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माता-पिता एवं बच्चों के पारस्परिक सम्बन्ध

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प्राचीन समय से ही समाज में माता-पिता एवं बच्चों के पारस्परिक सम्बन्धों के आधार विषय पर पर्याप्त चिन्तन होता रहा है। क्योंकि यह एक महत्वपूर्ण मुद्दा है जो बच्चों के विकास को प्रभावित करता है और बच्चों का विकास भावी समाज को। माता-पिता एवं बच्चों के मध्य जितने स्वस्थ सम्बन्ध होंगे बच्चे का उतना ही अधिक विकास सम्भव हो सकेगा। इन सम्बन्धों को लेकर अनेक मान्यताएँ व्यवहार में आईं और ध्वस्त भी हो गईं। क्योंकि समाज परिवर्तनशील है और उसी के अनुरूप हमारे सम्बन्ध भी। आज न केवल विद्यालयों में किसी भी प्रकार के शारीरिक दण्ड अथवा मानसिक प्रताड़ना पर पूर्ण प्रतिबन्ध है, अपितु घर पर माता-पिता भी बच्चों के साथ भेदभाव नहीं कर सकते, उनके साथ मारपीट अथवा बर्बर व्यवहार नहीं कर सकते। लेकिन कोई भी मान्यता चिरस्थाई नहीं हो सकती। अतः आज एक बार फिर इस विषय पर चर्चा की आवश्यकता अनुभव की जा रही है।

माता-पिता का बच्चों के प्रति कैसा व्यवहार हो और क्यों? माता-पिता बच्चों के साथ कठोरता से पेश आएँ अथवा नरमी से? बच्चों को हमेशा भयभीत रखें अथवा उन्हें भयमुक्त वातावरण उपलब्ध कराएँ? उन्हें प्रेम रूपी बरगद की घनी छाँह से आच्छादित रखें अथवा प्रेमरहित शुष्क रेगिस्तान में तपने के लिए छोड़ दें? माता पिता द्वारा बच्चों के प्रति विभिन्न स्तरों के व्यवहार की क्या आवश्यकता है? वास्तव में इसकी आवश्यकता है बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए, ताकि वे समाज के उपयोगी अंग बन सकें। अपना स्वयं का विकास ही नहीं कर सकें, अपितु समाज के विकास में भी पर्याप्त योगदान दे सकें। व्यक्ति, समाज और देश सभी के विकास के लिए यह अनिवार्य है।

जहाँ तक प्रेम का सम्बन्ध है, सभी प्रकार के सम्बन्धों का आधार प्रेम ही होना चाहिए। प्रेम के बिना सम्बन्धों में स्थायित्व हो ही नहीं सकता। बच्चों के सन्दर्भ में इसे वात्सल्य अथवा लाड़-प्यार भी कह सकते हैं। वात्सल्य अथवा लाड़-प्यार बच्चे को सुरक्षा का अहसास कराता है। भावनात्मक रूप से असुरक्षित बच्चे का सम्पूर्ण विकास असम्भव है। बच्चों पर वात्सल्य की वर्षा करें लेकिन इतना लाड़-प्यार भी नहीं कि वे उच्छृंखल हो जाएं। उन्हें खूब प्यार करें लेकिन गलत बात पर टोकना भी निहायत जरूरी है। टोकने का अर्थ अपमानित करना नहीं होता। उन्हें प्यार से उनकी गलती समझाएँ और दूर करने का आग्रह करें। न करने पर अपनी नाराजगी प्रकट करना भी न भूलें।

कभी-कभी बच्चों पर गुस्सा भी आ जाता है। लेकिन आपके गुस्से से बच्चा अपमानित अनुभव न करें इस बात का अवश्य ध्यान रखें। बहुत ज्यादा नसीहत देना भी ठीक नहीं। बहुत ज्यादा नसीहत और गलतियाँ निकालने से बच्चे में उदासीनता और अपराध बोध का भाव घर कर जाएगा जो उसके स्वाभाविक संतुलित विकास में बाधक होगा। सफल होने पर उसकी प्रशंसा करें लेकिन असफल होने पर गलतियाँ निकालने की बजाय उसे सही करने के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित करें।

