किसी भी देश या जाति की उन्नति और समृद्धि तीन बातों पर निर्भर है । (1) भूतकाल का ध्यान (2) वर्तमान पर विचार (3) भविष्य के लिए आशावादी होना। जब हम अतीत पर ध्यान देते हैं, तो पता चलता है कि हम भारतीय शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, आर्थिक, सदाचार एवं ज्ञान-विज्ञान में संसार में सर्वोपरि थे। देश-विदेश के ऐतिहासिक विद्वान भी इस सत्य से सहमत हैं । लेकिन प्रश्न होता है कि अब हम क्या हैं ? और हमारा प्रत्येक पग किस ओर बढ रहा है ? उत्तर स्पष्ट है- अवनति की ओर । भले ही हम शारीरिक दृष्टि से गौरांग प्रभुओं की दासता से मुक्त हो गये हैं, परन्तु अन्य दासताओं में फंस कर अपने प्राचीन गौरव को खो बैठे हैं । सम्प्रति पांच प्रकार की दासता में देश जकड़ा हुआ है, जिस पर क्रमश: विचार करते हैं :
(1) शारीरिक दासता- हमारी शारीरिक अवस्था इतनी दयनीय है कि इन्द्रिय-लोलुपता के कारण नाना प्रकार के रोगों से ग्रस्त हैं । ऐसा कोई परिवार नहीं दिखाई देता, जिसमें कोई रोगी न हो । नीरोग रहने का सही उपाय आयुर्वेद बताता है । पथ्याशी व्यायासी स्त्रीषु जितात्मा नरो न रोगी स्यात् ।
परहेज से रहकर सात्त्विक सन्तुलित भोजन करने वाला, नियमित व्यायाम, भ्रमण करने वाला तथा स्त्री में पुरुष और पुरुष में स्त्री-संयम बर्तने वाला मनुष्य कभी रोगी नहीं होता । इसके अभाव में रोगों का सामना करने वा कष्ट सहन करने की क्षमता नहीं रहती । निर्बलता, प्रमाद, अकर्मण्यता, कायरता और भय का सर्वत्र साम्राज्य छाया हुआ है । साठ साल का व्यक्ति कभी पाठा(मजबूत जवान) समझा जाता था । अब समय के फेर से इस आयु के व्यक्ति बुड्ढे होकर चारपाई पर पड़े रहते हैं । कुछ रोगी दशा में मृत्यु की प्रतीक्षा में रहते हैं । कभी ऐसा भी समय था कि भारत में आयु का माध्यमान सौ वर्ष था । लेकिन अब लगभग 25 वर्ष ही रह गया है, ऐसा विचार है । अमेरिका में आयु का माध्यम 56 वर्ष, न्यूजीलैंड में 54 वर्ष 54 वर्ष और जर्मनी व इंग्लैड में 48 वर्ष के ऊ पर पहुंच गया है । चिकित्सा-क्षेत्र में उन्नति से मृत्यु-दर कम हो गयी है ।
भारत में बालकों की मृत्यु-संख्या अन्य देशों से अधिक है । न्यूजीलैंड में एक वर्ष में 8 प्रतिशत, अमेरिका में 11 प्रतिशत ब्रिटेन में 13 प्रतिशत, तो भारत में 18 प्रतिशत बालक पांच वर्ष की आयु के अन्दर मर जाते थे । जो बचे रहते, वे प्राय: दुर्बलता के शिकार होते थे । ये उपयुक्त आंकड़े वर्षो पुराने हैं । नये आकड़ों को हमें अभी ठीक पता नहीं है । इतना अवश्य है कि सुधार की दृष्अि से अब परिवर्तन आ गया है । फिर भी हमारी प्राचीन दशा की अपेक्षा वर्तमान दशा सन्तोषजनक नहीं है । गुणात्मक अन्तर लाने के लिए भारतीय परिवारों में भोजनादि व्यवहार में सुधार की बहुत आवश्यकता है । परम्परागत रूढ विचारों को त्याग कर स्वतंत्र चिन्तन-शक्ति से काम