधुरादि गुण सहित होने की कामना की गई है- मधुमतीर्न इषस्कृधि॥117
Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev
Ved Katha Pravachan _27 | Vedic Secrets of Happy Life & Happiness | सुखी जीवन के रहस्य
यजुर्वेद में अन्न बीजों को औषधियों एवं रसों से युक्त करके वपन करने का उल्लेख किया गया है- सं वपामि समाप औषधिभिः समोषधयो रसेन॥118
इस बोयी हुई भूमि में उत्तम औषधियों से उत्पन्न विशिष्ट गुणयुक्त जल सम्पृक्त हों तथा मधुर रस युक्त औषधियों से निष्पन्न मधुर रस से यह कृषि बीज सम्पृक्त हों-
सं रेवतीर्जगतीभिः पृच्यन्तां सं मधुमतीर्मधुमतीभिः पृच्यन्ताम्॥119
अन्नों में मधुरादि गुण उत्पन्न होने के लिए यजुर्वेद में घी, मीठा एवं जल आदि से संस्कार युक्त कृषि द्वारा अन्न सिद्ध किए जाने का उल्लेख आता है-
घृतेन सीता मधुना समज्यतां विश्वैर्देवैरनुमता मरुद्भिः। ऊर्जस्वती पयसा पिन्वमानास्मान्त्सीते पयसाभ्यां ववृत्स्व॥120
अर्थात् सब अन्नादि पदार्थों की इच्छा करने वाले विद्वान मनुष्यों की आज्ञा से प्राप्त हुआ जल या दुग्ध से पराक्रम हेतु सींचा या सेवन किया हुआ पटेला घी तथा शहद वा शक्कर आदि से संयुक्त करें। वह पटेला हम लोगों को घी आदि पदार्थों से युक्त करेगा। इसलिए इसे बार-बार वर्ताओ।121
बीजों का वपन करने से पहले दो-तीन बार भूमि को जोता जाता है तथा पटेला फेरा जाता है। यजुर्वेद के उपर्युक्त मन्त्र का भावार्थ यह है कि हलों से अच्छा प्रकार जोती हुई कृषि-भूमि पर पटेले को इस प्रकार फेरा जाए कि भूमि की मिट्टी दूध, घी, शहद आदि के परमाणुओं की रगड़ से पराक्रम देने वाली तथा मधुर गुण युक्त हो जाए। उस पटेले को बार-बार इन पूर्वोक्त पदार्थों (दूध, घी, शहद आदि) के मिश्रित जल से सिक्त करके फेरना चाहिए। इस प्रकार से सुसंस्कारित भूमि से उत्तम एवं मधुरादि गुण युक्त फसल होगी।
आज रासायनिक खादों के प्रयोग से विषाक्त प्रभाव हो रहा है। यदि इन रासायनिक खादों के स्थान पर यजुर्वेद में उल्लिखित इन पदार्थों का प्रयोग किया जाए तो विषाक्त प्रभावों से रहित फसल पैदा की जा सकती है।
उत्तम गुणयुक्त अन्न पैदा करने के लिए ‘अन्न’ को यज्ञ से समर्थ बनाने का उल्लेख यजुर्वेद में प्राप्त होता है- अन्नं च मे यज्ञेन कल्पन्ताम्॥122
यज्ञ द्वारा कृषि को अनेक प्रकार के रोगों से मुक्त रखा जा सकता है तथा शीतादि से सुरक्षित किया जा सकता है। यज्ञ में प्रयुक्त पदार्थों की हवि द्वारा पृथ्वी, जल, वायु एवं सूर्य की उष्मा को कृषि के अनुकूल बनाया जा सकता है। इसीलिए यजुर्वेद में शुनासीरा हविषा तोषमाना123 कहते हुए वायु एवं सूर्य को भी कृषि के अनुकूल बनाने का उल्लेख आता है। सब परिस्थितियाँ अनुकूल होने गर उत्तम फल अथवा धान्य से युक्त कृषि होगी, जिसका उपदेश यजुर्वेद में किया गया है-
