विशेष :

अपने संकल्प को पूरा करते डरना नहीं चाहिए

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ओ3म् यज्जाग्रतो दुरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवेति।
दूरङ्गमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु॥

हे प्रभो ! आपकी कृपा से (यत्) जो यह मेरा मन (जाग्रतः) जाग्रत अवस्था में (दूरं) दूर-दूर तक (उदैति) जाता है। (दैवं) दिव्य गुणयुक्त रहता है। (तद्) वह मेरा मन (सुप्तस्य) सोते हुए का (दूरंगमं) दर-दूर जाने वाले के समान व्यवहार करता है । जो ज्योतियों का (एकम् ज्योतिः) एकमात्र ज्योति है। (तन्मे मनः) वह मेरा मन (शिवसंकल्पमस्तु) कल्याणमय संकल्पों वाला होवे ।

मन का कार्य संकल्प करना है और यह मन बड़ा ही चंचल है। इसकी चंचलता का कोई ठिकाना नहीं। यह वायु से भी अधिक गतिशील है। यह क्षणभर में अरबों-खरबों मील की यात्रा करके लौट आता है। कभी यह करोड़ों मील दूर तारों और ग्रहों में पहुंच जाता है, तो कभी राजदरबारों में। कभी यह दलितों, दीन-दुखियों की झोपड़ियों में पहुंचकर उनके दीनावस्था के चित्र बनाने लगता है, तो यह कभी पर्वतों की गगनचुम्बी चोटियों को चूमता है। कभी यह समुद्र की उत्ताल तरंगों से अठखेलियाँ करने लगता है,तो कभी वेद की गहन ऋचाओं के चिन्तन में लग जाता है। इसकी चंचलता देखकर आश्‍चर्य होता है। बिजली की चंचलता इसके सामने कुछ नहीं है। इसको समझना बड़ा कठिन है।

श्रीमद्भगवद्गीता में अर्जुन ने श्रीकृष्ण भगवान् से कहा कि मन की गति अति चंचल है-
चंचल हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्। तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्

हे कृष्ण ! मन बड़ा ही चंचल, प्रमथनशील, जिद्दी और बलवान् है। उसका निग्रह करना मैं वायु की तरह अति कठिन मानता हूँ। चंचलता के साथ-साथ यह प्रमाथी भी है। अर्थात् यह साधक को अपनी स्थिति से विचलित कर देता है। यह बड़ा जिद्दी और बलवान् भी है। इसीलिए मन को ‘बलवत्’ कहा गया है। इसका तात्पर्य यह है कि मन बड़ा बलवान् है, जो कि साधक को जबरदस्ती से विषयों में ले जाता है। शास्त्रों ने तो यहाँ तक कह दिया कि मन ही मनुष्यों के मोक्ष और बन्धन का कारण है- मन एवं मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः । इस चंचल, प्रमाथी दृढ़ और बलवान् मन का निग्रह करना बड़ा कठिन है। जैसे आकाश में विचरण करने वाली वायु को कोई मुट्ठी में नहीं पकड़ सकता, वैसे ही इस मन को कोई वश में नहीं कर सकता। अतः अर्जुन ने कहा कि मैं इसका निग्रह करना महान् दुष्कर मानता हूँ। परन्तु भगवान कृष्ण ने गीता के अगले श्‍लोक में अर्जुन को बताया कि अभ्यास और वैराग्य के द्वारा इसका निग्रह किया जा सकता है-
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् ।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वराग्येण च गृह्यते॥

अभ्यास का अर्थ है- अपना जो लक्ष्य या ध्येय है उसमें मनोवृत्ति को लगाया जाये और यदि दूसरी वृत्ति आ जाये या दूसरा कुछ भी चिन्तन आ जाये उसकी उपेक्षा की जाये। उससे उदासीन हो जाया जाये। अभ्यास का दूसरा अर्थ है- जहाँ-जहाँ मन चला जाए, वहाँ वहाँ ही अपने लक्ष्य को, इष्ट को देखें। अभ्यास की सहायता हेतु वैराग्य की आवश्यकता है। इससे संसार से राग हटेगा और मन में संसार का रागपूर्वक चिन्तन नहीं होगा। महर्षि वशिष्ठ जी ने कहा है कि मन को वश में करने में मन ही समर्थ है। योगदर्शन में कहा गया है- वितर्कबाधने प्रतिपक्ष-भावनम् । वितर्क जब आक्रमण करे तब प्रतिपक्ष की भावना करनी चाहिए। अर्थात् जब हिंसा, चोरी, झूठ, विषयासक्ति की भावना आक्रमण करे, तब सद्गुणों का चिन्तन करना चाहिए। जब हमारे ऊपर काम की आंधी उठे, तब आंधी में भी दृढ संकल्प द्वारा विजय प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए।

भारतीय दर्शन में मन की विशद व्याख्या की गयी है। पाश्‍चात्य दर्शन में ऐसी व्याख्या नहीं मिलती है। योगदर्शन में मन की परिभाषा करते हुए ऋषि ने कहा है- युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिङ्गम्। एक साथ दो ज्ञानों का उत्पन्न न होना मन का चिह्न है। अर्थात् मन में एक देश और काल में एक ही प्रकार का ज्ञान उत्पन्न होता है। जब मन में कामवासना प्रबल होती है तो मात्र वही भावना प्रबल रहती है, दूसरी नहीं । चरक संहिता में शरीरस्थान प्रकरण में मन का लक्षण लिखते हुए संहिताकार कहता है- लक्षणं मनसो ज्ञानस्याभावो भाव एव वा।
ज्ञान का भाव और ज्ञान का अभाव मन का लक्षण है। अर्थात् दो ज्ञानों का एक समय में उत्पन्न न होना मन का लक्षण है। यह मन नाना प्रकार के विचारों से युक्त रहता है। इसलिए इस मन्त्र में कहा गया है कि जैसे जागते हुए का मन दूर-दूर तक जाता है उसी तरह वह सोते हुए का भी दूर-दूर तक जाता है। हम सोते हुए अनेक प्रकार के स्वप्न देखते हैं।