माना कि दूसरे कुछ बच्चे आपके बच्चों से अच्छे हैं लेकिन बार-बार दूसरों से उनकी तुलना न करें। इससे उसके मन में कमतरी का अहसास पैदा होता है। आपने सुना होगा कि एक पिता ने अपने बेटे से कहा कि पता है लाल बहादुर शास्त्री जब तुम्हारी उम्र के थे तो नदी पार करके कई किलोमीटर पैदल चलकर स्कूल जाते थे। इस पर बेटे ने कहा कि लालबहादुर शास्त्री जब आपकी उम्र के थे तो भारत के प्रधानमन्त्री थे। उनको श्रम के प्रति प्रेरित कीजिए, कम सुविधाएं दीजिए, लेकिन प्रदान की जाने वाली सुविधाओं के लिए बार-बार अहसास मत दिलाइए। वह भी अपने बचाव के तरीके खोजने में पीछे नहीं रहेगा।

माता पिता प्रायः सोचते हैं कि हमारा बच्चा तो बहुत अच्छा है लेकिन उसकी संगति अच्छी नहीं है। कॉलोनी के आवारा बच्चों के साथ रहकर बिगड़ गया है। बच्चा जब भी कोई गलती करता है तो उसके दोस्तों को बुरा-भला कहने लगते हैं। भूलकर भी उसके दोस्तों को बुरा-भला न कहें, क्योंकि इससे उसके चुनाव पर आक्षेप लगता है। अपने बच्चों को ही नहीं उनके दोस्तों को भी सम्मान और प्यार दीजिए।

गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं :-
विनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति,
बोले राम सकोप तब भय बिनु होहि न प्रीति।
यहाँ गोस्वामी दुलसीदास भय का पक्ष लेते दिखलाई पड़ रहे हैं, लेकिन जड़ता को दूर करने के लिए। जहाँ विनय, विनम्रता अथवा प्रेम काम न करे और सुधार अनिवार्य हो वहाँ, भय, दण्ड अथवा कठोरता का सहारा लेना भी अनुचित नहीं कहा जा सकता। लेकिन यह भय एक औषधि, एक उत्प्रेरक तत्व की तरह काम करे न कि विष की तरह। एक भला आदमी यदि अपनी छवि के प्रति थोड़ा सतर्क, थोड़ा भयभीत रहता है तो ही वह अपने सद्गुणों को थामे रहता है। एक अच्छा बच्चा भी किञ्चित भय के वशीभूत अपनी अच्छी आदतों को खिसकने नहीं देता तथा कई आदतों का समावेश भी करता रहता है। लेकिन भय सात्विक हो।

जनरेशन गैप हमेशा से ही एक बड़ी समस्या रही है। क्या कारण हैं इस समस्या के? वास्तव में जनरेशन गैप तभी पैदा होता है जब हम समय के साथ खुद को परिवर्तित करने में असमर्थ रहते हैं। प्रायः एक वाक्य सुनने को मिलता है और वो यह है कि क्यों बच्चों के साथ बच्चे बने हुए हो? वस्तुतः जब तक हम बच्चों के साथ बच्चे नहीं बन जाते हैं उन्हीं की तरह तुतलाकर नहीं बोलते हैं, तब तक उनसे पूरी तरह तादात्म्य स्थापित नहीं कर पाते हैं। यही बात युवाओं के सन्दर्भ में भी उतनी ही सही है। परिवर्तन के अनेक स्तर और स्वरूप हैं। हम चाहे स्वयं ऊपरी तौर पर न बदलें लेकिन अन्दर से बदलना अनिवार्य है। परिवर्तन तथा परिवर्तित समाज को स्वीकारना अनिवार्य है। हम चाहे स्वयं न बदलें लेकिन नई जनरेशन के परिवर्तन को स्वीकार करें। यह परिवर्तन का स्वातविक तत्व है।