सुसस्याः कृषीस्कृधि।124
अर्थात् उत्तम फल अथवा धान्य से युक्त कृषि कर।
यज्ञ की भस्म का प्रयोग भी कृषि के लिए अत्यन्त लाभदायक है। यह एक उत्तम प्रकार की खाद है। प्राचीन ऋषियों से अनुमोदित यज्ञ-कृषि गर आज शोध भी हो रहे हैं, जिसके अच्छे परिणाम आ रहे हैं। इस विषय में चन्द्रशेखर आजाद कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय कानपुर (उ.प्र.) के कृषि विशेषज्ञ डॉ. रामाश्रय मिश्र इस प्रकार लिखते हैं-
‘‘प्रयोगों एवं किसानों के अनुभवों से यह प्रमाणित हो चुका है कि भूमि में अग्निहोत्र की भस्म का प्रयोग करने से भूमि की उर्वराशक्ति को बढ़ाने वाले सूक्ष्म-जीवाणुओं की क्रियाशीलता बढ़ती है, केंचुओं की संख्या में वृद्धि हो जाती है तथा भूमि की जलधारण क्षमता भी बढ़ जाती है। साथ ही साथ भूमि जनित ऐसे विषाणु, जो फसलों में बीमारी पैदा करते हैं, वे भी निष्क्रिय हो जाते हैं।
प्रत्येक सिंचाई के समय खेत के बिल्कुल पास अग्निहोत्र भस्म को एक कपड़े में बान्धकर पानी की नाली में इस प्रकार लटका देना चाहिए कि पानी भस्म को घोलते हुए खेत में जाए। इसका उद्देश्य भस्म को पानी के बहाव के साथ पूरे खेत में फैलाने का होता है।
किसी भी प्रकार की बीमारी का प्रकोप या हानिकारक कीड़ों-मकोड़ों आदि का प्रादुर्भाव होने पर भस्म का घोल बनाकर तत्काल पौधों गर छिड़काव कर देना चाहिए। यह छिड़काव प्रत्येक दो-तीन दिन के अन्तर पर तब तक करते रहना चाहिए जब तक बीमारी या कीड़ों-इल्लियों का प्रभाव समाप्त न हो जाए।
फलदार पेड़ों में टूट-फूट या काट-छाँट होने पर भस्म को पानी में मिलाकर लेई जैसी बनाकर टूट-फूट या कटी जगह पर लेप जैसा लगा देने से पेड़ों की पूर्ण सुरक्षा हो जाती है।’’125
इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि वैदिक यज्ञ की भस्म न केवल वायुमण्डलीय पर्यावरण को शुद्ध करती है, वह भूमिगत पर्यावरण की वृद्धि के साथ ही कृषि विषयक विविध उपयोगों में भी लाभकारी होती है।
वेद में ‘कृषक’ के लिए जिस ‘कीनाश’ शब्द का प्रयोग हुआ है, उससे ही लौकिक ‘किसान’ शब्द बना है। यजुर्वेद में उल्लेख है- इरायै कीनाशम्॥126
अन्न के लिए किसान को प्राप्त करो।
‘कीनाश’ का अर्थ है- कुत्सितं नाशयति इति कीनाशः। जो बुरी अवस्था का नाश करता है, उसको ‘कीनाश’ कहते हैं।127
बुराई, अवनति, गिरावट, न्यूनता, हानि आदि की समाप्ति एवं दुष्काल आदि का नाश अन्न की समृद्धि से होता है। अतः अन्न को उत्पन्न करने वाला ‘कीनाश’ है। ‘कीनाश’ का लौकिक अर्थ किसान, कृषक खेती करने वाला आदि है। किसान ही राष्ट्र के अन्दर अन्न तथा धान्य की समृद्धि करके लोगों का रक्षण करता है।