यह मन एक है और असीमित शक्ति वाला है। जब हम इस मन को शिवसंकल्पों वाला बना लेते हैं तो दुनिया में हमारी विजय होती है और कोई चीज असम्भव नहीं रह जाती है। कहा गया है- क्रियासिद्धिः सत्वे भवति महतां नोपकरणे।
महान् व्यक्तियों की सफलता उनके दृढ़ संकल्पों द्वारा होती है। आचार्य चाणक्य बड़े दृढ़निश्‍चयी थे। एक दिन मगध साम्राज्य के निष्कासित महामंत्री ने चाणक्य को बड़े परिश्रम से कुश नष्ट करते हुए देखा, क्योंकि ये उनके पैरों में चुभ गये थे। शकटार ने उन्हें नष्ट करने में चाणक्य की सहायता की और सोचा कि यह व्यक्ति नन्द साम्राज्य को नष्ट करने में बड़ा उपयोगी सिद्ध हो सकता है। शकटार उन्हें अपने साथ ले गया । 

संयोगवश नन्द साम्राज्य में एक विशाल यज्ञ का आयोजन था। शकटार ने चाणक्य को पुरोहित के आसन पर बिठा दिया और स्वयं किनारे हो लिया। जब सम्राट अपने महल से बाहर निकला, तो एक काले कुरूप व्यक्ति को मुख्य पुरोहित के आसन पर बैठा देखकर उनके क्रोध की सीमा न रही। वह क्रोध भरे स्वर में गरजा- “दुष्ट ! इस आसन पर कैसे बैठ गया। भागो यहाँ से ।’’ अब क्या था! शकटार का प्रयोजन सिद्ध हो गया। चाणक्य ने सम्राट की ओर देखा, चोटी खोली और जल छिड़का तथा चिंग्घाड़ा, “सम्राट् ! तुमने मुझे बहुत अपमानित किया है। मैं इस अपमान का बदला अवश्य लूंगा। भरी सभा में मैं यह प्रतिज्ञा करता हूँ कि जब तक मैं नन्द साम्राज्य का अन्त नहीं कर लूंगा तब तक अपनी चोटी नहीं बांधूंगा।’’ अब चाणक्य गांव-गांव, जंगल-जंगल, घाटी-घाटी, पर्वत-पर्वत अपने लक्ष्य की पूर्ति हेतु घूमता रहा। उसे भूख प्यास नहीं सताती थी। अब तो वह दीवाना हो गया । अब उसे नींद और आराम कहाँ? अन्त में उसने नन्द वंश का नाश करके ही दम लिया।

नेपोलियन को अपनी सेना के साथ आगे जाना था। सामने, आल्पस पर्वत अपनी दुर्गम घाटियों, ऊँचे विकट शिखरों के साथ खड़ा था। नेपोलियन ने सेना को आगे बढ़ने का आदेश दिया। मुख्य सेनापति ने कहा कि आल्पस को पार करना असम्भव है। नेपोलियन ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘असम्भव शब्द मेरे कोष में नहीं है।’’ सेनाएं उस पार गयी और विजय करती हुई बढ़ गयी । दृढ़ निश्‍चयी व्यक्ति को लक्ष्य वेध करने से कोई शक्ति रोक नहीं सकती है।

आत्मविश्‍वास मन के विचारों की सेना का महान सेनापति है। यह मनुष्य की समस्त योग्यताओं की सामर्थ्य दुगुनी-तिगुनी बढ़ा देता है। विचारों की सारी सेना तब तक प्रतीक्षा करती रहती है, जब तक आत्मविश्‍वास आदेश न दे। बहुत से लोगों की असफलता का कारण यह है कि वे अपने आप से प्रण नहीं करते कि चाहे कुछ भी हो, मैं अवश्य विजयी बनूंगा। उनमें श्रेष्ठ आत्मविश्‍वास का अभाव होता है। मनुष्य अपने प्रयत्न की चरम सीमा तक क्यों नहीं पहुंचता? इसीलिए कि उसे अपनी विजय का अनिश्‍चय रहता है। अधूरी इच्छा, अपूर्ण शक्ति, उपेक्षापूर्ण आकांक्षा से कोई काम सफल नहीं हो सकता। हमारी आशाओं में बल होना चाहिए । हमारे विश्‍वास में शक्ति होना चाहिए तथा हमारे प्रयत्न अबाध होेने चाहिएं। हमें उस महाशक्ति से अवश्य सम्बन्ध जोड़ना चाहिए जो सब कुछ कर सकती है।

जिस प्रकार एक निश्‍चित उष्णता ही लौहखण्ड को गला सकती है, उसे साँचे में ढालने योग्य बना सकती है, जिस प्रकार विद्युत शक्ति की एक निश्‍चित मात्रा ही हीरे को गला सकती है, उसी प्रकार उद्देश्य की एक निश्‍चित सघनता ही सफलता दिला सकती है। आधे मन से की गई इच्छा कभी पूरी नहीं होती है। आपमें जितनी शक्ति है उससे अपने अंदर आत्मविश्‍वास पैदा कीजिए। आपके अंदर जितनी सघनता है उसे संपूर्णता के साथ आत्मविश्‍वास की स्थापना में लगाइए। यदि आपने आत्मविश्‍वास जगा लिया तो निःसंदेह आप अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेंगे।•

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