विचारों में परिवर्तन द्वारा ही हम अपना दृष्टिकोण बदल सकते हैं और विचारों में परिवर्तन द्वारा ही शारीरिक रूप से स्वस्थ रह सकते हैं। अस्सी वर्ष की आयु में कोई व्यक्ति पचास वर्ष का और पचास वर्ष की आयु में तीस वर्ष का नहीं दिख सकता लेकिन विचारों से तो वह चुस्त-दुरुस्त रह ही सकता है और यही विचार प्रक्रिया जनरेशन गैप को कम करने और उसे युवा बनाने में सक्षम है। जहाँ तक बाह्य परिवर्तन की बात है हम अपने पिता या दादा जैसे कपड़े कभी नहीं पहनते। इसका सीधा सा अर्थ है कि हमने परिवर्तन को स्वीकार किया है और हममें अब भी परिवर्तन की पूर्ण क्षमता और सम्भावना है, लेकिन हम बदलना नहीं चाहते। परिवर्तन के अभाव में ही तो हम नित नये तनाव मोल ले लेते हैं और अपेक्षाकृत कम आयु में ही बुढ़ापे को आमंत्रित कर बैठते हैं। परिवर्तन को स्वीकार कीजिए और जनरेशन गैप की समस्या से ही मुक्ति नहीं चुस्त-दुरुस्त बने रहकर अच्छा स्वास्थ्य भी पाइये।

एक बार गाँधी जी से जब कोई सन्देश देने के लिए कहा गया तो उन्होंने कहा कि मेरा जीवन ही मेरा सन्देश है। संसार को वही लोग ऊपर उठाते हैं तथा जीवन प्रदान करते हैं जो कोई ग्रन्थ लिखने की अपेक्षा अपना जीवन ग्रन्थ पीछे छोड़ जाते हैं। चीन के प्रसिद्ध दार्शनिक कन्फ्यूशियस ने भी कहा है कि अच्छे लोग अपने आचरण से दूसरों को उपदेश देते हैं, मुख से नहीं। कहने का तात्पर्य यह है कि मात्र मौखिक उपदेश या ज्ञान का कोई महत्व नहीं है, जब तक कोई अपने आचरण द्वरा उसे दूसरों तक नहीं पहुँचा सकता। एक अकर्मण्य व्यक्ति यदि कर्म का सन्देश देगा तो कोई उसकी बात पर ध्यान नहीं देगा, जबकि एक कर्मशील व्यक्ति को इसकी शिक्षा देने की आवश्यकता ही नहीं। क्योंकि उसका आचरण स्वयं कर्म करने की शिक्षा और प्रेरणा दे रहा है। इसी प्रकार एक अनैतिक व्यक्ति के नैतिकता विषयक सम्भाषण पर कोई ध्यान नहीं देगा।