लेना होगा । प्रवाह के विरुद्ध बहना हर व्यक्ति के वश की बात नहीं है । आत्मशक्ति से युक्त व्यक्ति ही इसमें सफल होता है । विज्ञान के युग में भी मनुष्यों के विचारों में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया । वर्तमान स्थिति पर चिन्तन करने के पश्चात् एक बार स्वामी विवेकानन्द जी ने कहा था- हम भारतीयों की चेष्टा में दुढता नहीं है । मन में बल नहीं,उद्योग में साहस नहीं, हृदय में प्यार नहीं, प्राणों में आशा नहीं, हृदय में प्यार नहीं, प्राणों में आशा नहीं और दासत्व से अरुचि नहीं है । फिर है क्या ? केवल प्रबल ईर्ष्या, स्वजाति-द्वेष, दुर्बलों के विनाश की तथा कुत्तों की भांति बलवानों के चरण चाटने की विशेष इच्छा । सम्पति लोगों की सन्तुष्टि धन-ऐश्वर्य दिखाने में, भक्ति स्वार्थ दिखाने में, ज्ञान अनित्य वस्तुओं के संग्रह में, योग पैशाचिक आचरण में, सभ्यता विदेशियों की नकल करने में, कर्म पराये दासत्व में, वकृता कटुभाषण में तथा भाषा की उन्नति अयोग्य धनिकों की बेढगी चापलुसी में अथवा जघन्य अश्लीलता के प्रचार में है । इस प्रकार सम्पूर्ण भारत में शुद्रत्व भरा पता है ।
वैदिक शिक्षा की न्यूनता से भारत में निष्प्राणता सी आ गयी है । अत: इसका अभ्युत्थान अभी सुदूर व अनिश्चित प्राय: है अपनी सांस्कृतिक धरोहर की रक्षा हेतु प्रतिक्षण सजगता की आवश्यकता है । सामयिक वातावरण में परिवर्तन न लाया गया और देशवासियों में धार्मिक, राजनैतिक जागृति न लायी गयी , तो भारत का भविष्य अन्धकार में पड़ा रहेगा । जिनकी आत्मरक्षा सदैव अन्यों द्वारा होती है, जिन्होंने अपने भाग्य के निर्माता दूसरे बना लिये हैं, उनकी आत्मशक्ति कभी स्फु रित नहीं होती । इसलिए उन्हें अपना जीवन दूसरों के अत्याचार व अन्याय को सहन करते हुए दासता में झोंकना पड़ता है ।
देश के प्रति स्वामी विवेकानन्द जी के इन शब्दों में कितनी वेदना छिपी है, यह स्पष्ट है । उनका आशय था कि भारतीय लोग सजग होकर बुद्धिपूर्वक काम करें । अन्धविश्वास छोड़ें । सत्यवादी, परिश्रमी व उत्साही बनें । अनेक ज्ञान-विज्ञानों को जानकर सब प्रकार की दासता से मुक्त हो जायें और भारत के खोये हुए गौरव को पुन: प्राप्त करें ।
हम शारीरिक दासता की चर्चा कर रहे हैं । तय जानना पड़ेगा कि प्राय: हर व्यक्ति किसी न किसी रोग से ग्रस्त है । जब देश में डाक्टर, वैद्यों में वृद्धि हो, तो समझो कि देश रोगी है । वकील बढने लगे, तो जानो देश में झूठ का बोलबाला है, सत्य का मुंह काला है । इसी प्रकार व्यभिचार, बलात्कार बढने लगें, तो देश के चरित्र-पतन की सूचना समझो । इन कुकर्मों से भी रोग बढ रहे हैं, जिनकी चिकित्सा में अरबों रुपये खर्च किये जा रहे हैं । शरीर-वैज्ञानिकों का दीर्घकालीन अनुभव है कि 80 प्रतिशत रोग भोजन सम्बन्धी भूलों के परिणाम हैं । संयम और ब्रह्मचर्य की शिक्षाएं बीते युग की चर्चा बन कर रह गयी हैं । फलत: मनुष्य रोगी और अल्पायु होते जा रहे हैं।
