ओ3म् वि देवा जरसावृतन् वि त्वमग्ने अरात्या।
व्यहं सर्वेण पाप्मना वि यक्ष्मेण समायुषा॥ (अथर्ववेद 3.31.1)
शब्दार्थ- (देवाः) दिव्यगुण युक्त, सदाचारी, उदार विद्वान् लोग (जरसा) वृद्धावस्था से (वि अवृतन्) पृथक रहे हैं और (अग्ने) आग (त्वम्) तू (अरात्या) कंजूसी से, अदान भावना से (वि) सदा अलग रही है। (अहम्) मैं (सर्वेण) सब (पाप्मना) पाप से (वि) दूर रहूँ (यक्ष्मणे) यक्ष्मा आदि रोग से (वि) पृथक् रहूँ और (आयुषा) उत्तम तथा पूर्णायु से, सुजीवन से (सम्) संयुक्त रहूँ।
भावार्थ-
1. जैसे देव वृद्धावस्था से पृथक रहते हैं वैसे ही मैं भी पापों से दूर रहूँ। देव, परोपकारी, उदाराशय व्यक्ति कभी वृद्ध नहीं होते। शरीर के वृद्ध होने पर भी इनके मन में जवानी की तरंगें उठती हैं। जिसका मन जवान है उन्हें बुढापा कैसा ?
2. जैसे अग्नि अदान-भावना से मुक्त रहती है उसी प्रकार मैं भी रोगों से दूर रहूँ। अग्नि का गुण है ताप और प्रकाश। अग्नि अपने इन गुणों से कभी पृथक नहीं होती। यदि अपने में ये गुण न रहें तो वह अग्नि नहीं रहती, फिर तो वह राख की ढेरी बन जाती है और उसे उठाकर कूड़े पर फेंक दिया जाता है।
‘शरीरं व्याधिमन्दिरम्’ शरीर बीमारियों का घर है, ऐसा मत सोचो। हमारी तो ऐसी कामना और भावना होनी चाहिए कि जिस प्रकार अग्नि ताप और प्रकाश से युक्त होती है, मैं भी वैसा ही ओजस्वी और तेजस्वी बनूँ, आधियाँ और व्याधियाँ मेरे निकट न आएँ।
3. मैं सदा सुन्दर, शोभन एवं श्रेष्ठ जीवन से युक्त रहूँ। - स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती
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