एक सज्जन अपनी अपनी पत्नी और नन्हीं बिटिया के साथ एक दुकान पर जाते हैं और बिटिया के लिए कुछ चॉकलेट्स और चिप्स खरीदते हैं। सामान खरीदने के बाद उसे बच्ची के हवाले कर ही रहे थे कि उन्हें सहसा कुछ याद आता है और वो सामान को बच्ची को थमाने की बजाय वापस काउण्टर पर रख देते हैं तथा बच्ची से कहते हैं कि पहले अंकल को ‘थैंक्यू’ बोलो। बच्ची ये सब करने के मूढ़ में नहीं है और वह सामान की ओर हाथ बढ़ाती है। पिता डाँटने के मूड़ में आ जाते हैं और कहते हैं कि जब तक अंकल को थैंक्यू नहीं बोलोगी चॉकलेट नहीं मिलेगी। बच्ची के मन में चॉकलेट और दूसरी चीजें प्राप्त करने का लालच पैदा हो जाता है, अतः वह मरे मन से धीरे से थैंक्यू कहकर काउण्टर पर रखे सामान की ओर हाथ बढ़ाती है। पिता फिर बच्ची को डाँट देते हैं कि पहले जोर से थैंक्यू बोलो फिर सामान को हाथ लगाना। अब माँ के धैर्य का बाँध टूट गया और बच्ची की बजाय वह जोर से बोलती है कि बोल तो दिया थैंक्यू। बेचारी से अब और कितनी बार थैंक्यू-थैंक्यू बुलवाओगे? लेकिन मैंने ठीक से नहीं सुना, पिता ने कहा। बाप-बेटी को वहीं छोड़कर माँ पैर पटकती हुई दुकान से चली गई। पिता और अधिक जिद पर आ गया और बच्ची से बोला कि जब तक जोर से थैंक्यू नहीं बोलोगी तब तक तुम्हें कुछ नहीं मिलेगा। अमर्ष के कारण बच्ची कुछ नहीं बोल पा रही थी। उसका चेहरा लाल हो गया और आँखों से टप-टप आँसू गिरने लगे। दुकानदार भी अपमानित सा अनुभव कर रहा था, क्योंकि उसे बिना वजह इस प्रकरण में घसीट दिया गया था और लड़की दुकानदार को इस तरह देख रही थी कि मानो उसी की वजह से उसका यह हाल हुआ है। अब पिता ने एक हाथ में खरीदा हुआ सामान उठाया तथा दूसरे हाथ से बच्ची को पकड़कर बड़बड़ाटा हुआ चला गया।

हर माँ-बाप की, हर शिक्षक की यही इच्छा होती है कि उसके बच्चे, उसके विद्यार्थी शुरु से ही अच्छी आदतें सीखें और शिष्टाचार का पालन कर सुसंस्कृत बनें। पर क्या यही तरीका है बच्चों को सिखाने और उन्हें संस्कारवान बनाने का? कहीं हम अनजाने में उन्हें जिद्दी और उद्दण्ड तो नहीं बना रहे हैं? कुछ लोग अपने बच्चों से अपेक्षा करते हैं कि वे बड़ों के पैर छुएँ, लेकिन बच्चे पैर छूना नहीं चाहते। माँ-बाप बार-बार बच्चों से कहते हैं कि अंकल के पैर छुओ, आण्टी के पैर छुओ। कुछ बच्चे माँ-बाप के कहने पर बड़ों के पैर छू तो लेते हैं, लेकिन बड़े ही अनमने भाव से, कई बार बड़बड़ाते हुए भी। यदि माँ-बाप चाहते हैं कि उनके बच्चे बड़ों के पैर छुएँ तो माँ-बाप उपदेश देने की बजाय स्वयं अपने आचरण से उदाहरण प्रस्तुत करें। हम अपने अच्छे आचरण से न केवल अपने बच्चों को अपितु पूरे समाज को बदल सकते हैं। यदि हम किसी की सेवाओं अथवा सहयोग के लिए स्वयं उसका धन्यवाद करेंगे तो हमारे बच्चों में भी यह गुण स्वतः ही आ जाएगा।

लोगों से बातचीत करने के अतिरिक्त घर में आपसी बातचीत के दौरान मित्रों, रिश्तेदारों, पड़ोसियों, सहकर्मियों अथवा अन्य लोगों के बारे में आप किस तरह बातचीतू करते हैं, यह भी एक महत्वपूर्ण बिन्दु है। फोन पर आप अत्यन्त शालीनता एवं शिष्टता से पेश आ रहे हैं, लेकिन फोन रखते ही आपका आचरण बदल जाता है तो इसका बच्चों पर गलत प्रभाव ही पड़ेगा। अनौपचारिक अवस्था में आपका आचरण कैसा है वह अधिक महत्वपूर्ण है और उसी का प्रभाव आपके बच्चों पर अधिक पड़ता है। उसी का वे अनुकरण करते हैं। दोहरे मानदण्ड स्थापित करके आप बच्चों को उलझन में डाल देते हैं। वह बागी बन जाता है। उसका व्यक्तित्व जटिल हो जाता है। वह आप में कमियाँ ढूँढता है। कई बार दूसरों के सामने आपकी पोल खोल के रख देता है। इस स्थिति से बचना अनिवार्य है।