(2) मानसिक दासता- शारीरिक दासता से मानसिक दासता अति भयंकर होती है । दासत्व का भाव इतना व्यापक हो गया है कि भारतीय अपने स्वरूप केा ही भूल गये हैं । इसे आत्मविस्मृति का रोग कहते हैं । धर्मभ्रष्ट हुए तो हुए, नामभ्रष्ट भी हो गये । कितने ही लोग अपने नाम के आगे दास शब्द जोड़ कर बड़े प्रसन्न होते हैं । जैसे रामदास, हरिदास, गंगादास, चरनदास, भगवानदास इत्यादि यहाँ तक कि पत्र के अन्त में आपका दास ऐसा आज भी लिखते हैं । सैकड़ों वर्षों की दासता से जो उन्हें प्यार है, तो भला ऐसा क्यों न लिखेंगे ? वे नहीं समझ पा रहे कि दास शब्द हीनता का द्योतक है । और यह मानव की वीरता, पराक्रम,धैर्य व उत्साह को भंग करके उसे दुर्बल भावनाओं का शिकार बनाता है । यह पहली दासता की पहचान है ।
दूसरे, मन में इतनी कायरता छा गयी है कि यहाँ के हिन्दू मुर्दो से भी भय खाते हैं । इस भय से मुसलमानों की कब्रों, मजारों आदि की पूजा करते फिरते हैं । मुर्दो से धन, सन्तान, मुकदमें की जीत आदि मनोकामनाओं की आशा रखते हैं । कल्पित भूत प्रेत की मन में भावना करके किसी विशेष स्थान में जाने से भयभीत रहते हैं । यह दशा है भारत सन्तानों की । क्योंकि भयभीत माता पिताओं के ये संस्कार उनमें विद्यमान हैं । एक ऐसा भी समय था कि इस देश के भरत जैसे वीर बालक शेर के दांत गिना करते थे, क्योंकि वे वीर माताओं के संस्कारित बालक थे।
तीसरी, मनोवृत्ति की दासता है यदि कोई वैद्य किसी उदर रोगी को यह बता दे कि न तक्रदग्धा: प्रभवन्ति रोगा: अर्थात् मट्ठा सेवन करने वाले को उदर रोग नहीं होते, अथवा तुलसी पत्तों का एक छोटा चम्मच रस नित्य पीने से पुरानी ज्वर भी समाप्त हो जाता है तो मानसिक रोगी इस पर विश्वास नहीं करते । जबकि डाक्टर की लाल-पीली दवा खाने के लिये तुरन्त बहुत सा धन खर्च कर देंगे । चाहे वह दवा सुअर की चर्बी, अंडे के पानी से ही मिला कर क्यों न बनी हो, जैसे कि कुछ दवाएं बनती भी हैं । नीम, बबूल, मौलसिरी की दातुन से दांत-साफ और मजबूत हो जाते हैं किन्तु दास मनोवृत्ति के लोग उनसे नाक भोंह सिकोड़ कर झंझट समझते हैं और निशुल्क दवा को छोड़ कर डाक्टर के कहने से कौलगेट कई रुपयों से खरीद लायेंगे । कुछ लोग अपनी आवश्यक वस्तुओं को इसलिए नहीं खरीदते कि वे देशी हैं, लेकिन विदेश में बनी उसी वस्तु को कई गुना मूल्य देकर सहर्ष खरीद लेंगे। इसी प्रकार अपनी मातृभाषा को त्याग कर विदेशी अंग्रेजी भाषा को बोलने वा लिखने-पढने में गौरव का अनुभव करते हैं । विदेशी वस्तु से प्यार और स्वदेशी से घृणा । इसका नाम है मानसिक दासता । मानसिक दास सभी मैकाले के मानस पुत्र हैं ।