किसानों के परिश्रम पर ही राष्ट्र का अन्न निर्भर है, अन्न की उत्पत्ति न हो तो ‘अकाल’ होता है। अकाल से सबकी रक्षा किसान ही करता है। ‘नाश’ शब्द का अक्षर-व्यत्यय होकर ‘शान, सान’ बना तथा ‘की-नाश’ का ‘कि-सान’बना। ‘कृषाण’ शब्द से भी ‘किसान’ शीघ्र बन सकता है। ‘कीनाश’ शब्द के इस अर्थ को देखने से ‘किसान’ का राष्ट्रीय महत्व समझ में आ सकता है।128
शतपथ ब्राह्मण के अनुसार जो किसान खलिहान से गाड़ी भरकर धान्य ले जाता है, वह समृद्ध है। अतः गाड़ी भरकर ले जाना धन्य-धान्य की प्रचुरता का प्रतीक है- भूमा हि वाऽअनस्तस्माद् यदा बहु भवत्यनो बाह्यमभूदित्याहुः।129
यज्ञ को ‘अनस्’ कहा गया है। क्योेंकि धन-धान्य की प्रचुरता पर ही यज्ञ की स्थिति निर्भर है- यज्ञो हि वा अनः॥130
राष्ट्र में या समाज में सबको आवश्यकतानुसार अन्न मिले। इसके लिए यह आवश्यक है कि अन्न की भरपूर पैदावार हो तथा उसका एक भी कण बेकार न जाए। यजुर्वेद में अन्न पकने के बाद उसकी रक्षा हेतु निम्न उल्लेख है-
यत्ते गात्रादग्निना पच्यमानादभि शूलं निहतस्यावधावति। मा तद्भूम्यामाश्रिषन्मा तृणेषु देवेभ्यस्तदुशद्भ्यो राममस्तु॥131
अर्थात् हे मनुष्य! शूल, हल आदि से खोदे गए और अग्नि रूप सूर्य द्वारा परिपक्व किए हुए खेत से जो भाग अलग रहा है, वह भाग भूमि में निकम्मा न पड़ा रहे तथा घासादि में भी न मिले। अपितु वह भाग बल चाहने वाले विद्वान पुरुषों के लिए समर्पित हो। वे उस धान्य को प्राप्त करके उसमें उत्तम पाक उत्पन्न करें।
वैदिक संस्कृति में कृषि कार्य को हेय नहीं माना जाता है, बल्कि उसे सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। कृषक क्षेत्रपति होता है, उसकी उपज पर ही समाज निर्भर होता है। यजुर्वेद में किसानों के आदर का उल्लेख है- अन्नानां पतये नमः, क्षेत्राणां पतये नमः॥132
अर्थात् अन्न को उत्पन्न करने वाले स्वामी कृषक के लिए सत्कार हो। खेतों की रक्षा करने वाले, खेतों के स्वामी कृषकों के लिए हमारा नमस्कार हो।
सन्दर्भ-सूची
113. यजुर्वेद संहिता 35.3
114. यजुर्वेद संहिता 18.9
115. यजुर्वेद संहिता 18.17
116. यजुर्वेद संहिता 18.17
117. यजुर्वेद संहिता 7.2
118. यजुर्वेद संहिता 1.21
119. यजुर्वेद संहिता 18.17
120. यजुर्वेद संहिता 12.70
121. यजुर्वेद भाषा भाष्य, पृष्ठ 419
स्वामी दयानन्द सरस्वती
122. यजुर्वेद संहिता 18.30
123. यजुर्वेद संहिता 12.69
124. यजुर्वेद संहिता 4.10
125.अग्निहोत्र कृषिक्रान्ति, पृष्ठ 64 से 67,
सम्पादक- जयन्त पोतदार
126. यजुर्वेद संहिता 30.11
127. यजुर्वेद का सुबोध भाष्य, पृष्ठ 495
पं. श्रीपाद दामोदर सातवलेकर
128. यजुर्वेद का सुबोध भाष्य, पृष्ठ 495
पं. श्रीपाद दामोदर सातवलेकर
129. शतपथ ब्राह्मण 1.1.2.6
130. शतपथ ब्राह्मण 1.1.2.3
131. यजुर्वेद संहिता 25.34
132. यजुर्वेद संहिता 16.18 - आचार्य डॉ. संजयदेव (दिव्ययुग- जून 2013) देवी अहिल्या विश्वविद्यालय इन्दौर द्वारा डॉक्टरेट उपाधि हेतु स्वीकृत शोध-प्रबन्ध