गीता में एक श्‍लोक है :-
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥
महापुरुष जो-जो आचरण करता है सामान्य व्यक्ति उसी का अनुसरण करते हैं। वह अपने अनुसरणीय कार्यों से जो आदर्श प्रस्तुत करता है, सम्पूर्ण विश्‍व उसका अनुसरण करता है अर्थात् श्रेष्ठ व्यक्तियों द्वारा प्रस्तुत आदर्श विश्‍व के तमान लोगों के आदर्श बन जाते हैं। बच्चा भी समाज का एक अंग है, बल्कि अधिक संवेदनशील अंग है।

बच्चे को संस्कारित करना है तो पहले स्वयं सुसंस्कृत बनिए और अपने आचरण द्वारा बच्चे के समक्ष आदर्श प्रस्तुत कीजिए। बच्चा आपके शाब्दिक उपदेश को नहीं आपके व्यवहार को आचरण में ढालता है। आप घर में अथवा घर से बाहर जैसा व्यवहार करेंगे बच्चा उसी की नकल करेगा। अपने व्यवहार को नियन्त्रित और व्यवस्थित कीजिए तथा अपने आचरण के रूपान्तरण पर जोर दीजिए। आप स्वयं लोगों का उचित तरीके से अभिवादन तथा धन्यवाद करना व कृतज्ञता प्रकट करना सीखिए और व्यवहार में लाइये। बच्चा अपने आप सीख जाएगा।

अधिक भय एवं कठोरता की अवस्था में बच्चे का विकास अवरुद्ध हो जाता है। उसमें आत्मविश्‍वास नहीं आ पाता। वह सहमा-सहमा सा रहता है व उसमें दब्बूपन आ जाता है। बार-बार टोका-टोकी करने से वे उत्साहहीन और कभी-कभी जिद्दी भी हो जाते हैं। इन विषम परिस्थितियों से बचने के लिए जरूरी है कि बच्चे को भयभीत करने की बजाए वास्तविकता से साक्षात्कार कराएँ। उन्हें घटनाओं के दुष्परिणामों से अवगत कराएँ जिससे वे सही रास्ता चुनने को बाध्य हों। कठोरता ठीक नहीं लेकिन अनुशासन जरूरी है। ऐसा वातावरण निर्मित करें जिससे बच्चे आत्मानुशासन की ओर प्रेरित हों।

बच्चे को बताना या समझाना बुरी बात नहीं, लेकिन आपका स्वयं का आचरण बच्चे को सिखाने में अधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। क्योंकि बच्चा अनुकरण से ज्यादा और जल्दी सीखता है। आप घर में एक-दूसरे से किस तरह पेश आते हैं? घर में आने वाले मित्रों और मेहमानों से आपका व्यवहार कैसा होता है? नये मेहमानों अथवा अपरिचित व्यक्तियों से आप कैसे मिलते हैं? घर से बाहर पड़ोसियों से अथवा अन्य लोगों से मिलते समय आपका दृष्टिकोण कैसा होता है तथा कैसे उनको सम्बोधित करते हैं, यह ज्यादा महत्वपूर्ण है बच्चों को सिखाने के लिए। - सीताराम गुप्ता

Parents and Children's Reciprocal Relationships | Enough Thinking | Child Development | Love of Relation Love | Tulsidas | Lal Bahadur Shastri | To point out the wrong thing | Self Confidence | Tolerance | Modesty | Life Companion | Divyayug | Divya Yug


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