(3) सामाजिक दासता- हिन्दू लोग जाति बिरादरी के रीति-रिवाजों में ऐसे बंधे हुए हैं कि उनके विरुद्ध कदम बढाने का वे साहस नहीं जुटा सकते । चाहे कितनी भी हानि क्यों न हो जाये, उसी खूंटे से बंधे रहना चाहते हैं और समय की गति के साथ चलने को तैयार नहीं है । एक क्षत्रिय की लड़की ब्राह्मण लड़के के साथ विवाह नहीं करेगी, चाहे गुण, कर्म, स्वभाव और विचार भले ही मिलते हो, लेकिन अयोग्य क्षत्रिय लड़के से ही करेगी । अपवाद रूप में कहीं कहीं हो जाते हैं । मिथ्या विश्वास सत्य के विरुद्ध वृत्ति उत्पन्न करते हैं ।
(4) धार्मिक दासता- संसार में धार्मिक दृष्टि से हिन्दू जाति का सबसे अधिक पतन हुआ है । जिनके पूर्वज कभी चेतन की पूजा, प्रत्यक्ष वीर पूजा करते थे, उनकी सन्तान आज नदी, पर्वत, वृक्ष, सर्प और मुर्दों की चेतनवत् पूजा कर रही है अविद्याग्रस्त हिन्दू मुसलमानों की कब्रों के आगे नाक रगड़ते हैं, गिड़गिड़ाते हैं । हाथ जोड़ कर कामनाओं की पूर्ति चाहते है । स्वार्थी पेटू नाना प्रकार की मूर्तियां देवी-देवताओं की कल्पित बनाकर, उनके मिथ्या आख्यान सुना कर धनी निर्धन सभी अज्ञजनों को भ्रमजाल में फंसा रखा है । जड़-पूजा के कारण देश भर के धर्मभीरु नर-नारी लाखों करोड़ों की संख्या में रेलों, बसों में यात्रा करते हैं । आत्मिक अन्धता ने उनकी बोध-शक्ति को इतना दबा दिया है कि सत्य-असत्य विचारने की उनकी क्षमता नष्ट हो गयी है । उनका विश्वास है कि इन देव-मूर्तियों में अटूट शक्ति होती है । वे अपने भक्तों की रक्षा करती हैं । इसके विरुद्ध हम देखते हैं कि प्रति वर्ष इन भक्त यात्रियों की बसें खड़े में गिर कर चकनाचूर हो जाती है, जिससे कितने ही विश्वासी मर जाते हैं ।
(5) आर्थिक दासता- किसी समय भारत न केवल आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न था, अपितु अपना माल विदेश भेज कर व्यापार में सर्वोपरि एवं धन-धान्य से समृद्ध था । सोना, चांदी, हीरे, जवाहरात की अधिकता से भारत स्वर्णभूमि कहलाता था । मुस्लिम लुटेरों को यहाँ की सम्पत्ति ही खींच कर लायी । यूरोप की जातियों को भारत के धन-ऐश्वर्य ने ही आकर्षित किया था । परन्तु दुख का विषय है कि भारत के जिस धनधान्यदि से विदेशियों की जीविका चलती थी, दुर्भाग्य से कुछ वर्षों पूर्व तक उन्हीं वस्तुओं के लिए हम विदेशियों के गुलाम हो गये थे । अमरीका, रूस, ब्रह्मा आस्ट्रेलिया आदि देश हमारे अन्नदाता था । पराधीनता के कारण देश की अर्थव्यवस्था इतनी बिगड़ चुकी थी की करोड़ों लोगों की जीविका खतरे में पड़ गयी । राजनैतिक स्वतंत्रता के साथ आर्थिक दासता हमारे उपर सवार हो गयी स्वतंत्र भारत में गौ आदि मूक पशुओं का वध पूर्व से भी कई गुना बढ गया । यद्यपि सरकारी प्रयत्नों से अब अन्न की समस्या में पर्याप्त सुधार हो गया है, लेकिन दुग्ध-उत्पादन में कोई वृद्धि नहीं हुई । पिछले इतिहास के दुग्ध के आंकड़े आज से मिला कर देखिये ।
अलाउद्दीन खिलजी के काल में एक रुपये का छह मन दूध और 24 सेर शुद्ध घी मिलता था । ईस्ट इंडिया कम्पनी के समय 1 रुपये का 4 मन दूध और 4 सेर घी मिलता था । सन् 1880 में दूध का भाव 22 सेर और घी ढाई सेर था । 18 वीं शताब्दी में एक अंगे्रज यात्री यहाँ आया था । उसने अपनी डायरी में नोट किया था कि भारत के कलकत्ता नगर में इतना अधिक दूध देखा गया कि लोगों ने जगह-जगह दूध के प्याउ लगा रखे थे । लेकिन आज इसी देश में काल की गति से यह दशा बन गयी है कि 4 रूपये का ढाई सौ ग्राम और कहीं 5 रुपये का ढाई सौ ग्राम दूध मिलता है, सो भी पानी मिला हुआ। कही क्रीम रहित दूध असली के भाव बेचा जा रहा है । यह सब दुधारु पशुओं के वध का परिणाम है ।
सन् 1919 में देश में लगभग 4 करोड़ गायें भैंसे थीं । लेकिन स्वतंत्रता के बाद घटती ही चली गयीं । पशु-धन अर्थ समृद्धि का आधार रहा है । इसके तीन कारण हैं- देश में चमड़े का व्यापार, ईसाई मुसलमानों का जन्मसिद्ध अधिकार मान कर गाय-भैसों का वध और पशुओं का अन्य देशों में जाना । मांसभक्षियों की वृद्धि होने से ही उपयोगी पशु मारे जा रहे हैं । यह देश के लिए भारी कलंक है । यदि देश में धर्मसापेक्ष राज्य होता, तो ये समस्त मांसाहारी वधकर्ता वेद के अनुसार सीसे की गालियों से उड़ा दिये जाते । अर्थ व्यवस्था गड़बड़ा जाने से देश विदेशों का कर्जदार है । अब जो भी कुछ धन देश में वर्तमान है, वह कई प्रकार की बुराईयों में नष्ट किया जा रहा है । नशाबाजी, वेश्यागमन, मुकदमे तथा वैवाहिक फिजुलखर्ची मे अरबों रुपये खर्च किये जा रहे हैं । फिर भारत धनवान देश कैसे बन सकता है ? निर्धनता भारत में जड़ जमा कर बैठी हुई है, जिससे तंग आकर अनेक परिवार आत्महत्या कर चुके हैं । बेरोजगारी के कारण देश में सर्वत्र चोरी, डाका, कत्ल आदि दुर्घटनाएं नित्य हो रही हैं । उधर आतंकवाद से सभी देशों की सरकारें परेशान हो रही हैं । एक ओर भारत पर विदेशों के ऋण का भार है, तो दूसरी ओर स्वयं को देशभक्त होने का दावा करने वाले राजनेता अरबों के घोटाले और रिश्वत कांड में ग्रस्त हैं । इस प्रकार विविध अपराधों में देश आकंठ डूबा हुआ है । रक्षक ही भक्षक बने हुए हैं । राज्य-व्यवस्था गड़बड़ा जाने से करोड़ों व्यक्ति अर्थ समस्या में फंसे हुए निराशापूर्ण जीवन जी रहे हैं । धनवान निर्धनों का शोषण कर रहे हैं । धन नहीं है, इसलिए गरीबों को अदालत में न्याय नहीं मिल रहा है । फिर इस अर्थप्रधान युग में प्रजा की मौलिक समस्याओं का हल कैसे होगा? यह विचारणीय है । अर्थिक दासता से मुक्त होना अभी निकट भविष्य में सम्भव नहीं है । देश की जनसंख्या पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगे और रोजगार बढाये जायें, युवकों का सदाचार आकर नैतिक शिक्षाओं में ढाला जाय, मानव-निर्माण योजना क्रियान्वित हो, तब कुछ समस्याओं का हल खोजा जा सकता है ।
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